देवी नहीं, नारी हूँ मैंं

देवी नहीं, नारी हूँ मैंं

मुझे चाहत नहीं

मैं कोई देवी बनूँ,

शक्ति का पर्याय कहलाऊँ

करुणा की वेदी बनूँ

चाह मुझे बस इतनी

कि मैं इंसान रहूँ

खुलकर साँस लूँ

अविरल धारा सी बहूँ,

खुले आसमान में

पँख फैलाकर उड़ूँ,

खुश रहूँ,सपने देखूँ

उसे निर्बाध पूरा करूँ

अपने प्रेम को हँसता देखूँ

अपनी ममता को फलता देखूँ

तुम बस, हमारी खुशियाँ

हर पल चाहतों में

हमारी पलने दो

देवी नहीं, नारी हूंँ मैं

मुझे नारी ही रहने दो…

देवी का दर्जा दिया पर

तुमने बस लूटा मुझको

कुछ कहा नहीं

न दिखा सकी

दिल अपना टूटा सबको

कभी सीता,कभी द्रौपदी बनी

कभी निर्भया बन बलि चढ़ी

तुमने मुझको दगा दिया

मैंने दिया संसार तुम्हें,

जन्म दिया मैंने तुमको

तुमने दिया बाजार मुझे,

बहुत सुन ली झूठी तसल्ली

अब खोखली बातें बंद करो,

जीवन मेरा मुझे जीने दो

दिल के जख्म गहरे हैं

उन्हें अब मुझे सीने दो,

व्यथित हूंँ मैं,आहत भी

तुम्हारे व्यवहार से,

जलती रही हूंँ हर पल

तानों के अंगार से,

मुझे अब व्यथा सबसे

अपनी सारी कहने दो

देवी नहीं, नारी हूंँ मैं,

मुझे नारी ही रहने दो…

अर्चना अनुप्रिया
वरिष्ठ साहित्यकार
दिल्ली

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