कोरोना के बाद की दुनिया
पिछली सदी के दो विनाशक महायुद्धों ने हमारी दुनिया की राजनीति और अर्थव्यवस्था को बहुत हद तक बदला था। विश्व इतिहास में पहली बार कुछ ऐसा हुआ है जिसने राजनीति और अर्थतन्त्र के साथ लोगों का जीवन और जीने के तरीके भी बदल दिए हैं। महामारियां पहले भी आती रही हैं, लेकिन उनके प्रभाव-क्षेत्र सीमित होते थे और उनके गुज़र जाने के बाद जीवन फिर से सामान्य हो जाया करता था। कोरोना की वैश्विक महामारी कुछ अलग ही चीज है। कुछ ही अरसे में इसने समूची दुनिया की तस्वीर बदल दी है। विश्व की ज्यादातर आबादी घोषित-अघोषित लॉकडाउन अथवा अस्पतालों के आइसोलेशन वार्ड में है। संक्रमण के भय से लोग चेहरे पर मास्क लगाकर एक दूसरे से फ़ासले से मिल रहे हैं। सैनिटाइजर औऱ साबुन से हाथ मलते रहना समय का नया कर्मकांड है। इस वायरस के इलाज की आतुर प्रतीक्षा में पूरी दुनिया अपने-अपने दड़बे में सिमटी बेचैन और हलकान है।
पिछले लगभग एक साल में इस वायरस ने दुनिया के लगभग एक करोड़ लोगों की जान ले ली है। इसके वैक्सीन की खोज युद्ध स्तर पर जारी है। अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, चीन और भारत ने इस वायरस के वैक्सीन खोज लेने के दावे ज़रूर किए हैं, लेकिन बहुत आशावादी अनुमान के अनुसार भी उनकी सफलता का अनुपात 60 से 95 प्रतिशत ही है। यह भी तय है कि वैक्सीन से बने एंटीबाडी कुछ महीनों या ज्यादा से ज्यादा साल भर तक ही प्रभावी होंगे। उसके बाद कोविड 19 के नए दौर से इन्कार नहीं किया जा सकता। फिर वैक्सीन के व्यावसायिक उत्पादन, वितरण और दुनिया के अरबों लोगों तक उसके पहुंचने में कई बरस लगेंगे। तबतक शायद दुनिया बदल चुकी होगी। दुनिया में लोगों के जीने की आदतें भी। पिछले कुछ दशकों में जिस रफ्तार से वातावरण में नए-नए किस्म के वायरस का प्रवेश हो रहा है उससे यह लगने लगा है कि अब कोरोना रहे या जाए, हमारी दुनिया अब पहले जैसी नहीं रहेगी।
कोरोना काल में संभावित राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के बारे में दुनिया भर में विमर्श ज़ारी है। हम आम लोग इतना ही समझते हैं कि राजनीतिक रूप से इस महामारी में लोगों के जीवन में सत्ता का हस्तक्षेप बढ़ा है, उनके प्रतिरोध तथा प्रदर्शन के अधिकार पर सरकारों का नियंत्रण बढ़ा है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कई अवधारणाएं भी। अभी यह लोगों की भलाई के लिए लग रहा है, लेकिन कालांतर में यह सत्ता का चरित्र भी बन जा सकता है। महामारी के आर्थिक नतीजे हैं आर्थिक विकास की पिछड़ी रफ्तार, उत्पादन में कमी, वैश्विक मंदी, कर्मचारियों की छंटनी, पर्यटन, होटल और सिनेमा जैसे उद्योगों की बर्बादी, युवाओं की बेरोजगारी में बेहिसाब वृद्धि और ऑनलाइन मार्केटिंग के फैलते जाल के दबाव में देश के छोटे दुकानदारों की रोजी-रोटी पर संकट। ये बाहरी संकट हैं जिनसे निकलने के रास्ते दुनिया देर-सबेर खोज ही लेगी। आने वाले दिनों में उद्योग और व्यवसाय की नई-नई शैलियां और मार्केटिंग तकनीक विकसित होंगी और उपभोक्ताओं की रुचियां भी बदलेंगी। हम यहां कोरोना की वजह से आने वाले सामाजिक और व्यक्तिगत बदलावों की बात करेंगे।
वैक्सीन लगने के बाद भी लंबे अरसे तक न चेहरों से मास्क उतरने वाले हैं और न खुले तौर पर मिलने-जुलने का भय जाने वाला है। हमारे जीवन से अब लंबे वक्त के लिए उत्सवधर्मिता गायब रहने वाली है। राजनीतिक रैलियां ही नहीं, तमाम धार्मिक जुलूस और सांस्कृतिक आयोजन भी शायद पहले जैसे नहीं रहेंगे। सिनेमा और रंगमंच खुलें भी तो उनकी रौनकें गायब रहेंगी। कवि-सम्मेलन, सेमिनार, गोष्ठियां और यहां तक कि सियासी रैलियां भी अब ज्यादातर ऑनलाइन हुआ करेंगी। मंदिरों-मस्जिदों-चर्च-गुरुद्वारों और होटलों में मास्क और सोशल डिस्टनसिंग के साथ ढेर सारा डर भी साथ होगा। शादी-ब्याह के आयोजन बेजान और फीके होंगे। मैदानों में खेल के भीड़ भरे आयोजन अब देखने-सुनने को जाने कब मिले। दुकानें खुलेंगी लेकिन बाजार की रौनकें गायब होंगी। हमारा देश भीड़ का आदी रहा है। कुछ न हुआ तो बीच सड़क पर ही दस लोगों को जमा कर हंस-बोल, गा-बजा लिया। अकेले और अलग रहने की कला हमें सीखनी पड़ रही है। दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक यह दिलासा तो दे रहे हैं कि यह वायरस सामाजिकता के हमारे मूल स्वभाव को नहीं बदल पाएगा। यह संकट दूर होने के बाद लोगों को सामाजिक जुड़ाव की ज़रूरत पहले से ज्यादा महसूस होगी। हालांकि कुछ विचारक यह आशंका भी प्रकट कर रहे हैं कि वर्षों तक वैयक्तिकता और असामाजिकता निभाने का अभ्यास और मजबूरी हमें समाज से काटकर हमेशा के लिए एकांतप्रिय भी कर दे सकती है।
इस नई दुनिया में जिन लोगों का जीवन पूरी तरह से बदल गया है, उनमें 60-65 साल से ऊपर के बुजुर्ग सबसे पहले हैं। उनमें प्रतिरोधक क्षमता भी कम होती है और जीवन के इस दौर में वे किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त भी होते हैं। उनके लिए अभी सामाजिकता के तमाम रास्ते बंद हैं। न वे हमउम्रों के साथ टोली बनाकर जीवन के अपने अनुभव साझा कर पा रहे हैं और न सुख-दुख। सुबह-शाम झोला लेकर दूध और सब्जी के बहाने बाजार का एक चक्कर घर के लोग उन्हे लगाने नहीं दे रहे। वैक्सीनेशन के बाद भी उनके जीवन में पहले जैसा खुलापन अब शायद ही लौटे।उन वृद्धजनों की ज़िंदगी शायद थोड़ी आसान होगी जिनकी पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी अथवा कुछ रचने में रुचि है। इस उम्र के बाकी लोगों को अब जीवन के नए अर्थ और जीने के अलग सलीके खोजने होंगे। जो वृद्धजन ऐसा नहीं कर पाएंगे वे बैठे-बैठे घर-परिवार के कामों में अनावश्यक हस्तक्षेप करेंगे, युवाओं और बच्चों के आगे उपदेशों और अपने अप्रासंगिक हो चुके जीवन-मूल्यों की गठरी खोलेंगे और धीरे-धीरे अपने परिवार के लिए भावनात्मक तौर पर बोझ बनते चले जाएंगे।
कार्यालयों और व्यावसायिक स्थलों में कार्यरत लोगों के तमाम कार्य-स्थल कुछ दिशानिर्देशों के साथ लगभग खुल गए हैं। उनके प्रोफेशनल तौर तरीके अब पहले जैसे नहीं रहे। उनकी दिनचर्या में अब दफ्तर, कुर्सी-टेबुल, फाइल, कंप्यूटर, मोबाइल, बॉस, शोरूम, ग्राहकों और सहकर्मियों के अलावा सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क, सेनेटाइजर और बहुत सारे भय भी शामिल रहेंगे। छोटे व्यवसायी, किसान और मज़दूर भी बदली स्थितियों के साथ तालमेल बिठाकर काम करने की आदत डाल रहे हैं। कुछ ही अरसे में तमाम शर्तों और दिशानिर्देशों के साथ देश के कॉलेज और हाई स्कूल भी खुलेंगे। यह और बात है कि शिक्षण संस्थाओं की रौनक लंबे समय तक गायब होगी। न वह शोर-शराबा होगा, न वैसे गुलज़ार प्रांगण, न भीड़ भरे कॉमन रूम और खेल के मैदान, न दोस्तों से दौड़कर गले मिलने और लपककर हाथ मिलाने के अवसर। इस बदले माहौल का युवाओं के दिलोदिमाग़ पर होने वाले मनोवैज्ञानिक असर से भविष्य की दुनिया का चेहरा कैसा बनेगा, इसकी पड़ताल के नतीजे दिलचस्प होंगे।
कोरोना काल में बच्चों का जीवन सबसे कठिन हो चला है। उनका बचपन उनसे छिन रहा है। महीनों से घर के बाहर वे निकल नहीं पा रहे। अपने हमउम्र दोस्त उनके लिए पराये और अछूत हो चले हैं। खेलते-कूदते बच्चों के शोर के बगैर शहरों की गलियां और गांवों के रास्ते सूने हैं। उनके स्कूल महीनों से बंद हैं। नए साल में उन्हें फिर से खोलने की चर्चा तो हो रही है, लेकिन देश में जिस तरह का कोरोना विस्फोट देखने में आ रहा है, उसमें यह संभावना नहीं के बराबर है। सरकार बच्चों के जीवन से खेलने का कोई खतरा शायद ही मोल ले। किसी दबाव में अगर सरकार ने मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइजर की शर्तों के साथ बच्चों के स्कूल खोल भी दिए तो उनके माता-पिता उन्हें शायद ही स्कूल भेजना चाहेंगे। जब तक देश के तमाम लोगों को कोरोना के टीके नहीं लग जाते तब तक बच्चों को लेकर कोई खतरा मोल नहीं लिया जा सकता।
कुछ लोग बच्चों के स्कूल क्लास रूम में छह-छह फीट की दूरी पर डेस्क लगाने और डिस्टेनसिंग की शर्तों के साथ बच्चों के स्कूल खोलने की सलाह दे रहे हैं। अपने देश में स्कूलों में बच्चों की भीड़ और जगह की कमी के मद्देनजर ऐसा करना संभव नहीं होगा। फिर बच्चों को मास्क पहनाना क्या इतना ही सहज है ? टीचर के क्लास से बाहर निकलते या छुट्टी की घंटी बजते ही वे मास्क नोच कर फेंक देंगे। स्कूल के खेल के मैदान बंद हुए तो वे क्लास को ही खेल का मैदान बना डालेंगे। फिलहाल ऑनलाइन क्लासेज को स्कूली शिक्षा का विकल्प बताया जा रहा है, लेकिन इससे बच्चों के व्यक्तित्व और मानस का एकहरा विकास ही संभव है। उन्हें घर के प्यार और किताबी शिक्षा के साथ शिक्षकों की फटकार भी चाहिए, दोस्तों के साथ प्यार और लड़ाई-झगड़े भी, खेल के मैदान भी और गलियों की धूल-मिट्टी भी। दुनिया के बंधन-मुक्त होने तक अपने उन्मुक्त संसार और जाने-पहचाने रूटीन से कटे हमारे बच्चे शायद अकेले, उदास और असामाजिक हो चुके होंगे।
सामाजिक अलगाव के इस समय में हमारी दुनिया में और भी बहुत कुछ बदला है। परंपरागत सोच से अलग घरों में रहने वाले लोग अब समझदार और सामाजिकता निभाने वाले मूर्ख कहे जाते हैं। पहले घरों से ऊबे हुए लोग बोरियत मिटाने के लिए बाहर भागते थे, अब बाहर से डरे हुए लोग सुरक्षा की तलाश में घरों की ओर दौड़ते हैं। किसी भी परिवार में मेहमान अब देव-तुल्य नहीं, अवांछित माने जाते हैं। युवाओं के प्रेम करने के तरीके बदले हैं। प्रेमी जोड़े मास्क डालकर एक दूसरे से मिल तो रहे हैं, लेकिन उनके बीच में दो गज का फासला भी होता है। प्रेमी जोड़ों को शहर के पार्कों में अनुशासित करने के लिए अब लाठीधारी गार्डों की जरूरत नहीं है। संक्रमण का डर ही उन्हें अनुशासित करके रखता है। सिनेमा, थिएटर और सांगीतिक आयोजन जैसे मनोरंजन के सामुदायिक मंचों के अभाव में टेलीविजन, मोबाइल और इंटरनेट पर लोगों की निर्भरता बढ़ी है। विदेश घूमकर आना अब प्रतिष्ठा की नहीं, मुंह छुपाने की बात है। सामुदायिकता के जाने के साथ देश-दुनिया में अवसाद से भरे लोगों की संख्या में बेतहाशा इजाफा हुआ है। सड़कों पर गिरे हुए को सहारा देने के पहले लोग सौ बार सोचते हैं। रोगियों की सेवा की हमारी युगों पुरानी परंपरा टूटी है। लोग कोरोना के संदेह में सामान्य मरीजों को भी देखकर दूर भागते हैं। दुर्भाग्य से कोरोना से कोई मरा तो उसकी लाश को कंधा देने के लिए भाड़े के लोगों की तलाश करनी पड़ रही है।
जानलेवा वायरसों के इस दौर ने हम में बहुत कुछ बदला है। आने वाले कई वर्षों तक स्थिति शायद ही बदले। जिसे हम सामान्य जीवन कहते रहे है, वह अब शायद इतिहास की वस्तु हो जाय। आज के नीति-शास्त्र का नवीनतम सूत्र वाक्य यह है कि हमें कोरोना या उसके डर के साथ जीना होगा। वैक्सीनेशन के बाद भी। वैसे जीने में आज की पीढ़ी को मुश्किलें तो आएंगी, लेकिन जीवन रुकता कहां है ? मौत के समुद्र में भी अपने लिए द्वीपों की तलाश कर लेता है। परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढाल भी लेता है। अब भविष्य में जैसा हमारा जीवन होने वाला है, उसके लिये सामान्य से अलग कोई दूसरा शब्द खोजना होगा। फिलहाल लोग इसे न्यू नार्मल कहने लगे है। इस न्यू नार्मल को आज हम असामान्य कह दे सकते हैं, लेकिन आने वाले समय में लोगों को शायद ऐसा ही जीवन सामान्य लगने लगे। यह भी संभव है कि वे मुड़कर देखें और यह सोचकर मुस्कुरा दें कि अभी कुछ ही बरसों पहले हमारा जीवन कैसा बेढब और बेतरतीब हुआ करता था।
ध्रुव गुप्त
वरिष्ठ साहित्यकार और सेवानिवृत्त पुलिस अधीक्षक
पटना, बिहार