कोरोना और पर्यावरण

कोरोना और पर्यावरण : एक अवसर या सौगात

इस कोरोना काल में भविष्‍यत: महात्मा गाँधी की कही दो बातें बहुत ही स्मरणीय हैं। एक यह, कि जो बदलाव तुम दूसरों में देखना चाहते हो वह पहले खुद में लाओ। दूसरा कथन तो शायद पहले से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है – वह यह कि संसार में हमारी जरूरतों के लिए संसाधन हैं लेकिन हमारे लालच के लिए नहीं। कोरोना के संदर्भ में शायद दोनों वक्तव्य सही हैं। कोरोना ने विश्व में पिछले चार-पाँच महीनों में हाहाकार मचा दिया है। उसने एक गंभीर संदेश दिया है कि हे मानव! अपनी जीवन-शैली को बदलो और अपने अंदर झाँक कर देखो। पिछले दिनों में जो तस्वीरें हमें विस्मित करने लगीं, वे थीं स्वच्छ नीला आकाश, पशु और पक्षी जो कि स्वच्‍छन्‍द घूम रहे थे, गंगा की स्वच्छ धारा और जैसे कि मानों प्रकृति हमें कह रही थी – तुमने सभी संसाधनों को तोड़ा, मरोड़ा और तौहीन की। अब तुम घरों में वापस जाओ और मुझे सांस लेने दो। जूलिया हिल के शब्दों में कहें तो प्रकृति ने कहा कि अपनी सभी गतिविधियों के लिए तुम उत्‍तरदायी हो, तुम ही पृथ्वी को बचा सकते हो। शायद हम पर्यावरण के साथ जो बर्ताव करते हैं वो हमारी मानसिकता को दिखाता है। हम पर्यावरण की परिभाषा देखें तो कह सकते हैं कि वह सब कुछ जीवित और निर्जीव जो हमारे चारों तरफ है उसे ही पर्यावरण कहते हैं। पर्यावरण जीवन दायिनी है और हम इससे ही तो भोजन, पानी, हवा और वह सभी चीजें, जो हमें जीने के लिए चाहिए, लेते हैं। पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है परिवेश या वातावरण – अर्थात् सभी वस्तु, व्यक्ति या प्रणाली जिनसे हम जुड़े हैं या घिरे हैं। मनुष्‍य और पर्यावरण का एक सतत् संबंध है।
जैसे-जैसे विज्ञान ने तरक्की की, पर्यावरण में बदलाव आने लगे। गाड़ी, मोटर, हवाई जहाज से वायु प्रदूषण बढ़ गए। हमने धरती के बहुतेक हिस्से पर मानवीय हिस्सेदारी बढ़ा ली तो जानवरों और पक्षियों के आवास नष्ट हो गए। शहरीकरण बढ़ा तो मैना, कौए, गौरैया खत्म हो गए। प्राकृतिक संसाधनों को हमने बिना समझे उपयोग किया तो, जंगल, झाड़ नष्ट कर दिया। पिछले पचास वर्षों में शहरीकरण तथा औद्योगीकरण बढ़ने से हवा, पानी और मिट्टी तीनों पर विपरीत असर हुआ है।
कोरोना के आने से क्या हुआ? अच्‍छी बाते कहें तो हमने वेनिस की नहरों में साफ पानी देखा, दिल्ली की सड़कों पर मोर और भारत के शहरों में नीला आसमान। कोरोना से शहर बंद हो गए तो पर्यावरण को दूषित करने वाले कारखानें, मोटरें, रेल, हवाई जहाज सभी बंद हो गए। इससे कार्बन के उत्सर्जन (Emission) में कमी आई और हवाएं शुद्ध होने लगी। भारत के कई शहर, जो हिमालय से 200 किमी दूर हैं, वहाँ तीस या अस्सी सालों के बाद हिमालय की बर्फीली चोटियाँ दिखने लगी। लोगों को आश्चर्य भी हुआ और अपनी बदलती जीवन-शैली से आए इस नए बदलाव पर एक खुशी भी हुई। कार्बन उत्सर्जन की कमी से वातावरण शुद्ध हुआ। लेकिन हम क्या इस शैली को या बदलाव को बना कर रख पाएँगे? इसके लिए हमें सोचना होगा। पर्यावरण पर वायु की अशुद्धता तथा हमारी जीवन शैली का बहुत प्रभाव पड़ता है।
अचानक आई इस वैश्विक बीमारी से आर्थिक गतिविधियाँ बंद हो गई तथा आवागमन की कमी होने से वायु की शुद्धता शहरों में अच्छी हुई। दिल्ली की हवा पिछले बीस सालों में इतनी अच्छी कभी नहीं रही। ट्रैफिक में 40 प्रतिशत से भी अधिक कार्बन उत्‍सर्जन की कमी महसूस की गई। लोगों के घरों में रहने से भी वातावरण की शुद्धता बढ़ी। हवाई यात्रा तो बिल्कुल नगण्य हो गई। इससे शायद प्रकृति को ठहराव (Pause) मिल गया और वो थोड़ा साँस लेने लगी। लेकिन क्या यह बदलाव क्षणिक और अल्प अवधि के लिए है? दिल्ली को देखें तो लॉकडाउन हटने के साथ ही ट्रैफिक अपने पुराने ढर्रे पर आ खड़ी हुई है। लेकिन ‘‘घर से काम करें’’ शायद अभी कुछ दिनों में हमारी आदत बन जाएगी और ट्रैफिक और कार्बन के उत्सर्जन में थोड़ा बदलाव आएगा। जहाँ हवा-पानी साफ हुआ है, वहाँ कुछ दूसरे बदलाव आ गए हैं जो पर्यावरण के लिए एक चुनौती और समस्या बनेंगे। इनमें मेडिकल की बेकार वस्तुएँ, पैकेजिंग सामान और ऑनलाइन खरीदारी के कारण प्लास्टिक और उस तरह की वस्तुओं का सही निपटारा शामिल है। घर में रहने के कारण लोग बाहर से सामान मँगवा रहे हैं। प्लास्टिक, कागज़, गत्‍ते इन चीजों से पार्सल बनते हैं। कुछ पश्चिमी देशों में तो इनकी खपत में 111 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। प्लास्टिक का भी उपयोग बढ़ गया है।
कोरोना समस्या क्या केवल स्वास्थ्य या सामाजिक समस्या है या जलवायु परिवर्तन की तरह प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ी है? कोरोना निश्चय ही वायरस से आया है लेकिन इसको समझने के लिए हमें मनुष्यों के व्यवहार, प्रकृति से उसके खिलवाड़ को भी समझना होगा।
अगर हम गैर-जरूरी गतिविधियों को कम कर दें तो हम प्रकृति, पर्यावरण और कोरोना से लड़ सकते हैं। लोग आपस में मिलते हैं और तभी संक्रमण फैलता है। अगर हम यह मिलना जुलना सीमित कर दें तो कोरोना के उत्पात को कम किया जा सकता है। हमें शायद अपनी मानसिकता बलदनी होगी। हमें अभी की अर्थव्यवस्था से हटकर सोचना होगा। मानसिक बदलाव ही सबसे बड़ा बदलाव है। कहते हैं कि सभी संकट एक अवसर लेकर आते हैं और शायद अब एक अवसर हमारे सामने है। इससे हमें सीखना भी है और मुकाबला भी करना है। पर्यावरण की सामान्‍यत: चार मुख्य समस्याएँ हैं- हवा और पानी का दूषित होना, तापमान का बढ़ना और इससे बाढ़, कटाव इत्यादि का आना, प्लास्टिक की उपयोगिता में बढ़त और प्राकृतिक संपदाओं का बिना सोचे समझे हनन और दुरूपयोग।
कोरोना से पर्यावरण पर अगर कुछ अच्छा हुआ तो कुछ बुरा भी हुआ। मेडिकल अवशेष जैसे कि मास्क या PPE किट को कैसे सुरक्षित तरीके से निपटाया जाए यह एक बड़ी समस्या है। पिछले कुछ वर्षों में एक चक्रीय व्यवस्था (Circular Economy) यानि कि चीजों को कैसे पुनः उपयोग किया जाए, इस पर गंभीरता से विचार किया जा रहा था। नीति आयोग में इस पर एक नीति बनाने की बात चली थी यह देखते हुए कि विश्व में ज्यादा जनसंख्या को अधिक उत्पाद सामग्रियों की आवश्यकता होगी तो उत्पाद सामग्रियों को कुशलता से बनाने तथा उनका पुनः उपयोग करके कचरे को रोकना- इसे चक्रीय व्यवस्था कहते हैं। कोरोना के कारण एक बार इस्तेमाल करो और फेंको, बढ़ गया है क्योंकि विषाणु/जीवाणु के फैलने का खतरा है तो अनुपयोगी सामग्री का पुन: उपयोग घट गया है। भारत जैसे देश में जहाँ पहले ही अपशिष्ट निपटान एक गंभीर समस्या है, कोरोना के कारण यह समस्या और बढ़ गई है। कोरोना के फैलने से क्या हम इससे कोई सीख ले सकते हैं? क्या हम कोरोना के जाने के बाद भी अपने आसमानों को नीला रख पाएँगे? क्या हम अपनी जरूरतों को तथा उसके सेवन को सीमित या कम रख सकते हैं? क्या हम अपनी आवश्‍यकताओं को सीमित रख पाएँगे? क्या हम अपनी जैविक सम्पदा को बचा पाएँगें? क्या संसाधनों को हम ठीक से उपयोग कर पाएँगे? पूरे विश्व में लॉकडाउन की वजह से बहुत सारे लोगों की जीविकाएँ खत्म हो गई हैं। भारत में तो करीब 65 लाख से ऊपर लोग शहरों को छोड़कर गाँव की ओर चले गए हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इनमें से करीब 35 प्रतिशत लोग वापस नहीं आएँगे। प्राकृतिक संसाधन जैसे कि पीने का पानी, तालाब, खेतों पर इसका असर पड़ सकता है। संसाधनों की कमी के कारण गरीब राष्ट्र अपनी संपदाओं को शायद नहीं बचा पाएँगे क्‍योंकि उनका ध्‍यान अब स्‍वास्‍थ्‍य को बचाने का है। कोरोना के कारण पर्यटन पर बहुत गंभीर असर पड़ा है। एक तरफ जहाँ लोगो को भीड़ से राहत मिली है, वहीं पर्यटन के नहीं होने से पर्यटन/पर्यावरण के रक्षकों की कमी हो सकती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि आर्थिक सुईं जब ऊपर चढ़ती है तो पर्यावरण नष्ट होता है, जैसे कि जंगल कट जाते हैं, ज्यादा अपशिष्ट (waste) बनता है। वहीं आर्थिक सुईं नीचे होने से प्रकृति की रक्षा होती है। लेकिन यह मानना हमेशा सही नहीं है शायद। तो हमें क्या करना चाहिए? कोरोना ने जिंदगी की रफ्तार को जैसे थाम लिया है। अब लोग कुछ अलग तरह से सोचने के लिए मजबूर हो गए हैं। हम शायद ज्यादा ग्रीन आजीविका, साफ ईंधन (सौर्यशक्ति) और अधिक वैश्विक सामंजस्य के बारे में सोच सकते हैं। कोरोना ने कुछ दीवारें खड़ी की हैं। लोगों के आने जाने पर, मिलने-जुलने पर रोक लगा दी। लेकिन समस्याओं का समाधान मिलकर ही निकाला जा सकता है और जरूरत है अपनी सोच बदलने की।
आयुर्विज्ञान की रिसर्च से पता चला है कि 75 प्रतिशत से ज्यादा संक्रामक रोग पशुओं से आते हैं। जंगलों के कटने से वन्य जीव की ट्रैफिकिंग और यात्रा (हवाई और समुद्री) से ही यह संक्रमण फैलता है। चीन ने अभी हाल में जंगली पशुओं के व्यापार पर तात्‍कालिक प्रभाव से रोक लगा दी है। संक्रमित रोगों की रोक – थाम में यह सराहनीय कदम है। कोरोना ने एक और चीज साबित कर दी है कि वायरस अच्छा है या बुरा – यह हम मनुष्यों पर निर्भर करता है। कोरोना ने विश्व को एक लाल सिग्नल दिया है- उसे थमने को कहा है। पर्यावरण को बचाने की मुहिम तेज करने का संदेश दिया है। हमें अपनी आदतों को सुधारने का अवसर दिया है। हमें अपने खोए हुए पर्यावरण की तरफ जागरूक किया है।
भारत जैसे देश में जहां पर्यावरण पर जनसंख्‍या और रोग की दोहरी मार है, उसकी क्‍या भूमिका होगी ? भारत अगर कुछ कदम उठाए तो पर्यावरण की रक्षा के साथ-साथ लोगों की आजीविका को भी बचा सकता है। कारोना वारियर्स के साथ-साथ ‘’पर्यावरण रक्षक’’ की आवश्‍यकता है। जैविक संसाधनों की मैपिंग की जा सकती है। जंगलों को बढ़ाने, वृक्षारोपण जैसे कार्यों में तेजी लाने से प्राकृतिक सम्‍पदा तो बढ़ेगी ही, साथ-साथ रोजगार के अवसर भी मिलेंगे। आयुष मंत्रालय, वनजनित औषधि के उत्‍पादन में तेजी ला सकता है। सबसे ज्‍यादा आवश्‍यक है कि हम जीवन में, अर्थव्‍यवस्‍था में विसंगतियों को कैसे कम करें। एक अच्‍छे विश्‍व के लिए हर स्‍तर पर लड़ाई लड़नी होगी, हर स्‍तर पर लोगों को तैयार करना होगा, अपनी कमजोरियों को पहचान कर, उन्‍हें अपनी ताकत बनानी होगी। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रकृति की रक्षा और शहरी क्षेत्रों में चक्रीय व्‍यवस्‍था – यह शायद हम जल्‍दी ही कर सकते हैं। संक्रमण से बचने के लिए डिजीटल तकनीक का सहारा लेकर हम संसाधनों में बचत कर सकते हैं। कोरोना अवसर भी है क्‍योंकि इसने हमें थमने, रुकने, सोचने पर मजबूर कर दिया है और सौगात इसलिए कि हम सबने आंख उठाकर, झांककर खुली हवा और नीले आसमान का आनंद लिया।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि बहुत अध्ययन और सामयिक प्रसंगों को देखते हुए कोरोना से पर्यावरण में कुछ बदलाव देखने को मिल सकते हैं। इनमें प्रमुख होंगे- आर्थिक कार्यकलापों में कमी आने से कुछ समय के लिए कार्बन उत्सर्जन में कमी आ सकती है। दूसरा कुछ समय के लिए शहरी एवं वन्य जीव-जंतुओं को राहत मिल सकती है। वन्य जंतुओं के व्यापार में कमी हो सकती है। जल प्रदूषण के भी घटने की उम्मीद है। जैसा कि गंगा नदी और वेनिस के प्रसिद्ध जल Waterways को देखकर लगा था। प्लास्टिक के उपयोग में अभूतपूर्व वृद्धि जो कि एक नकारात्मक उपलब्धि है। कुछ बदलाव जो कि अच्छे हैं शायद वो कुछ समय के लिए हैं और हम दुबारा पुराने ढर्रे पर वापस भी आ सकते हैं और यही आवश्‍यकता है लोगों को जागरूक करने की। उन्‍हें पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण में मानव की सकारात्‍मक भूमिका को समझाने की।
कोरोना ने जीवन भर के लिए कठोर संदेश दिए हैं। पहली बात तो यह कि समस्‍या को समझो और उसे स्‍वीकार करो। दूसरा कि नागरिकों को सही बातें बताओ। हमने देखा कि विश्‍व के प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति टी.वी. और रेडियो के माध्‍यम से अपने लोगों से बात करते नजर आए। लोगों में एक विश्‍वास और जागरूकता पैदा करने की कोशिश की। तीसरा कि अगर कठोर कदम भी उठाने की जरूरत पड़े, तो उठाएं। सबसे अंत में सभी के साथ सहयोगिता को बढ़ाएं। इस उल्‍टे-पुल्‍टे समय में सबके साथ मिलकर ही कोरोना का मुकाबला किया जा सकता है। क्‍या कोरोना की रणनीति को पर्यावरण की नीति बनाई जा सकती है? इसके लिए राज्‍यों को, राष्‍ट्रों को स्‍वीकार करना होगा कि प्रदूषण – जल, वायु, मिट्टी की समस्‍या है और उनसे हमें लड़ना होगा। दूसरा कि क्‍या हम नागरिकों को पर्यावरण पर उठाए गए कदमों से अवगत करा सकते हैं? क्‍या एक पर्यावरण चैनल दूरदर्शन पर स्‍थापित किया जा सकता है? क्‍या हम ऐसे सामज और देश का निर्माण कर सकते हैं जहां कि पर्यावरण संबंधी समस्‍याएं बिना हिचक के बांटी जा सकती हैं? क्‍या राज्‍य सरकारें मिलकर युद्ध स्‍तर पर पर्यावरण को अहम मानेंगी?
सवाल ज्‍यादा हैं और उनके उत्‍तर कम। वह इसलिए कि पर्यावरण को जीवन का अहम् पहलू न मानकर उसे केवल एक कार्यकर्ता का दायित्‍व मान लिया गया है। शायद कोरोना ने हमें यह अवसर दिया है कि उससे जूझने की रणनीति को हम यहां भी लागू करें और उससे लाभ उठाएं।
आवश्यकता इस बात की होगी कि हम इन अनुभवों को कैसे स्थायी नीतियों में बदलें, सरकारें कैसे उन पर काम करें। परिवार महत्वपूर्ण हैं, हमारा स्वास्थ्य कीमती है, यह कोरोना ने हमें सिखा दिया है। हमें एक ग्रीन आर्थिक समाज की रचना करनी होगी। तभी कोरोना से पर्यावरण को मिली सौगात को हम सुदृढ़ कर पाएंगे। बहुत से वैज्ञानिक और रोगविद् तो यह भी कह र‍हे हैं कि हमने HIV जैसे रोग से लड़ने के लिए जैसा एक सामाजिक वातावरण तैयार किया था, वैसी ही सामाजिक ढाल यहां भी बनाने की आवश्‍यकता है। पर्यावरण की रक्षा उसका एक महत्‍वपूर्ण स्‍तम्‍भ बन सके, इस दिशा में हम काम कर सकें, कोरोना ने हमें यह अवसर दिया है।

डॉ. अमिता प्रसाद
आई ए एस
दिल्ली, भारत

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