सुबह, दोपहर और शाम
दिसम्बर का अंतिम सप्ताह भारत के उत्तरी भाग में सिहरन, ठिठुरन, धूप की गर्मी, कम्बल और रजाई के मखमली अहसास और आग की तपन का होता है। और इसी महीने में आता है क्रिसमस का रंगीन त्यौहार। बाकी भारतीय पर्वों की तरह इसके दिन और महीने नहीं बदलते – यह हमेशा 25 दिसम्बर को ही आता है। जिंदगी सुनसान, वीरान है या फिर उन्मुक्त या स्वतंत्र – यह हमारी अपेक्षाओं पर निर्भर है। इसी तरह पर्व, त्यौहार, उनके मायने, उनका विशेष होना – सब कुछ हमारे वातावरण पर निर्भर करता है।
सुबह
क्रिसमस से मेरी पहली मुलाकात हुई थी छोटे से शहर के एक छोटे ईसाई स्कूल में। पहले, दिसम्बर में ही स्कूल के सत्र खत्म होते थे। तो पहली कक्षा का वार्षिक इम्तहान खत्म हुआ था और रिजल्ट भी निकल गया था। फिर हमें स्कूल से निमंत्रण आया हमारी शिक्षिकाएँ हमें ले गई बालक जीसस से परिचय कराने। पाँच, छह साल के हम मासूम बारह चौदह बच्चें उस छोटे बालक पर मुग्ध हो गए जो कि एक छोटे से पालने में लेटा था और एक जानवरों के रखने वाले घर में पैदा हुआ था। बकरी, भेड़ के बीच लेटा हुआ एक छोटा बच्चा। एक अलौकिक ही दृश्य था – प्रार्थना करते हुए लोगों की मूर्त्तियाँ, परी के हाथ मे तारा और नन्हें जीसस के माता-पिता – माँ ‘मेरी’ और पिता ‘जोसफ’। शिक्षिकाओं ने कहा, हम भी कुछ बना सकते हैं और एक बड़े क्रिसमस ट्री के पास ले गई। और फिर हम बच्चों ने खूब धमाचौकड़ी मचाई | कूद-कूद कर सितारे टाँगे, लाल गोले, चाँदी के सितारे और मोजे लटकाए। अब मोजों में सांताक्लाज सबके लिए कुछ – न – कुछ लाएगा। स्कूल का मोटा दरबान सफेद दाढ़ी और लाल कोट में सांताक्लाज बनकर आया था। उसके हाथों में चाकलेट थी। ‘जिंगल बेल’ के गाने पर कूद – कूद वो हमें चाकलेट बाँट रहा था। कितनी मस्ती, कितनी मासूमियत से। उसको देखते ही हम सब बच्चे उससे लिपट गए। रोज सुबह – शाम हमें वही तो रिक्शे पर बिठाता था। हमने वहीं सीखा जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संदेश। जीवन बहुत ही खूबसूरत है। खुशियों के लिए कोई सरहद नहीं होती।
दोपहर
आज स्कूल मे सभी क्रिसमस की पार्टी के बारे में बातें कर रहे थे। क्या पहनना है कहाँ आना है। अब ग्यारहवीं क्लास की लड़कियाँ तो इतनी छोटी भी नहीं कि कोई मना करे और इतनी बड़ी भी नहीं कि उन्हें अकेले जाने दे | इसीलिए बड़े ग्रुप की तैयारी हो रही थी। क्रिसमस का ये पूरा सप्ताह ही मौज मस्तियों का है। पार्टी, केक, खाना पीना, मिलना-मिलाना सांताक्लाज की लाल टोपी पहनना भगदौड़ और व्यस्तता। जैसे कि हमारे आसपास अनवरत संगीत चल रहा हो। और सब रंगीन हो। पार्टी में सब आ रहे थे केवल श्यामा को छोड़कर। क्लास सात तक तो वही टॉप करती थी। फिर आठवीं क्लास में मैं आ गई उस स्कूल में। श्यामा पहले से दूसरे और फिर तीसरे और अब आठवें नम्बर पर आ गई है। डॉक्टर बनना चाहती है वह। सुना है उसकी माँ कपड़े सिलने का काम करती है। वह बहुत चुप रहती है। उदासी का भी अपना गणित है। आप उदासी के चक्रव्यूह में फँसते जाते हो और फिर वहाँ से निकलना मुश्किल हो जाता है। बचपन में सुना था कि, क्रिसमस की रात बारह बजे सांताक्लाज गिफ्ट बाँटते हैं। इस बात पर अब भी विश्वास करने को दिल चाहता है। खुश होने के लिए क्या चाहिए – खूब पैसा, ढेर सारी मस्ती और अच्छे दोस्त। फिर पता चला कि सीक्रेट सांता बनकर माँ — बाप ही कोई उपहार रख देते हैं। श्यामा की आँखों की उदासी शायद कोई सांता नहीं पढ़ पा रहा है। मुझे अपने घर के दरवाजे पर देखकर वह सकपका गई। “क्रिसमस की पार्टी में तुम्हें लेने आई हूँ।” मेरे हाथ के मोटे गिफ्ट के रंगीन कागज को खोलते हुए श्यामा की आँखे गीली हो गई। प्री मेडिकल से संबंधित चार किताबों को वह सँम्हाल कर रख मुझसे लिपट गई। इससे अच्छी क्रिसमस मुझे याद नहीं। श्यामा के लिए आज मैं सांता बन गई हूँ।
शाम
मेरे फ्लैट से लगा हुआ एक सर्वेट क्वाटर है। बड़ी दिनों से खाली पड़ा हुआ था। देखभाल कर आदमी रखना भी एक झंझट है। ढंग की हो, छोटा परिवार हो, मेरी भी शर्त्तें कम नहीं थी। मुझे अपनी समझदारी का भ्रम नहीं था, लेकिन अब शोर शराबा अच्छा नहीं लगता। पिछले वर्ष क्रिसमस के ठीक पहले एक महिला अपने बारह साल के बेटे के साथ आई | बातचीत से समझदार ही लगी। ठीक से देखा, पोलियो ग्रसित थी। बेटा भी उमर से छोटा लग रहा था। जाड़े की ठंड में बर्तन धोते -धोते परेशान हो चुकी थी। आने को बोल दिया। अपने छोटे कमरे को काफी करीने से सजा लिया था उसने। पुरानी मेमसाहब ने दिया है, उसके बोलने पर सामान पर खुद की घूरती नजरों पर शर्म आई। फिर एक बड़ा तारा टैंगा दिखा। और नकली फूल – दरवाजे पर लताओं की तरह टँगे थे। पिछले साल का है, सँम्हाल कर रखा था। जब हम छोटे थे तो क्रिसमस की खूब धूम घर पर होती थी। क्रिसमस ट्री, प्लम केक, सांताक्लाज की लाल टोपी। फिर धीरे — धीरे घर खाली हो गया। तो धूम भी खत्म हो गया। हाँ, क्रिसमस ट्री लाना और उसे सजाना मैं नहीं भूलती। दिसम्बर आते ही जैसे क्रिसमस दिल में आ बैठता है। अपने तिलकधारी मामाजी से अक्सर बहस हो जाती है। दिसम्बर महीने में और भी त्याग और बलिदान हुए हैं, उसे कोई याद नहीं करता है। आर्मी डे ही ढंग से मना लो। उनकी बातों का बुरा नहीं माना कभी। अच्छा खाना और गाना किसे अच्छा नहीं लगता? उनकी खीझ और उनके तर्कों पर पूरा परिवार हँस पड़ता है। क्रिसमस की छुट्टियाँ अब कम हो गई हैं। यह पाश्चात्य देशों की नकल है, कहकर कई लोग अब क्रिसमस से किनारा कर लेते हैं। क्रिसमस एक खुशनुमा त्यौहार है, एक उम्मीद का त्यौहार है। संताक्लाज तो जैसे प्यार बाँटते चलो का संदेश लाते हैं। चमचमाता क्रिसमस ट्री तो लुभावना है ही। सोनू का बेटा सकुचाया हुआ बाहर खड़ा है अंदर आने के लिए। उसे क्रिसमस ट्री सजाने के लिए बोला है। कितना अच्छा हो ना कि चमकते तारे ही तरह हम सभी एक दूसरे को रास्ता दिखाते रहें। यह उम्मीद कि हमारी सारी आशाएँ पूरी होंगी — इस संदेश के सहारे हम अगले वर्ष का इंतजार करते हैं। मेरे लिए सोनू का बेटा आज सांताक्लाज बनकर आया है। मेरे अकेलेपन को जो बाँट लिया उसने।
(यह मेरे और मेरे दोस्तों के निजी अनुभवों पर आधारित है ।)
-डॉ. अमिता प्रसाद