काश यूँ भी कभी

काश….. यूँ भी कभी

सोचती हूँ काश मैं भी सांता बन पाती ।
हर जीवन में प्रेम अमृत की गंगा मैं बहाती ।

रोतें बच्चों के आँखों से सारे आसूँ छीन लाती
उनके कोमल अधरों पर गीत बन गुनगुनाती।।

जीनव धूप में थके किसान पिता की चिंता मैं मिटाती
धरती माँ की आँखों से दर्द को पोंछ पाती ।

सुनी कोख में किलकारियों के बीज मैं सजाती
देश में बेरोजगारी को समूल मैं मिटाती ।।

झोपड़ियों में समृद्धि के दीप जलाती
रक्तबीज से वायरस को खत्म मैं कर पाती ।।

सोचती हूँ काश मैं भी सांता बन पाती …….

सत्या शर्मा ‘ कीर्ति ‘
साहित्यकार
रांची , झारखण्ड

0
0 0 votes
Article Rating
621 Comments
Inline Feedbacks
View all comments