छठ महापर्व: बिहार में क्यों?
वैदिककालीन मध्य भारतवर्ष के कीकट प्रदेश में गयासुर नामक एक दानव रहता था| वह भगवान विष्णु का उपासक था| गयासुर की काया भीमकाय थी| कहते हैं कि, जब गयासुर पृथ्वी पर लेटता था, उसका सर उत्तरी भारत में होता तथा उसके पैर आंध्र क्षेत्र में होते थे| सबसे महत्वपूर्ण यह कि, उसका हृदयस्थल गया में होता था|
देवता गयासुर से बहुत भयभीत रहते क्योंकि वह उनको अकारण परेशान किया करता था| देवता उससे मुक्ति चाहते थे और इस प्रयोजन के लिए उन्होने भगवान ब्रह्मा से विनती की| परंतु ब्रह्मा ने कुछ भी करने से मना कर दिया| उनका कहना था कि गयासुर भगवान विष्णु का परम भक्त है और बिना विष्णु की सहमति के उसका कुछ भी नहीं हो सकता|
तत्पश्चात देवगण भगवान विष्णु की शरण में गये परंतु उन्होने अपने प्रिय उपासक का अंत करने में कोई रूचि नहीं दिखाई| तब देवों ने विष्णु से अनुरोध किया कि वह कम से कम अपने नाम से गयासुर के हृदयस्थल पर, जो गया में होता था, एक यज्ञ करने की अनुमति दे दें|
भगवान विष्णु ने भारी मन से गयासुर से यह बात कही| गयासुर को यह आभास था कि उसके हृदयस्थल पर इस यज्ञ के उपरांत उसका अंत हो जाएगा, परंतु उसने भगवान विष्णु की बात मान ली क्योंकि वह उनका परम उपासक था|
इसके बदले में भगवान विष्णु ने गयासुर को यह वरदान दिया कि उसका नाम सदा के लिए अजर-अमर हो जाएगा| भगवान ने कहा कि इस महाबलिदान के पश्चात गयासुर की हृदयस्थली गया में ही प्रत्येक हिंदू को सदैव अपने पितरों का पिन्डदान करना होगा| यह परंपरा गया में आज भी कायम है|
अब देवगण इस महायज्ञ के लिए उचित पुरोहितों की खोज में लग गये परंतु उनको निराशा हाथ लगी| सब देवता नारदमुनि के पास गये, जिन्होने बताया कि ऐसे पुरोहित केवल शाक्य द्वीप (प्राचीन ईरान) से ही लाए जा सकते हैं|
शाक्य द्वीप के ये पुरोहित परम सूर्य उपासक होते थे| वे ‘मग ब्राह्मण’ के नाम से भी जाने जाते थे (सन्दर्भ, ‘विष्णुपुराण’ 2, 4, 6, 69, 71)| प्राचीन इरना भाषा मे ‘मग’ का अर्थ अग्नि पिंड, अर्थात सूर्य, होता है| सूर्यदेव को भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना गया है| (‘मगध’ शब्द भी मग से ही उद्धरित है|)
इसके उपरांत, सात सूर्य उपासक पुरोहित शाक्य द्वीप से गया क्षेत्र में लाए गये और उन्होने गयासुर के हृदयस्थल पर यज्ञ करके देवताओं को उससे मुक्ति दिलाई| इन पुरोहितों को ‘शाक्दीपी ब्राह्मण’ के नाम से जाना जाता है (सन्दर्भ, ‘महाभारत’, ‘भीष्मपर्व’, 12,33/ ‘भविष्य पुराण’, ‘ब्रह्मपर्व’ 139, 142)| इनके वंशज आज भी मगध क्षेत्र में निवास करते हैं|
यह सात ब्राह्मण गया और आसपास के क्षेत्रों में बस गये| 1937-38 में गया जिले के गोविंदपुर में पाए गये आदेशपत्र में भी इनका वर्णन है|मग ब्राह्मणों का अनुसरण करते हुए, मगध क्षेत्र के निवासियों ने भी कालांतर में सूर्यदेव की औपचारिक उपासना करनी शुरू कर दी|
सूर्य ‘प्रत्यक्ष देव’ हैं और ‘सूर्य षष्ठी’ का वैज्ञानिक महत्व है| समय के साथ इस उपासना को ही ‘छठ महापर्व’ के रूप में मनाया जाने लगा|इस उपासना की पद्धति सरल थी तथा हिंदू जनमानस इसको कर पाने में सक्षम था| हालाँकि इस व्रत के साथ अत्यंत कठोर नियम संलग्न थे, परंतु इसको करने में पुरोहित की मध्यस्थता आवश्यक नहीं थी| कालांतर में सूर्य उपासना का महत्व बढ़ता गया और छठ महापर्व अत्यंत लोकप्रिय होता गया| इसका प्रमुख कारण यह था कि इस व्रत के करने से उपासक और उनके परिवारजनों को लाभ प्राप्त होता था|
तथापि, छठ महापर्व का उद्भव मगध (मगह) क्षेत्र में ही हुआ और कालांतर में यह पर्व बाकी स्थानों में भी मनाया जाने लगा| शाक्दीपी ब्राह्मणों ने मगध क्षेत्र के सात स्थानों पर सूर्य मंदिरों की स्थापना की, जैसे कि देव, उलार, ओंगारी, गया और पंडारक| देव का छठ सबसे पवित्र माना गया है| गया धाम – जो हिंदुओं का एकमात्र पित्रतीर्थ है – के पंडे भी अपने आपको अग्निहोत्री ब्राह्मण कहते हैं| अग्निहोत्री का सीधा सन्दर्भ सूर्य से ही है|
छठ महापर्व में सूर्यदेव के साथ-साथ, ‘उषा’ और ‘प्रत्युषा’ की भी उपासना की जाती है| उषा का अर्थ होता है प्रातःकाल, और प्रत्युषा का अर्थ सांध्यकाल| उषा तथा प्रत्युषा – जो छठी मैया के नाम से लोकप्रिय हैं – सुर्यदेव की संगिनी मानी जाती हैं| यही कारण है कि छठ महापर्व के दौरान, उपासक अस्तगामी और उगते सूर्य की भी आराधना करते हैं|
ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण के पुत्र संब और राजा प्रियव्रत ने भी मगध क्षेत्र में छठ व्रत किया और लाभ पाया|
ॐ सूर्य देवं नमस्ते स्तु गृहाणं करूणाकरं |
अर्घ्यं च फ़लं संयुक्त गन्ध माल्याक्षतैयुतम् ||
परमपिता श्री सूर्यदेव और परममाता श्री प्रत्यूषा एवं श्री ऊषा आपकी सभी मनोकामनायें पूरी करें! लोक आस्था के महापर्व छठ व्रत की मंगलकामनाये
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