सिद्धार्थ यशोधरा और बुद्ध
जाना तय था मेरा …
पर जब उसे देखता तो ,
मन ठहर जाता था।।
किस अवलम्बन पर छोड़कर जाता उसे,
वो जो मुझ में अपना सारा संसार देखती थी,
फिर उसका सहारा आ गया ..उसका
‘पुत्र’
जानता था अब उस में व्यस्त हो जाएगी,
जीवित रह पाएगी मेरे बिना भी ..
अपने पुत्र के लिए ।।
मैंने नहीं देखा अपने बेटे को
शायद मन में डर था, कहीं मोह ना हो जाए
रात के अंधेरे में चुपचाप निकल गया था………
बहुत भटकने पर मिल गया वो जिसकी खोज थी ….
वापस लौटा महल में तो
उसको ढूंढती रहीं मेरी आंखें …
सब आए मिलने बस वही ना आई
‘मानिनी’ का मान भंग हुआ था ना,
मैं स्वयं गया उसके महल में …
जो देखा उसके लिए
खुद को तैयार नहीं पाया था ।।
साफ पर बहुत पुराने ,
सादे वस्त्र में …
क्या वह मेरी ही यशोधरा थी !!
“आएं सिद्धार्थ” पहली बार उसकेे मुंह से अपना नाम सुनकर चौंका था ..
“सिद्धि प्राप्त की है तो आप सिद्धार्थ ही हैं ”
।
।
।
“इस संसार में जिसे अपना कह सकती हूं
तो बस यह है मेरे पास”….
कहते हुए अपने 6 वर्षीय पुत्र को
मेरे कदमों में डाल दिया :
“यही आपको अर्पण कर सकती हूँ”
निशब्द रह गया था मैं !!
सिर्फ उस बालक के सर पर
हाथ रख पाया था बस
बस…
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
अब यशोधरा …
सोलह बरस की थी
जब ब्याही गई थी उनसे
फिर तेरह बरस साथ बिताए उनके ।।
पुत्र प्राप्त हुआ और
वे
राहुल को बिना मिले …
बिना कुछ कहे, चुपचाप
रात के अंधेरे में निकल गए
मेरे कमरे से, राजमहल से
और
मेरी जिंदगी से ।।
तब जाना अपने पति को
राजकुमार सिद्धार्थ को
जिन्हें तेरह बरस
साथ रहकर ना जान सकी।।
तब जाना वह सत्य की तलाश में थे
बचपन से ही ;
पर मेरे अस्तित्व का क्या- – – –
क्या मैं सत्य नहीं थी उनके लिए ?
क्या मैं कोई छलावा थी ?
उनके मार्ग की बाधा थी ??
नहीं बनना चाहती थी
कभी उनके मार्ग में रूकावट
बस मुझसे बात करके जाते
मुझे विश्वास में लेकर
मुझसे छिपकर नहीं ।।
छह बरस बाद लौटे थे
सुना सिद्धि प्राप्त कर ली थी
जिसकी तलाश में गए थे
वह तो मिल गया था उन्हें
पर जो इन वर्षों में खोया
उसका क्या …
(दोस्तो, आज दोनों के पक्ष एक साथ रखने की कोशिश की मैंने,गौतम बुद्ध का और उनकी पत्नी यशोधरा का भी )
पुष्पिंद्र चगती भंडारी
दिल्ली