मैं बुद्ध नहीं होना चाहती
बुद्ध हो सकती थी मैं—-
पर मैंने पति को भगवान मान लिया
उसकी चाह, उसकी ख़ुशी को अपना सम्मान मान लिया
छोड़ दूँ नवजात को ,रात सुनसान , है अंधेरा
तू माँ कहलाने लायक़ नहीं , हृदय पाषाण है तेरा
बूढ़े सास ससुर , जिनकी सेवा का मिला था उपदेश
मेरे मात -पिता ने घर को मंदिर बनाने का दिया आदेश
सब रिश्तों को ठुकरा कर ,ज़िन्दगी में रहकर मौन
सब अपनी -अपनी राह चलेगें, फिर साथ निभाएगा कौन
सत्य की खोज में निकलना चाहती हूँ ,करके पलायन
शब्द बाणों से डरती हूँ —ये कैसे है सम्भव???
मैं स्त्री हूँ , पूरे समाज के धुरी हूँ
ये सत्य मैं जानती हूँ
तुम भी जानते हो
पर मानते नहीं ।।
तुम मुझ बिन ,मैं तुम बिन ,अधूरी हूँ
मैं घर, पति ,नवजात ,रिश्ते नहीं छोड़ सकती
मैं बुद्ध नहीं हो सकती
क्योंकि ये आसान है
मैं बुद्ध नहीं होना चाहती
क्योंकि बुद्ध होना आसान है
स्त्री होना ही मेरा अभिमान है ।
स्त्री होना ही मेरा अभिमान है।।
मोनिका कटारिया ‘मीनू’
पंचकुला ,हरियाणा