पद्मश्री तुलसी गौड़ा
“मुझे खुशी है कि मैंने यह पुरस्कार जीता। मैंने कई अन्य पुरस्कार भी जीते हैं।इन सभी पुरस्कारों के बावजूद, पौधे मुझे सबसे ज्यादा खुशी देते हैं।”
-यह भावाभिव्यक्ति जीवन के 77 वें वसंत में प्रवेश कर चुकीं कर्नाटक की आदिवासी महिला तुलसी गौड़ा की है, जिनका नाम अब दुनिया आदर से ले रही है। नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में एक समारोह के दौरान नंगे पांव और पारंपरिक पोशाक पहने, गौड़ा को वर्ष 2020 के लिए भारत का चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ” पद्मश्री पुरस्कार” से सम्मानित किया गया । उनकी उपरोक्त अभिव्यक्ति वृक्षों से उनके असीम लगाव की उद्घोषणा करती है ।
प्रत्येक वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर पद्म पुरस्कारों के माध्यम से सरकार कला, साहित्य और शिक्षा, खेल, चिकित्सा, सामाजिक कार्य, विज्ञान और इंजीनियरिंग, जनसेवा, लोक सेवा, व्यापार और उद्योग जैसे विभिन्न क्षेत्रों में ‘विशिष्ट कार्य’ को मान्यता देती है। नरेंद्र मोदी सरकार सन् 2014 से पद्म पुरस्कारों से कई गुमनाम नायकों को सम्मानित कर रही है, जो विभिन्न तरीकों से समाज में योगदान दे रहे हैं । आदरणीय तुलसी गौड़ाजी को सामाजिक कार्यों और पयार्वरण की सुरक्षा में उनके योगदान के लिए सरकार द्वारा यह गौरव प्रदान किया गया।
तुलसी गौड़ा कर्नाटक राज्य के अंकोला तालुक की एक भारतीय पर्यावरणविद् हैं,जो कर्नाटक में हलक्की स्वदेशी जनजाति से ताल्लुक रखती हैं। । तुलसी गौड़ा का जन्म 1944 ईस्वी में होन्नल्ली गाँव में हुआ था, जो भारतीय राज्य कर्नाटक में उत्तर कन्नड़ जिले के भीतर ग्रामीण और शहरी के बीच संक्रमण वाली एक बस्ती है। कर्नाटक दक्षिण भारत का एक राज्य है जो अपने लोकप्रिय ईको-पर्यटन स्थानों के लिए जाना जाता है क्योंकि इसमें पच्चीस से अधिक वन्यजीव अभ्यारण्य और पांच राष्ट्रीय उद्यान हैं।
तुलसीजी एक गरीब और वंचित परिवार में पली-बढ़ी और औपचारिक शिक्षा से रहित रहीं।जब वह 2 साल की थीं, तब उनके पिता की मृत्यु हो गई, जिससे उन्हें अपनी मां के साथ स्थानीय नर्सरी में एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करना शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा। छोटी उम्र में ही उनकी शादी गोविंदे गौड़ा नाम के एक बड़े उम्र के व्यक्ति से कर दी गई थी। कोई नहीं जानता, स्वयं तुलसी भी कि उसकी सही उम्र शादी के समय क्या थी । अनुमानों के अनुसार ,उस समय उनकी उम्र लगभग 10 से 12 साल थी और अल्पकाल में ही उनके पति की भी मृत्यु हो गई। तुलसी गौड़ा ने अपना सारा स्पंदन,संपूर्ण नेह, हृदय का सारा अमृत पौधों पर ही उड़ेल दिया और स्वयं के जीवन को एक नये अर्थ में गढ़ दिया। मानो दुनिया को संदेश दे रही हो कि सब कुछ खो कर भी आप निराश न हों,जीवन एक नया मार्ग आपके लिए खोल रहा होता है,आवश्यकता होती है इस सत्य को पहचानने की।
औपचारिक शिक्षा न होने के बावजूद, उन्होंने पर्यावरण के संरक्षण की दिशा में बहुत बड़ा योगदान दिया है।तुलसी बताती हैं कि उन्होंने 12 साल की उम्र में ही पेड़-पौधों को अपनी ज़िंदगी में शामिल कर लिया था। अब तक उन्होंने हजारों पेड़ लगाए और उनका ख्याल रखते हुए उन्हें बड़ा किया। तुलसी गौड़ा नंगे पांव चलते हुए, नवोदित पौधों की स्थिति को केवल उन्हें हल्के से छूकर समझ सकती हैं। वह कभी स्कूल नहीं गई, लेकिन इमली, यूकेलिप्टस और दर्जनों अन्य पौधों की व्याख्या करना बखूबी जानती है और उनका ज्ञान किसी पर्यावरण वैज्ञानिक से कम नहीं है ।
परंपरागत शिक्षा और उसकी डिग्रियां जीवन के लिए एक उपयोगी संसाधन तो हो सकते हैं,परंतु अनिवार्य नहीं। आपकी देखने- परखने की क्षमता और आपका अनुभव और उस अनुभव को किसी विशिष्ट ज्ञान के क्षेत्र में इस्तेमाल करना मानव मस्तिष्क की सर्वोत्तम खोज है और तुलसी गौड़ा इसकी जीती- जागती प्रतिमूर्ति हैं।
तुलसी गौड़ा को हर तरह के पौधों के बारे में जानकारी है । जैसे – किस पौधे के लिए कैसी मिट्टी अनुकूल है, किस पौधे को कितना पानी देना है आदि।अब सेवानिवृत्त गौड़ा ने उन सैकड़ों- हजारों पौधों की गिनती खो दी है, जिन्हें उन्होंने देशी प्रजातियों की रक्षा और पुनर्जीवित करके दक्षिणी भारत के कर्नाटक वन में लौटाया।उन्होंने बहुत कम उम्र में कर्नाटक वानिकी विभाग के लिए एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करना शुरू कर दिया था ,जहाँ उन्हें प्रकृति संरक्षण के प्रति समर्पण के लिए जाना जाने लगा । तुलसी का जीवन इस मनोवैज्ञानिक तथ्य की पूर्णरूपेण पुष्टि करता है कि बाल्यकाल एवं किशोरावस्था जीवन की वह उर्वर भूमि है जिसमें उपयुक्त समय पर जिन संस्कारों का बीजारोपण होता है,वही अग्रिम भविष्य के विशाल वृक्ष के स्वरूप का निर्धारण करते हैं, संपूर्ण जीवन की दिशा प्रायः उसी समय तय हो जाती है ।
नर्सरी में गौड़ा उन बीजों की देखभाल करने के लिए जिम्मेदार थीं जिन्हें कर्नाटक वानिकी विभाग में उगाया जाना था और उनका मुख्य कर्तव्य अगासुर सीड बेड में बीजों की देखभाल करना था । गौड़ा ने 35 वर्षों तक अपनी माँ के साथ दिहाड़ी मजदूर के रूप में नर्सरी में काम करना जारी रखा, जब तक कि उन्हें संरक्षण और वनस्पति विज्ञान के व्यापक ज्ञान के लिए उनके काम की मान्यता में एक स्थायी पद की पेशकश नहीं की गई। साल 2006 में तुलसी को वन विभाग में वृक्षारोपक की नौकरी मिल गई और इसके बाद उन्होंने नर्सरी में अपनी स्थायी स्थिति में 14 और वर्षों तक काम किया, इससे पहले कि उन्होंने अंततः 70 साल की उम्र में सेवानिवृत्त होने का फैसला किया। नर्सरी में पेड़-पौधों के बीच उन्हें प्रकृति को समझने का काफी अहम मौका मिला।
तुलसी गौड़ा ने दिहाड़ी मजदूर और कर्नाटक वन विभाग में स्थायी कर्मचारी दोनों के रूप में 60 साल से अधिक समय बिताया। इस दौरान उन्होंने अनगिनत पेड़ लगाए हैं और जैविक विविधता संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस नर्सरी में इन्होंने अपना पूरा योगदान दिया और वनीकरण में सहायता के लिए सीधे काम किया। नौकरी केअपने संपूर्ण वर्षों में, गौड़ा ने अपनी गहरी जड़ें जमाने वाली सांस्कृतिक विरासत की बदौलत असाधारण परिणाम हासिल किए क्योंकि उनकी मातृसत्तात्मक जनजाति में महिलाएं सैकड़ों वर्षों से भूमि की रक्षा, देखभाल और खेती की प्रभारी रही हैं।
कर्नाटक वन विभाग एक सामुदायिक रिजर्व, पांच टाइगर रिजर्व, 15 संरक्षण रिजर्व और 30 वन्यजीव अभयारण्यों से बना है और वे समुदायों और गांवों को प्रकृति के साथ फिर से जोड़ने के रूप में अपने मुख्य लक्ष्य का वर्णन करते हैं। विभाग एक ऐसे भविष्य की कल्पना करता है जहां राज्य के एक तिहाई क्षेत्र में जंगल या वृक्षों का आवरण हो। तुलसी ने भूमि के अपने पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करके वन विभाग के प्रयासों को पहले अनुभव के माध्यम से प्राप्त किया। उन्होंने न केवल ऐसे पौधे लगाए हैं जो बड़े होकर पेड़ बनेंगे, जो दुनिया को बड़े पैमाने पर मदद करेंगे बल्कि उन्होंने शिकारियों और कई बार जंगल की आग को वन्यजीवों को नष्ट करने से रोकने के लिए भी काम किया है।इसके अलावा उन्होंने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली सरकारी गतिविधियों का विरोध भी किया।
आंध्र-प्रदेश के भाजपा प्रमुख विष्णुवर्धन रेड्डी ने कहा -” आज, 72 साल की उम्र में भी, तुलसी गौड़ा पर्यावरण संरक्षण के महत्व को बढ़ावा देने के लिए पौधों का पोषण करना और युवा पीढ़ी के साथ अपने विशाल ज्ञान को साझा करना जारी रखे हुए हैं। तुलसी गौड़ा एक गरीब और सुविधाओं से वंचित परिवार में पली-बढ़ीं। बावजूद इसके उन्होंने हमारे जंगल का पालन-पोषण किया है।” विष्णुवर्धन रेड्डी ने ट्वीट कर कहा कि वह एक आदिवासी-पर्यावरणविद् हैं, जिन्होंने 30,000 से अधिक पौधे लगाए हैं और पिछले छह दशकों से पर्यावरण संरक्षण गतिविधियों में शामिल हैं।
पर्यावरणविद् और शोधकर्ता येलप्पा रेड्डी गौड़ा के असाधारण कौशल को पहचानते हैं, विशेष रूप से देशी पौधों के पुनर्जनन से संबंधित। वर्षों के अध्ययन के बाद वे बताते हैं – “यह सामने आया कि 90 प्रतिशत स्वदेशी पेड़ इस क्षेत्र में व्यापक शोध के बावजूद भारत में पुन: उत्पन्न होने के लिए संघर्ष करते हैं। गौड़ा जंगल के भीतर किसी भी स्थान पर प्रत्येक प्रजाति के मातृ वृक्ष की पहचान करने में सक्षम हैं। जब मदर ट्री से बीज आते हैं तो पौधे का पुनर्जनन अधिक सफल होता है। गौड़ा जानती हैं कि ये पेड़ कब खिलते और अंकुरित होते हैं और वह बीज इकट्ठा करने के लिए सबसे अच्छा समय चुनने में सक्षम हैं। वह यह नहीं बता सकती कि कैसे, लेकिन वह यह जानती हैं क्योंकि वह जंगल की भाषा बोलती हैं। उनके काम को देखना एक अविश्वसनीय अनुभव है।”
कर्नाटक वानिकी विभाग में अपने व्यापक कार्यकाल के अलावा, गौड़ा को बीज विकास और संरक्षण में उनके काम के लिए कई पुरस्कार और मान्यता मिली है। सन्1986 में उन्हें ” इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र पुरस्कार” मिला , जिसे IPVM पुरस्कार के रूप में भी जाना जाता है।आईपीवीएम पुरस्कार वनीकरण और बंजर भूमि विकास के क्षेत्र में व्यक्तियों या संस्थानों द्वारा किए गए अग्रणी और अभिनव योगदान को मान्यता देता है।
1999 ईस्वी में गौड़ा को कर्नाटक राज्योत्सव पुरस्कार मिला , जिसे कन्नड़ रायजोत्सव पुरस्कार के रूप में भी जाना जाता है और यह भारत के कर्नाटक राज्य का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। कर्नाटक राज्योत्सव पुरस्कार कर्नाटक राज्य के 60 वर्ष से अधिक आयु के नागरिकों को दिया जाता है जो अपने-अपने क्षेत्रों में प्रतिष्ठित होते हैं।1999 ईस्वी में गौड़ा इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले 68 लोगों में से एक थीं और वह पर्यावरण में योगदान के लिए इसे प्राप्त करने वाले दो लोगों में से एक थीं।
इसके अलावा ये इंदवालु एच. होनाय्या समाज सेवा पुरस्कार (Indavaalu H. Honnayya Samaj Seva Award) और श्रीमती कविता स्मारक पुरस्कार (Shrimathi Kavita Smarak Award) इत्यादि से भी सम्मानित हैं।
तुलसी गौड़ा को पर्यावरणविदों द्वारा “वन के विश्वकोश” के रूप में जाना जाता है और उनके जनजाति द्वारा “पेड़ देवी” के रूप में जाना जाता है क्योंकि जंगल और उसके भीतर उगने वाले सभी पौधों का व्यापक ज्ञान लोगों को आश्चर्य में डाल देता है। वह जंगल में पेड़ की हर प्रजाति के मातृ वृक्ष की पहचान करने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध है, चाहे उसका स्थान कोई भी हो। मदर ट्री अपनी उम्र और आकार के कारण महत्वपूर्ण हैं जो उन्हें जंगल में सबसे अधिक जुड़े हुए नोड बनाते हैं। इन भूमिगत नोड्स का उपयोग मदर ट्री को और पौधों से जोड़ने के लिए किया जाता है क्योंकि मदर ट्री नाइट्रोजन और पोषक तत्वों का आदान-प्रदान करता है। गौड़ा बीज संग्रह करने में भी माहिर हैं। बीज संग्रह पूरे पौधों की प्रजातियों को पुन: उत्पन्न करने के लिए मातृ वृक्षों से बीजों का निष्कर्षण है। यह एक बहुत ही कठिन प्रक्रिया है क्योंकि अंकुरों के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए मदर ट्री से बीजों को अंकुरण के चरम पर एकत्र किया जाना चाहिए और गौड़ा इस सटीक समय को समझने में सक्षम हैं।
माना जाता है कि गौड़ा ने कर्नाटक में अपने दम पर एक लाख पेड़ लगाए हैं। इन योगदानों ने उनके समुदाय के सदस्यों पर भी स्थायी प्रभाव डाला है। उत्तर कन्नड़ जिले के नागराज गौड़ा, जो हलक्की जनजाति के कल्याण के लिए काम करते हैं, कहते हैं – “तुलसी उनके समुदाय का गौरव है, उन्हें जंगल और औषधीय पौधों का अमूल्य ज्ञान है। किसी ने भी इसका दस्तावेजीकरण नहीं किया है और वह एक अच्छी संचारक नहीं हैं, इसलिए उनके योगदान को समझना मुश्किल है जब तक कि आपने उनका काम नहीं देखा है।” वास्तव में इस दौरान तुलसी ने अनगिनत पेड़ लगाए हैं और जैविक विविधता संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
एक सेवानिवृत्त अधिकारी येलप्पा रेड्डी ने भी अपने समुदाय के लिए गौड़ा की स्थायी प्रतिबद्धता की सराहना की, इस तथ्य का हवाला देते हुए कि गौड़ा ने 300 से अधिक औषधीय पौधे लगाए और उनकी पहचान की, जिनका उपयोग उनके गांव में बीमारियों के इलाज के लिए किया गया है।
हालाँकि गौड़ा कर्नाटक वानिकी विभाग से सेवानिवृत्त हो चुकी हैं, उन्होंने अपना शेष जीवन अपने गाँव के बच्चों को जंगल के महत्व के साथ-साथ बीजों को खोजने और उनकी देखभाल करने के तरीके के बारे में सिखाने के लिए समर्पित कर दिया है। इस मजबूत हलक्की महिला ने पौधों, फूलों और जड़ी-बूटियों की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में जागरूकता बढ़ाना बंद नहीं किया है। “मैं हमेशा बच्चों को समझाती हूं कि जंगल को संरक्षित और पोषित किया जाना चाहिए,” वह कहती हैं। “हम सभी को अंदर आना होगा। बच्चों को बीज बोने दें और पौधों की देखभाल करें जैसे वे बड़े होते हैं”।आज भी वो कई पौधों के बीज जमा करने के लिए खुद वन विभाग की नर्सरी तक जाती हैं और अगली पीढ़ी को भी यही संस्कार देना चाहती हैं। तुलसी गौड़ा ने बताया, ” हम कई पौधों के बीज को इकट्ठा करते हैं।गर्मियों के मौसम तक उनका रखरखाव करते हैं और फिर जंगल में उस बीज को बो आते हैं। वास्तव में,इनके जीवन का अनुभव इनकी सर्वोच्च पूँजी है। इनका ज्ञान किसी वनस्पति शास्त्री से कम नहीं।
तुलसी गौड़ा का कहना है कि, ‘अगर जंगल बचेंगे, तो यह देश बचेगा।हमें और जंगल बनाने की आवश्यकता है।’ तुलसी गौड़ा अब अपना समय और भी पेड़ लगाने में बिताती हैं, साथ ही बच्चों को भी ऐसा करने का महत्व और कला सिखाती हैं।तुलसी गौड़ा के अनुसार “हमें जंगलों की जरूरत है।जंगलों के बिना सूखा होगा, फसल नहीं होगी, सूरज असहनीय रूप से गर्म हो जाएगा। जंगल बढ़ेगा तो देश भी बढ़ेगा। हमें और जंगल बनाने की जरूरत है।”
पद्मश्री तुलसी गौड़ा की सादगी भरी तस्वीर जब सोशल मीडिया पर सामने आई तो लोग मंत्र मुग्ध हो गए। उनकी मेहनत और समर्पण की चर्चाएं होने लगीं।’इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फॉरेस्ट’ कही जाने वाली तुलसी को उनकी सादगी के लिए बेहद पसंद किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ उनकी तस्वीर को शेयर कर लोग उन्हें बधाई दे रहे हैं।
अजय दुबे (@AjayDindian) ने लिखा कि ऐसे किरदारों को जब पदम् पुरस्कार मिलते है तो खुद पुरस्कार का सम्मान उनकी क्रेडिबिलिटी बढ़ती है। सामान्य दृष्टि में पैर में चप्पल नहीं, तन ढकने भर कपड़े नहीं पर उपलब्धि ऐसी देश के दो सबसे ताकतवर आदमी समाने हाथ जोड़े बैठे है। पत्रकार अभिनव पांडे (@Abhinav_Pan) ने एक अन्य तस्वीर को शेयर करते हुए लिखा-” हाड़ मांस का जर्जर सा शरीर, शरीर पर पारंपरिक धोती, हाथ में पद्म श्री और चेहरे पर गजब की खुद्दारी !! कर्नाटक से 77 बरस की तुलसी गौड़ा हैं। 30 हजार से ज्यादा पेड़ लगा चुकी हैं। खेत की पगडंडी से चलकर राष्ट्रपति भवन की लाल कालीन पर इन नंगे कदमों का पहुंचना,वाकई सुखद है।”
नरेंद्र कुमार चावला (@NarenderChawla1) नाम के यूजर ने तस्वीर के साथ लिखा कि धर्म और संस्कृति का जीता जागता उदाहरण, मोदी है तो मुमकिन है । धर्म और संस्कृति से ही देश को विश्व गुरु बनाया जा सकता हैं।
भारत नाम के (@rakesh_bstpyp) यूजर लिखते हैं -“भारत की आत्मा पुरस्कार ले रही है, यह वो देश है जहां सोने की लंका वाले ब्राह्मणवंशी रावण को जलाया जाता है, और जंगली बनवासी धोती लपेटे राम को पूजा जाता है। भारत मे चित्र को नही चरित्र को पूजा जाता है, कर्नाटक की पर्यावरणविद तुलसी गौड़ा पद्म श्री से सम्मानित की गईं।”
वास्तव में तुलसी गौड़ा देश के उन लोगों में से एक है, जो गुमनामी में रहकर, चुपचाप , प्रचार के बाजारीकरण एवं झूठे चकाचौंध से दूर रहकर समाज के लिए काम करते रहते हैं। यह आज भी गुमनाम नायक ही होंती, गर भारत सरकार ने 8नवम्बर ,2021 को इन्हें पद्मश्री सम्मान के लिए न चुना होता तो उनकी कहानी दुनिया के सामने न आई होती।जैसा नाम वैसा काम, भारतीय सनातन संस्कृति में ‘तुलसी’ प्रत्येक आँगन में पूजी जाने वाली परमश्रध्दा की अधिकारिणी है और ‘विश्व पूजिता ‘ के नाम से भी जानी जाती है।वृक्षदेवी तुलसी भी परम श्रद्धा की अधिकारिणी और विश्व पूजिता हैं, जिनका जीवन अपने नाम के अनुरूप ही जनोपयोगी है। सलाम है इस अशिक्षित, सीधी -सादी, जीवन के सात दशक देख चुकीं, आदिवासी समुदाय से आने वाली बुजुर्ग नागरिक को,जो सच्चे अर्थों में अपने नागरिक धर्म का निर्वहन कर रही हैं।
बहुत-बहुत सलाम सरकार के इन प्रयासों को भी जो गुमनामी की खोह में छुपे हुए वैसे – वैसे साधकों को हमारे समक्ष लाते हैं जो अपने जीवन की पथरीली राहों से राष्ट्रपति के रेड कारपेट तक की दूरी तय कर लेते हैं और संपूर्ण देश और विश्व संतति के समक्ष एक नायक की भाति प्रशस्त चरित्र लिए खड़े हो जाते हैं। नमन इनके प्रयासों को भी ।
रीता रानी
जमशेदपुर ,झारखंड