नवजागरण के अग्रदूत- स्वामी विवेकानन्द
स्वामी विवेकानंद एक ऐसा नाम है जिसमे यदि मैं कहूं पूरा भारत समाया है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
एक ऐसे आध्यात्मिक गुरु जिनके तेज के सामने पूरा विश्व झुक गया।उनके जीवन चरित्र को कुछ शब्दों में बांध पाना बहुत मुश्किल है,फिर भी एक छोटी सी कोशिश है।
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 पश्चिम बंगाल कोलकाता के एक राजपूत परिवार में हुआ था। इनका औपचारिक नाम नरेंद्र दत्त था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था,जो कि कोलकाता हाईकोर्ट में प्रसिद्ध वकील थे।इनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था और वह एक धार्मिक विचारों की महिला थी।नरेंद्र के माता – पिता के धार्मिक,तर्कसंगत व प्रगतिशील रवैए ने इनकी सोच व व्यक्तित्व को आकार देने में सहायता की।
बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के मेघावी छात्र होने के साथ ही साथ बेहद शरारती एवम नटखट भी थे।इनकी शिक्षा 1871में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिन संस्थान से शुरू हुई।नरेंद्र एकमात्र ऐसे छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम श्रेणी के अंक प्राप्त किए।सभी विषयों को बहुत रुचि से पढ़ते थे,साथ ही वेद,उपनिषद,गीता,रामायण,पुराणों को जानने समझने में रुचि रखते थे।इन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत में भी प्रशिक्षण लिया।पढ़ाई के साथ ही नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम व खेलों में भी भाग लेते थे।नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क,दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्यन असेंबली इंस्टिट्यूट में किया।
1881 में ललित कला परीक्षा उत्तीर्ण की और 1884 में स्नातक डिग्री पूरी की।परंतु वे जैसे – जैसे बड़े होते गए सभी धर्म और दर्शनों के प्रति अविश्वास से भर गए।संदेहवादी,उलझन और प्रतिवाद के चलते किसी भी विचारधारा में विश्वास नहीं किया।
रामकृष्ण परमहंस का नरेंद्र के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। रामकृष्ण को नरेंद्र ने अपना गुरु माना। परमहंसजी की कृपा से इनको आत्म साक्षात्कार हुआ।स्वामी विवेकानन्द जब तक नरेंद्र थे बहुत ही तार्किक,नास्तिक,मूर्तिभंजक थे।रामकृष्ण परमहंस ने उनसे कहा कब तक बुद्धिमान बनकर रहोगे।इस बुद्धि को गिरा दो।समर्पण भाव में आओ तभी सत्य का साक्षात्कार हो सकेगा अन्यथा नहीं।तर्क से सत्य को नहीं जाना जा सकता।विवेक को जागृत करो।विवेकानंद को परमहंस की वो बातें जम गई और तभी से वे विवेकानंद हो गए। 25 वर्ष की आयु में इन्होंने सन्यास धारण कर लिया और विवेकानंद बन गए।
गुरू के प्रति अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्य आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके।
विवेकानंद केवल एक संत ही नहीं,एक महान देशभक्त, वक्ता,विचारक,लेखक और मानव प्रेमी भी थे। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख प्रेरणा स्त्रोत बने।महात्मा गांधी को आजादी की लड़ाई में जो जन समर्थन मिला वह विवेकानंद के आह्वान का फल था।
विवेकानंद भारतीय संस्कृति के प्रचारक और प्रसारक थे।तीस वर्ष की आयु में शिकागो ,अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदु धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई।अमेरिकी और यूरोपियन पराधीन भारतवासियों को बहुत ही हीन दृष्टि से देखते थे।वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया की स्वामीजी को बोलने का मौका ही न मिले।एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से थोड़ा समय मिला।
जैसे ही उन्होंने ओजस्वी वाणी में कहा ” मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों ” सभागार पाँच मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा। वह भाषण आज भी इतिहास के पन्नों में अमर है।
उस भाषण में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित रह गए।फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहाँ उनके भक्तों का एक बहुत बड़ा समुदाय हो गया।तीन वर्षों तक वे अमेरिका में रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्व ज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे।’ अध्यात्म विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा”।
यह स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था।अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित की। शिकागो से आने के बाद उन्हें देश में प्रमुख प्रचारक के रूप में सम्मान व प्रतिष्ठा मिली। 1899 में उन्होंने पुन: पश्चिम जगत की यात्रा की और भारतीय आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया।
विदेशों में उन्होंने अनेक स्थानों की यात्रा की और भारतीय संस्कृति का प्रचार एवम प्रसार किया।
स्वामी विवेकानंद छुआछूत, जातपात,वर्ण व्यवस्था के घोर विरोधी थे। वे मानवता की सेवा को ही सबसे बड़ी सेवा मानते थे। उनका मानना था ईश्वर द्वारा निर्मित सभी जीव समान है।
विवेकानंद पर वेदांत दर्शन, बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग और गीता के कर्मवाद का गहरा प्रभाव पड़ा। उनके दर्शन का मूल वेदांत और योग ही रहा। वे मूर्तिपूजा को नहीं मानते थे किंतु उसका विरोध भी नहीं करते थे। उनका मानना था ईश्वर निराकार है।
ईश्वर सभी तत्वों में निहित एकत्व है।
मनुष्य का चरम भाग्य “अमरता की अनुभूति है”।राजयोग ही मोक्ष का मार्ग है।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर उन्हें बहुत गर्व था ,वे कहते थे ” भारतीय संस्कृति अक्षुण्य है और भारतीयों को अपनी संस्कृति को नहीं भूलना चाहिए।”
उन्होंने सदैव युवा शक्ति को जागृत करने की चेष्टा की उनका मानना था देश और समाज में परिवर्तन युवा सोच में परिवर्तन से आएगा।उनका यह भी मानना था की समाज में धीरे – धीरे परिवर्तन करके ही सुधार लाया जा सकता है। आध्यात्मिकता व धार्मिकता की भावना को ग्रहण करके जब हम क्रमश: प्रयत्न करेंगे तभी उन्नति कर पाएंगे।
स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण प्रवर्तित ज्ञानधार के प्रचार के उद्देश्य से रामकृष्ण मिशन की स्थापना की तथा सेवा साधना एवम सभी धर्मो के समन्वय केंद्र के रूप में बेल्लूर मठ की स्थापना की।
इन्होंने समाज को नई दिशा देने और अपने सिद्धांतों पर कई रचनाएं लिखीं।इनकी प्रमुख कृतियां है “राज योग ,कर्म योग,भक्ति योग,ज्ञान योग, माई मास्टर ।
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने एक बार कहा था ” यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए उनमें आपको सब कुछ सकारात्मक ही मिलेगा नकारात्मक कुछ भी नहीं”।
रोमा रोला ने कहा “उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है”।
स्वामी विवेकानन्द के ऐसे कथन जो हमेशा प्रेरणा देते हैं।
“उठो जागो तब तक नहीं रुको जब तक मंजिल प्राप्त ना हो जाए “।
“हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो ,मानसिक विकास हो ,ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बनें।
भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारतीय युवाओं में स्वाभिमान को जगाया और उम्मीद की नई किरण पैदा की। भारतीय युवा और देशवासी भारतीय नवजागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानंद के जीवन और उनके विचारों से प्रेरणा लें। 4 जुलाई 1902 को बेलूर के रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गए, वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करता रहेंगे।
भारतीय नवजागरण के अग्रदूत, भारत के युवाओं के पथ प्रदर्शक, महान दार्शनिक व चिंतक स्वामी विवेकानंदजी को शत्-शत् नमन्। जय हिन्द, जय भारत! वन्दे मातरम!!
सारिका फलोर
केन्या