स्वतंत्रता संग्राम के अविस्मरणीय योद्धा :नेताजी सुभाष चंद्र बोस
जब हम आजादी की लड़ाई के माध्यम से स्वतंत्र भारत का सपना देख रहे थे, उस समय हमारे बीच एक ऐसा शख्स था , जो स्वयं में पूर्णतः आश्वस्त था कि आजादी तो हमें मिलेगी। उसके लिए हर्जाना भी भुगतना पड़ेगा । लेकिन आजादी को मिलने के बाद उसके खोने का भय भी कहीं न कहीं उनके मन में सता रहा था। ये थी एक क्रांतिवीर नेता की दूरदर्शिता। दोस्तों, वह शख्स कोई और नहीं ,अपने नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे।
उन्होंने कहा था कि “यह हमारा कर्तव्य है कि बलिदान और परिश्रम से जो आजादी मिले , हमारे अंदर उसकी रक्षा करने की ताकत होनी चाहिए।”
साथ में यह भी कहा था कि “हमें अपनी रक्षा ऐसी अटल नींव पर बनानी होगी ताकि हम इतिहास में फिर कभी अपनी स्वतंत्रता न खोयें।”
एक झलक नेताजी के व्यक्तिगत जीवन की:
आइए, अब उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ बातें साझा करते हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, सन् 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री जानकीनाथ बोस था, जो कटक के एक मशहूर वकील थे। उन्होंने शुरुआत में सरकारी वकील के रूप में कार्य किया और तत्पश्चात अपनी निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें राय बहादुर के खिताब से नवाजा था। उनकी मां का नाम प्रभावती तथा उनके नाना का नाम श्री गंगा नारायण दत्त था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस 14 भाई बहनों में नौवें नंबर पर थें।
सुभाष चंद्र बोस ऑस्ट्रेलिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे थे। उसी दौरान उनकी मुलाकात एक ऑस्ट्रेलियाई महिला एमिली शेंकल से हुआ और दोनों एक दूसरे के तरफ आकर्षित हुए। 1942 में बाड गास्टिन में हिंदू रीति-रिवाजों से दोनों ने विवाह रचाया।एमिली शेंकल और सुभाष चंद्र बोस जी की एक संतान है जिसका नाम अनिता बोस है।
शिक्षा:
सुभाष चंद्र बोस जी की प्राइमरी शिक्षा कटक के प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल में हुई और 1909 ईस्वी में उन्होंने रावेंशा कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला लिया। बीमार होने के बावजूद भी सन् 1915 में उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा दूसरी श्रेणी में उत्तीर्ण की। वर्ष1916 में बीए ऑनर्स के छात्र के रूप में दाखिला लिया और वर्ष 1919 में प्रथम श्रेणी में परीक्षा पास की। कोलकाता विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था। उनके पिता जी की इच्छा थी कि सुभाष आई सी एस बने, पर उम्र के मुताबिक इस परीक्षा को पास करने के लिए उनके पास एक वर्ष ही बचते थे। पिता के भावनाओं का आदर करते हुए सुभाष चन्द्र जी ने आई सी एस की परीक्षा में शामिल होने का फैसला लिया और वर्ष 1920 में आई सी एस की परीक्षा पास की और वरीयता सूची में चौथे स्थान पर रहे।
इससे पहले कि सुभाष चंद्र बोस आई सी एस की परीक्षा पास करते, उनके दिलो-दिमाग पर स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद घोष के आदर्शों का इतना गहरा प्रभाव पड़ चुका था कि उस प्रभाव से बाहर निकलना उनके लिए आसान नहीं था। परीक्षा पास करने के बाद उनके मन में एक अंतर्द्वंद शुरू हो गया कि वह किस ओर जाएं। अंततः उन्होंने अपने बड़े भाई श्री शरत चंद्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाहिए। उसके पश्चात उन्होंने आई सी एस से त्यागपत्र देने का फैसला किया। जब इस बात का पता उनकी मां को लगा तो उन्होंने सुभाष जी को पत्र लिख कर कहा कि उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।
सफर स्वतंत्रता संग्राम की:
नेताजी सुभाष चंद्र बोस में राष्ट्रहित की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। आई सी एस की नौकरी छोड़ने के बाद राजनीति में आने का उन्होंने फैसला लिया। कोलकाता के श्री देशबंधु चितरंजन दास जी के काम से प्रेरित होकर उन्होंने उनके साथ काम करने का मन बनाया और इंग्लैंड से ही उन्होंने दास बाबू को एक पत्र लिखा और उनके साथ काम करने की अपनी इच्छा जताई। भारत लौटने पर गुरुदेव श्री रविंद्र नाथ ठाकुर जी से मिले और उनकी सलाह पर महात्मा गांधी जी से मिलने के लिए मुंबई गये।20 जुलाई ,1921 ईस्वी को गांधी जी से उनकी पहली मुलाकात हुई। गांधी जी ने भी उन्हें कोलकाता जाकर दास बाबू के साथ काम करने की सलाह दी। कोलकाता लौट कर दास बाबू से मिले और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान करने के उद्देश्य से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए।
स्वतंत्रता संग्राम को गति देने के उद्देश्य से सुभाष चंद्र बोस जी ने अपना पहला कदम “स्वराज” नामक समाचार पत्र को शुरू करके उठाया। इसके साथ ही बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के प्रचार और प्रसार का काम भी उन्होंने बहुत ही अच्छे ढंग से निभाया। श्री चितरंजन दास जी द्वारा शुरू किया गया “फॉरवर्ड” नाम के अखबार का संपादन कार्य भी बहुत दिनों तक सुभाष चंद्र जी ने बखूबी किया।
उस समय देश में अंग्रेज सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चल रहा था और दास बाबू उस आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उस आंदोलन में सुभाष जी दास बाबू के सहभागी बन गए। 5 फरवरी, 1922 ईस्वी को चौरी – चौरा घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को बंद कर दिया। फिर देशबंधु चितरंजन दास जी ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। स्वराज पार्टी ने अंग्रेज सरकार का विरोध करने के लिए कोलकाता महापालिका का चुनाव लड़ा और जीता। दास बाबू कोलकाता के महापौर बने और उन्होंने सुभाष चंद्र जी को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बना दिया। अपने कार्यकाल के दौरान सुभाष जी ने कोलकाता महापालिका का पूरा का पूरा ढांचा और कार्य करने की शैली ही बदल डाली। उन रास्तों के नाम जो अंग्रेजों के नाम पर रखे गए थे उन्हें बदलकर भारतीय नाम दे दिए गये। उन स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के परिवारजनों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राण न्योछावर किए थे।
आजादी के लिए भारतीय संघर्ष में सुभाष जी का राष्ट्रवादी नजरिया और योगदान अंग्रेजों की आंखों में बहुत खटकता था। ऐसे ही एक कार्य के लिए वर्ष1925 में उन्हें म्यानमार के मांडले जेल भेजा गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस 1927 ईस्वी में जेल से बाहर आए और तब तक वे देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन चुके थे और जवाहरलाल नेहरू जी के साथ मिलकर सुभाष जी ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडेंस लीग शुरू की। 1927 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए, कोलकाता में सुभाष जी ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए कांग्रेस ने आठ सदस्यीय आयोग का गठन किया । इस आयोग में श्री मोतीलाल नेहरू जी अध्यक्ष थे और श्री सुभाष चंद्र बोस जी एक सदस्य।आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की। 1928 ईस्वी में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन श्री मोतीलाल नेहरू जी की अध्यक्षता में कोलकाता में हुई और इस अधिवेशन में सुभाष चंद्र जी ने खाकी कपड़े पहन कर मोतीलाल नेहरू जी को सैन्य तरीके से सलामी दी।
उस समय गांधी जी पूर्ण स्वराज्य की मांग से बिल्कुल भी सहमत नहीं थे। गांधी जी ने इस अधिवेशन में अंग्रेज सरकार से डोमिनियन स्टेट्स मांगने की सोच रखी थी। लेकिन सुभाषचन्द्र जी और जवाहरलाल नेहरू जी को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना बिल्कुल स्वीकार्य नहीं था। आखिर में यह तय किया गया कि अंग्रेज सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए एक साल का ही वक्त दिया जाए। अगर एक साल में अंग्रेज सरकार ने हमारी यह मांग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग उठाएगा। अंग्रेज सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की और1930 ईस्वी में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में श्री जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ, तब यह निश्चित किया गया कि 26 जनवरी को हम अपने स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाएंगे।
26 जनवरी ,1931 ईस्वी को कोलकाता में सुभाष चंद्र बोस जी राष्ट्रध्वज फहराने के पश्चात जब एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे , तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलाकर घायल कर दिया और उन्हें जेल भेज दिया गया। महात्मा गांधी जी ने अंग्रेज सरकार से समझौता कर सुभाष चंद्र बोस सहित सभी कैदियों को जेल से रिहा करा लिया। अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को रिहा करने से साफ तौर पर मना कर दिया। गांधी जी ने भगत सिंह की फांसी माफ कराने के लिए अंग्रेज सरकार से बात तो की परंतु नरमी के साथ, सुभाष चंद्र बोस जी चाहते थे कि इस विषय पर गंभीरता से बात की जाए और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी और उनके साथियों को छुड़ाया जा सके।अगर अंग्रेज सरकार यह नहीं मानती है तो उनके साथ किया गया समझौता हमें तोड़ देना चाहिए। लेकिन महात्मा गांधी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने पर राजी नहीं हुए और भगत सिंह तथा उनके साथियों को बचाया नहीं जा सका। गांधी जी के इस फैसले से सुभाष चंद्र बोस बहुत आहत और नाराज हुए।
सन 1932 में सुभाष जी को फिर से जेल जाना पड़ा। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबीयत फिर से खराब हो गई और चिकित्सकों की सलाह पर इलाज के लिए यूरोप जाने को राजी हो गये।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्हें 11 बार जेल जाना पड़ा। वर्ष 1933 से लेकर 1936 तक अपनी सेहत का ध्यान रखते हुए स्वतंत्रता संग्राम का अपना कार्य करते रहे। इसी दौरान उनकी मुलाकात इटली के नेता मुसोलिनी से हुई। इस इटालियन नेता ने सुभाष जी को उनके स्वतंत्रता संग्राम में मदद करने का वचन दिया। आयरलैंड के जाने-माने नेता जिनका नाम डी वालेरा था, नेताजी के अच्छे दोस्त बन गए।
बात वर्ष 1937 की है, जब जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया और सुभाष जी ने चीनी जनता की सहायता के लिए डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनीस के नेतृत्व में चिकित्सकीय दल भेजने का फैसला किया। बाद में जब सुभाष जी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जापान से सहयोग लिया तो कई लोगों ने उन्हें जापान के हाथों में खेलने वाले कठपुतली जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया और फासिस्ट भी कहा। परंतु इन दोनों घटनाओं से यह सिद्ध हुआ कि ना वे फासिस्ट थे और ना ही किसी के हाथ की कठपुतली।
1938 ईस्वी में कांग्रेस का 51 वां अधिवेशन हरिपुर में होना तय हुआ था। महात्मा गांधी जी ने अध्यक्ष पद के लिए सुभाष चंद्र जी का नाम चुना था। 51 वां अधिवेशन होने की वजह से सुभाष चंद्र बोस जी का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया। इस अवसर पर सुभाष जी द्वारा दिया गया भाषण बहुत ही प्रभावी था। सुभाष चंद्र बोस जी की अध्यक्षता वाले इस कार्यकाल में उन्होंने योजना आयोग की स्थापना की और श्री जवाहरलाल नेहरू जी इसके पहले अध्यक्ष बनाए गए। अपने इस कार्यकाल में उन्होंने बैंगलोर के मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरैया जी की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद की भी स्थापना की।
सन 1939 जब कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ तो सुभाष चंद्र जी ने गांधी जी के कैंडिडेट कहे जाने वाले श्री पट्टाभि सीतारमैया को पराजित कर अध्यक्ष पद जीता। महात्मा गांधी जी के साथ विचारों में मतभेद एवं कार्यशैली में अंतर होने के कारण 29 अप्रैल, 1939 ईस्वी को सुभाष जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
3 मई, 1939 ईस्वी को नेता जी ने कांग्रेस के अंदर ही ‘ फारवर्ड ब्लाक ‘ नाम से एक पार्टी की स्थापना की और उसके कुछ दिनों बाद ही उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया। वर्ष1939 के 3 सितंबर को जब सुभाष जी मद्रास में थे तो ब्रिटेन और जर्मनी के बीच युद्ध छिड़ने की सूचना उन्हें मिली। तब उन्होंने घोषणा की कि भारत के पास एक बहुत ही अच्छा सुअवसर है, आजादी के अपने अभियान को तेज करने का। कांग्रेस कार्य समिति की एक बैठक 8 सितंबर ,1939 ईस्वी को युद्ध के प्रति अपना रुख तय करने के लिए बुलाया गया। इस बैठक में भाग लेने के लिए सुभाष जी को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया। उनका राय था कि बिना देर किए अपने अभियान को तेज कर देना चाहिए और अगर कान्ग्रेस को इस कार्य के करने में कोई हिचकिचाहट है तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ युद्ध शुरू करने को तैयार है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का भारतीय युवाओं में अपने देश के प्रति जागरूकता फैलाने में एक अहम भूमिका थी और मेरा मानना है किसी भी युद्ध में युवाओं का समर्थन, साथ, सहयोग जरूरी होता है। नेताजी युवाओं के प्रेरणा स्रोत थें, उनकी एक आवाज पर देश के नागरिक कुछ भी करने को तैयार हो जाते थें , जिनमें युवाओं का संख्या अच्छी खासी हो ती थी। बार-बार अपनी कृतियों द्वारा अंग्रेज सरकार तक देश के उन भावनाओं को भी पहुंचा देते थे कि अहिंसा द्वारा चाहे जाने वाला स्वतंत्रता की प्रार्थना को न मानने पर हम अहिंसा के रास्ते को छोड़ भी सकते हैं ,जिसका प्रभाव भीअंग्रेजों पर देखने को मिलता था।
जुलाई ,1940 में कोलकाता स्थित हालवेट स्तंभ जिसे कि भारत के गुलामी के प्रतीक के रूप में जाना जाता था, नेताजी के यूथ ब्रिगेड के सदस्यों ने मटियामेट कर दिया। इसे एक प्रतीकात्मक आरम्भ कहा गया। इसके जरिए नेता जी ने यह संदेश देने की कोशिश की कि अगर ब्रिटिश साम्राज्य ने हमारी आजादी की मांगे न मानी तो हम किसी भी स्तर तक आंदोलन को ले जा सकते हैं। फलस्वरूप नेताजी और उनके नजदीकी कार्यकर्ताओं को निष्क्रिय करने के उद्देश्य से अंग्रेज सरकार ने कैद कर लिया। अपनी रिहाई के लिए सुभाष चंद्र जी ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया और उनकी हालत खराब होते देख सरकार ने उन्हें जेल से रिहा तो कर दिया पर घर में ही नजर बंद कर दिया। वर्ष 1941 के जनवरी महीने में पुलिस को चकमा देते हुए पठान के भेष में घर से निकले और पेशावर पहुंचे। उसके पश्चात रूस में प्रवेश पाना चाहते थे पर उन्हें सफलता नहीं मिली। जर्मनी और इटालियन दूतावास में प्रवेश करने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मनी और इटालियन दूतावास ने उनकी सहायता की। आयरलैंड मैजेंटा नामक इटालियन व्यक्ति के साथ सुभाष चंद्र जी काबुल से निकलकर रूस की राजधानी होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंचे। 29 मई, 1942 ईस्वी के दिन सुभाष चंद्र जी जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडोल्फ हिटलर से मिले लेकिन हिटलर का भारत के विषय में विशेष रूचि नहीं देखी। फिर पूर्वी एशिया पहुंचकर सुभाष जी ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रांतिकारी नेता रासबिहारी जी से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व संभाला । सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी जी ने स्वेच्छा से स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व नेता जी को सौंप दिया।
5 जुलाई, 1943 ईस्वी को सिंगापुर के टाउन हॉल के सामने सुप्रीम कमांडर के रूप में सेना को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा “दिल्ली चलो”।
“तुम हमें खून दो , मैं तुम्हें आजादी दूंगा ” का नारा नेता जी ने तब के वर्मा (म्यानमार) में दिया था।
21 अक्तूबर , 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार बनाई ;जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपाइन, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड की मान्यता प्राप्त हुई। वर्ष 1944 में आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा दिया।
द्वितीय विश्व युद्ध में जापान हार चुका था। अतः नेता जी को नया रास्ता ढूंढना जरूरी हो गया था। उन्होंने रूस से सहायता मांगने का निश्चय किया। 18 अगस्त , 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे ।इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। उस दिन के बाद वे कभी किसी को नहीं दिखे। अगस्त 23, 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार कई जापानी सैनिक भी हताहत हुए।
18 अगस्त , 1945 ईस्वी का दिन भारतीय इतिहास का अब तक का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बना हुआ है।
राजनैतिक विचार:
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भारत को आजाद कराने के लिए कितने व्यग्र थे, इसका पता उनके कार्य कलापों में स्वत: ही झलकता था। तभी तो वे कहते थें कि भारत को आजाद कराने के लिए सशस्त्र क्रांति और सशस्त्र विद्रोह का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। उनका सबसे प्रिय नारा था “तुम हमें खून दो और मैं तुम्हें आजादी दूंगा।”
राजनीति में विचारों में मतभेद होना संभव है, पर इसका अर्थ कदापि नहीं समझना चाहिए कि व्यावहारिकता और शिष्टाचार में भी मतभेद होगा ही। इसका एक उदाहरण आप सबके समक्ष रख रहा हूं। यह सर्वविदित है कि महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस दोनों ही भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। पर इसे प्राप्त करने के तरीके पर विचार अलग-अलग थे। महात्मा गांधी अहिंसा के मार्ग को अपनाकर स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे , तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस अहिंसा का मार्ग त्याग कर भी स्वतंत्रता हासिल करना चाहते थे। विचारों में मतभेद थे पर गांधीजी ने, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को “राष्ट्र भक्तों का राष्ट्रभक्त” की उपाधि से नवाजा था। इसी प्रकार नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ही, गांधी जी को सर्वप्रथम “राष्ट्रपिता” कहकर संबोधित किया था।
समग्र सोच:
नेताजी सभी वर्ग और धर्म के लोगों को एक साथ लेकर कार्य करने में विश्वास रखते थे ।इसका एक उदाहरण आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं जो इस प्रकार है -” नेताजी सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर के चेट्टियार मंदिर में एक धार्मिक समारोह में तब तक शामिल नहीं हुए, जब तक की वहां के पुजारी ने सभी जातियों और समुदायों के लोगों को शामिल करने की अनुमति नहीं दी”।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा लिखी गई पुस्तकें:
नेताजी एक कुशल संगठनकर्त्ता और नेतृत्व क्षमता के धनी तो थे ही, साथ – साथ कलम द्वारा अपने विचारों को प्रकट करने में भी उन्हें महारथ हासिल थी। बानगी के तौर पर उनके द्वारा लिखी गई कुछ पुस्तकें इस प्रकार हैं:
• द इंडियन स्ट्रगल 1920 – 1942
• अल्टरनेटिव लीडरशिप
• द कॉल ऑफ द मदर लैंड
• आजाद हिंद – राइटिंग एंड स्पीचेज
• एसेंशियल राइटिंग ऑफ नेताजी सुभाष चंद्र बोस
• कांग्रेस प्रेसिडेंट
स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी के निडर और प्रेरणादायी योगदान के लिए उनके जन्म दिन 23 जनवरी को “पराक्रम दिवस” के रूप में पूरे भारत में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।
बशिष्ट नारायण सिंह
ग्रेटर नोएडा (वेस्ट),भारत