अग्रणी महानायिका
“हिंदी साहित्य हमेशा समाज से सम्बद्ध रहा है। साहित्य मात्र मनोरंजन का माध्यम नहीं वरन सामाजिक समस्याओं और विसंगतियों का आईना भी है।”
आधुनिक हिंदी साहित्य के क्षेत्र में शुरुआत से ही देश की स्वतंत्रता की आवश्यकता और गुलामी की विवशता पर लेखकों ने खुल कर कलम चलाया था।भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर आज तक हर साहित्यकार ने भारत की स्वचेतना,अस्मिता, प्रतिष्ठा को अपने शब्दों की ताकत दी है । विदेशी राज के अन्याय से टकराने, देश के स्वाभिमान को जगाने के लिए – आजादी के तराने लिख-लिख कर देश को जाग्रत करने का क़ाम हमारे स्वनामधन्य साहित्यकारों ने किया था।
इनमें से अग्रणी पंक्ति में प्रमुख है-स्व.सुभद्रा कुमारी चौहान। उनके जैसी कोई महिला साहित्यकार नहीं जिन्होंने मन -वचन- कर्म से स्वंतत्रता आंदोलन को गति दी हो।एक ओर गद्य और पद्य शैली में रचनाओं से लोगों को जाग्रत किया , दूसरी ओर देशवासियों को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए सक्रिय भी किया।
वे स्वयं भी प्रत्यक्ष रूप से स्वतंत्रता आँदोलन में भाग लेती रहीं। “खूब लड़ी मर्दानी….झाँसी वाली रानी थी ” को कौन भुला सकता है ,जो आज भी शौर्य की गाथा का प्रमाण है। स्वतंत्रता -संग्राम के इतिहास में महानायिका सुभद्रा कुमारी चौहान का विशेष स्थान है।
प्रसिद्ध साहित्यकार सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त , 1904 ईस्वी में इलाहाबाद के निहालपुरा गाँव में हुआ था ।उनके पिता जमींदार रामनाथ सिंह थे और माँ धिराज कुंवर।चार भाई और दो बहनों के साथ उनका बचपन बीता । शिक्षा प्रेमी पिता ने उनकी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करवा दी। वे स्वभाव से चंचल और प्रतिभा संपन्न थीं। जब- तब वे कविता लिखने की कोशिश करतीं। स्कूल आते- जाते मन की बात कागज़ पर उतार लेतीं थीं।
9 साल की उम्र में “नीम का पेड़ ” कविता लिख दी ,जो प्रकाशित भी हुई। नवीं के बाद वे पढ़ न सकी। लेकिन उनकी सोच ओर दृष्टिकोण औपचारिक शिक्षा की मोहताज नहीं थी। विद्रोही,जागरूक और दबंग सुभद्रा अपने कर्त्तव्य पथ पर चलती रहीं। वे अंधविश्वास, कुरीतियों और बेड़ियों के विरुद्ध रहीं । गरीब, पिछड़े और पीड़ित वर्ग के प्रति वे कोमल दया भाव रखती थीं।
इलाहाबाद के स्कूल में महादेवी वर्मा उनसे छोटी कक्षा में पढ़तीं थीं। दोनों अच्छी सहेलियां बन गयी। उस काल के साहित्यकारों से उनका सम्पर्क रहा।
1919 में विवाह के बाद वे जबलपुर आ गयीं। उनके पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह जी साहित्य प्रेमी, नाटककार और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय एडवोकेट थे। नयी सोच के पति के साथ सुभद्रा जी स्वयं को गढ़तीं गयीं
महिलाएं तब इतनी सक्रिय नहीं होती थीं । घर की सीमा उन्हें बाहर नहीं निकलने देती थी। उस माहौल में भी सुभद्राजी विवाह के एक- डेढ़ साल बाद ही वे पति की साथ सक्रिय हो गयीं और कांग्रेस की सदस्य बन कर देश के प्रति समर्पित हो गयीं। इतनी कम आयु में भी वे परिवार, सामाजिक और देश के कामों में संतुलन बिठा लेती थीं।
सरल, निष्कपट और भावुक ह्रदय की सुभद्रा जी सम्पन्न परिवार की होने के बाद भी सदा सादी खादी की धोती ही पहनती थीं । यूँ सजने- संवरने का उन्हें शौक तो था फिर भी सादा रहना पसंद करतीं थीं- न बिंदी, न चूड़ी आदि । नागपुर काँफ्रेंस में वे गाँधीजी से मिलीं। उन्हें देख जब गांधीजी ने उनसे पूछा, “बेन!तुम सिंदूर क्यूँ नहीं लगाती ? कल से कोर वाली धोती पहना करो।” इन्हें अच्छा लगा कि वे शादीशुदा हैं।
1920 का जबलपुर का “झंडा सत्याग्रह” देश का पहला सत्याग्रह आंदोलन था। सुभद्रा जी ने इसमें भाग लिया और वे पहली महिला सत्याग्रही बनी। घर- घर सन्देश वे देने जातीं और सभाओं में वे भाषण देतीं। साथ ही उनकी लेखनी कभी रुकी नहीं। जनमानस को उद्वेलित करती वे रचनाएं लिखती रहीं -” वीरो का कैसा सा हो बसंत?”, ” आ रही हिमालय से पुकार ” , “झाँसी की रानी” “स्वदेश” आदि।
उनकी कथनी – करनी में कभी अंतर नहीं रहा । पत्नी और माता के फर्ज़ के साथ देश की सेवा भी कभी नहीं छोड़तीं। आज़ादी के संघर्ष में भी उन्होंने अपनी दो पुत्रियों- सुधा,ममता और तीन पुत्र- अजय, विजय और अशोक का लालन -पालन का हमेशा ध्यान रखा। वे मानती कि ईश्वर उनके बच्चों का ध्यान रखेंगे।
उन्हें पति और परिवार से सहयोग मिलता रहा। वे अपनी जैसी महिलाओं से भी आग्रह करती थीं, वे भी आंदोलन में भाग लें।
वे आह्वान करतीं कि वे अपने पतियों के साथ “अबलाएँ उठ पड़ें –देश में करें युद्ध घमासान सखी ।”
बाल -साहित्य में उनकी रूचि थी। अल्हड़, मासूम और निर्मल बचपन उनके मन में बसता था। बाल- काव्य में ममत्व और मासूमियत झलकती है। अक्सर वे अपने बचपन को याद करती थीं ।
साहित्यकार सुभद्राजी आंदोलनों में सक्रिय रहीं ।वे पहली महिला सत्याग्रही बनीं, जिन्होंने गाँधी जी के आँदोलन में भाग लिया। अक्सर इनके भाषणों के कारण अंग्रेजी सरकार नाराज़ हो जाती। “झाँसी की रानी ” मुहँजबानी लोगों को याद हो गयी , इसकी लोकप्रियता के कारण अंग्रेज़ सरकार ने इसे ज़ब्त भी कर दिया।
अंग्रेज़ सरकार इन्हें कैसे बर्दाश्त करती ? इन्हें दो बार जेल जाना पड़ा। जेल की दुर्दशा और बर्ताव से वे दुखी हो जातीं। अपनी छोटी बेटी के प्रति बुरे बर्ताव से पीड़ा महसूस करतीं। वहां उन्होंने कई कहानियाँ लिखी जो उनके साक्षात् अनुभव और कल्पना शक्ति का अनुपम मेल हैं । उनकी “बंदिनी की डायरी “किसी महिला लेखिका की पहली लिखी डायरी मानी जाती है। इसमें उन्होंने जेल जीवन के अन्याय, परेशानियों और समस्यायों को लिखा था। अनेक बार उन्हें प्रताड़ना का सामना करना पड़ा।
इनकी तीन कहानी संग्रह में करीब 46 कहानियाँ हैं। इन कहानियों में महिलाओं की पारिवारिक और सामाजिक विवशताओं को व्यक्त किया गया है,खुद जो उन्होंने भुगता, महसूस किया और देखा।
पर्दे, छुआछूत का विरोध और नारी को सबल बनाने की बात वे हमेशा करतीं । उस संकीर्ण समाज में उन्होंने अपनी बेटी सुधा का अन्तर्जातीय विवाह किया -प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय से।अपनी पुत्री का उन्होंने कन्यादान भी नहीं किया। वे मानती थीं कि पुत्री दान की वस्तु नहीं हो सकती । अतः पुत्री का दान नहीं किया जाना चाहिए ।
उनकी सैंतालीस कहानियों के राजनीतिक और मानवीय विषय रहे। “हींगवाला”कहानी काबुली वाला से कहीं आगे लगती है । इसमें बच्चों के प्रति भावनात्मक लगाव दिखता है। धर्म और जाति से कहीं ऊपर।
इनकी कविता संग्रह में देशभक्ति के भाव से ओतप्रोत और बच्चों के लिए कवितायें हैं । बच्चों के प्रति प्रेम सुभद्रा जी के रग – रग में बसा था।
स्वदेश,झाँसी की रानी, जलियांवाला बाग़, वीरोंका कैसा हो वसंत? – जैसी अनेक रचनाएँ आज भी लोकप्रिय हैं। ये कवितायेँ कालातीत हैं जिनका महत्व कभी खत्म नहीं हो सकता।
सुभद्राकुमारी चौहान के बारे में कम ही कहा और सुना गया है ।उन्हें उनका उचित श्रेय नहीं मिल सका। आज हम उन्हें ऐसी नारी के रूप में नमन करते हैं, देश और समाज के प्रति समर्पित रहीं। उस काल में जब नारी शिक्षा न के बराबर थी,तब उन्होंने आगे आकर स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया और हम महिलाओं के लिए राह तैयार की।
वे मध्य प्रान्त की विधानण्डल की सदस्य भी रहीं
। वहाँ भी वे सही का साथ देती रहीं । वे वहाँ कांग्रेस या सरकार के रुख का नहीं वरन लोक हित पर विचार करती थीं। हर आंदोलन में पीड़ित वर्ग का साथ देती रहीं। किसानों ,स्वच्छता कर्मचारियों की मांगों का समर्थन किया।
15 फ़रवरी, 1948 में मात्र 43 वर्ष की आयु में एक कार दुर्घटना में उनका स्वर्गवास सिवनी में हो गया ,जब वे नागपुर से जबलपुर लौट रहीं थीं। सड़क पर दौड़ते मुर्गी के कुछ बच्चों को बचाने की कोशिश में कार पेड़ से टकरा गयी और सुभद्रा जी चिर निद्रा में सो गयीं ,बिना कुछ कहे चुपचाप।
स्वतंत्रता की पेरोकार सुभद्रा जैसे — ” लो रानी, फिरंगी को खदेड़ कर आयी हूँ ‘ रानी से कहने गयी हों ।
ऐसी थीं हमारी प्रातःस्मरणीय ” झाँसी की रानी” की रचियता और जब उन्होंने लिखा…
“आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,
स्वागत करती हूँ तेरा।
तुझे देखकर आज हो रहा,
दूना प्रमुदित मन मेरा ”
आदर्श — वे गाँधी जी की वे प्रबल समर्थक थीं । इसके साथ ही सत्य निष्ठा और लोक हित उनके आदर्श थे।
— सम्मान–
1– उन्हें दो बार सेकसरिया सम्मान कथा और कविता संग्रह के लिए प्राप्त हुआ।
2–उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया गया। 1976 में(25 पैसे का )
3– भारतीय तट रक्षक सेना ने -एक तट रक्षक जहाज का नाम उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा।
4–उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक पुस्तकें और आलेख लिखे गये। उनकी आत्मकथा उनकी पुत्री सुधा चौहान ने “मिला तेज से तेज ” लिखी है।
5-जबल पुर में उनकी प्रतिमा स्थापित की गयी है।
महिमा शुक्ला
इंदौर,भारत