भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की- सावित्रीबाई फुले

सावित्रीबाई फुले

महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में 3 जनवरी 1831 को जन्‍मी सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका थी। इनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले शिक्षक होने के साथ भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी। इन्‍हें बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों से पत्थर भी खाने पड़े।
सावित्रीबाई का विवाह बहुत ही छोटी उम्र में हो गया था। उनका विवाह महज नौ साल की उम्र में वर्ष 1940 में ज्योतिराव फुले से हो गया। शादी के बाद वह जल्द ही अपने पति के साथ पुणे आ गईं। विवाह के समय वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं। लेकिन पढ़ाई में उनका मन बहुत लगता था। उनके पढ़ने और सीखने की लगन से प्रभावित होकर उनके पति ने उन्हें आगे पढ़ना और लिखना सिखाया। सावित्रीबाई ने अहमदनगर और पुणे में शिक्षक बनने का प्रशिक्षण लिया और एक योग्य शिक्षिका बनीं।

भारत वर्ष में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शैक्षिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक आंदोलनों एवं समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, बाल विवाह ,सती प्रथा, एवं शिक्षा के विरुद्ध लड़ाई का स्वर्णिम काल था उस काल में शिक्षा समाज के कुछ उच्च वर्ग लोगों की परिधि तक ही सीमित थी ऐसे कठिन समय में महिलाओं और दलित पिछड़े वर्ग के पुरुषों के लिए शिक्षा संस्थानों के बंद दरवाजे खोलने का साहस सतत प्रयास और संघर्ष जिस माननीय व्यक्ति ने किया वह थी सावित्रीबाई फुले जिसे विश्व आधुनिक भारत की प्रथम शिक्षिका के रूप में जानता है।

विवाह के बाद ज्योतिबा ने सावित्री बाई को पढ़ाना आरंभ किया उस दौर में किसी महिला का शिक्षा प्राप्त करना एक प्रकार का पाप समझा जाता था इसलिए ज्योतिबा का विरोध शुरू हो गया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और चोरी-छिपे पढ़ना लिखना जारी रखा। सावित्रीबाई ने समाज में व्याप्त भेदभाव की बेड़ियों को जलाकर महिलाओं एवं वंचित समाज के लिए विकास का एक राजपथ तैयार किया ताकि सभी महिलाएं सिर उठाकर आत्मविश्वास और आत्म गौरव के साथ जी सके।
इस प्रकार सावित्रीबाई ने ज्योतिबा के साथ मिलकर 1 जनवरी 1848 से 15 मार्च 1852 की अवधि में पुणे और उसके आसपास 18 विद्यालय बिना किसी बाहरी आर्थिक मदद के निजी सामर्थ्य से स्थापित किए जहां सैकड़ों की संख्या में बच्चों ने शिक्षा प्राप्त कर अपने जीवन को संवारा
समाज में महिलाओं को हक दिलाना उनका लक्ष्य था।
देश में विधवाओं की दुर्दशा भी सावित्रीबाई को बहुत दुख पहुंचाती थी। इसलिए 1854 में उन्होंने विधवाओं के लिए एक आश्रय खोला। वर्षों के निरंतर सुधार के बाद 1864 में इसे एक बड़े आश्रय में बदलने में सफल रहीं। उनके इस आश्रय गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल बहुओं को जगह मिलने लगी जिनको उनके परिवार वालों ने छोड़ दिया था। सावित्रीबाई उन सभी को पढ़ाती लिखाती थीं।


सावित्रीबाई फुले के कोई संतान न थी स्कूल के बच्चे ही उनका सर्वस्व थे जब सावित्री बाई अपने विद्यालय में बच्चों को पढ़ाने जाती थी तो विरोधी उनके ऊपर कूड़ा कचरा गंदगी फेंक देते थे लेकिन वे कभी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुई बल्कि कहीं अधिक आत्मविश्वास और साहस से अपने कर्तव्य पथ पर सतत पड़ाती रही वह अपने साथ एक झोले में एक अतिरिक्त साड़ी रखती और विद्यालय पहुंचने पर दूसरी साड़ी पहन लेती थी सावित्रीबाई फुले ने जो रास्ता चुना था उस में फूल नहीं बल्कि पग-पग पर कांटे बिखरे हुए थे लेकिन उन कांटों की चुभन में भी उन्हें खुशी होती कि वह स्त्री शिक्षा उनके अधिकारों के लिए कुछ कर पा रही है।

सावित्रीबाई के विचार थे कि स्वाभिमान से जीने के लिए पढ़ाई करो, पाठशाला ही इंसानों का सच्चा गहना है।

सावित्रीवाई ने विधवा महिलाओं के सर मोड़ने के खिलाफ आंदोलन चलाया, महिलाओ को आर्थिक स्वावलंबन देने के लिए महिला सेवा मंडल बनाया जिसमें महिलाओं को स्वावलंबी बनाने हेतु उनके कौशल विकास के प्रशिक्षण प्रारंभ हुए जिससे महिलाएं आत्मनिर्भर बन सके वह भारत की प्रथम महिला शिक्षिका समाज सुधार इक्का एवं मराठी यात्री थी ।विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाकर सामाजिक समरसता का प्रसार करना, महिलाओं को शोषण से मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए।

आज भी नारी को, खुद पर बहुत विश्वास है,
सावित्रीबाई जैसे बनने की उसमे भी आस है।

पायल विजय परदेशी
इंदौर,भारत

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