भारतीय सिनेमा के रत्न – सत्यजित राय
2-3 साल की शैशवावस्था में पिता का साया सिर से उठ गया और मामा के यहाँ रहना हुआ। ननिहाल का वातावरण साहित्यिक और संगीतमय था। घर में तमाम लोगों का आना-जाना लगा रहता था। माँ सुप्रभा देवी अपना सारा लाड़-प्यार अपने इकलौते बेटे सत्यजित पर लुटातीं। बाबा (पिता के पिता) उपेन्द्र किशोर राय एक लोकप्रिय लेखक, चित्रकार और संगीतकार थे। पिता सुकुमार राय भी प्रिंटिंग और पत्रकारिता से जुड़े थे। इसके बावजूद सत्यजित राय का बचपन काफी संघर्ष और चुनौतियों भरा रहा है। वे पढ़ने-लिखने में बहुत तेज नहीं थे पर बहुत कमजोर भी नहीं। सत्यजित राय औसत लेकिन प्रतिभाशाली छात्र थे। उनकी कॉलेज की पढ़ाई प्रेसीडेंसी कॉलेज में हुई। बचपन में माँ सत्यजित को कविगुरु के पास ले गईं, बच्चा अपनी ऑटोग्राफ़ बुक साथ ले गया था ।रवींद्रनाथ ने ऑटोग्राफ़ बुक अगले दिन एक कविता के साथ लौटाई। उसमें लिखा था, ‘मैं सालोंसाल दूर-दूर देश यात्रा पर गया, मैंने पहाड़-समुद्र देखे। लेकिन वो देखने में असफ़ल रहा जो मेरे घर के दो कदम पर था। धान के गुच्छे में दाना – चमकती ओस की बूँद।’ सत्यजित राय ने इसे अपना मूल मंत्र माना तथा दाना और चमकती ओस दोनों को देखा और अपनी फ़िल्मों के द्वारा दूसरों को दिखाया भी।
रवींद्रनाथ टैगोर और सत्यजित राय दोनों ने भारत की कीर्ति फ़ैलाई -एक ने साहित्य के क्षेत्र में तो 2 मई , 1921 को कलकत्ता (कोलकाता) में पैदा हुए सत्यजित ने सिनेमा के क्षेत्र में। उन्होंने स्वयं बताया है कि वे कलकत्ता में पैदा हुए थे, उनका लालन-पालन कलकत्ता में हुआ था, उन्हें चौरंगी की भीड़ में धुलना-मिलना भाता था, कॉलेज स्ट्रीट में सैकेंडहैंड किताबों की दुकानों में मोलभाव करना अच्छा लगता था, चोर बाजार में सिंफ़नी के रिकॉड के लिए भटकना और पानी के मोल उन्हें खरीदने में मजा आता था, सिनेमाहाल की ठंडक और हॉलीवुड की काल्पनिक दुनिया उन्हें रास आती थी। सत्यजित राय की निजी जिंदगी भी फिल्म से कम नहीं रही। उनकी पत्नी बिजोया ने अपनी किताब ‘मानिक एंड आई: माई लाइफ़ विथ सत्यजित राय’ में इन अनुभवों को साझा किया है। 1992 में सत्यजित राय के निधन के बाद लिखी गई उनकी निजी डायरी पर आधारित इस किताब को पेंग्विन इंडिया ने प्रकाशित किया है। बिजोया ने बताया कि कैसे वे दोनों 8 साल तक डेटिंग करते रहे और फिर चुपचाप 1949 में शादी कर ली। इसके बाद एक योजना बनाकर दोनों परिवारों को राजी किया। उन्होंने बताया कि वह और माणिक बचपन से ही दोस्त थे, लेकिन 1940 के आस-पास वह दोनों एक- दूसरे के ज्यादा करीब आए। पश्चिमी क्लासिकल संगीत तथा हॉलीवुड फ़िल्में दोनों उनकी रूचि में शामिल थीं। जैसे माणिकदा (सत्यजित राय का लोकप्रिय नाम) अपने माता-पिता की इकलौती संतान थें, वैसे ही बिजोया और सत्यजित राय की भी केवल एक संतान है।उनके बेटे का नाम संदीप राय है और वह भी अपने पिता के नक्शे कदम पर चल कर फ़िल्म निर्देशक बना है।
अमेरिका तथा यूरोपीय फ़िल्में देखने के कारण सत्यजित राय की फ़िल्में बॉलीवुड की मसाला फ़िल्मों से हट कर होती हैं और उनकी फ़िल्मों का संगीत सदैव विशिष्ट रहा है। पहले वे अपनी फ़िल्मों का संगीत संगीत – दिग्गजों से बनवा रहे थें। उनकी शुरुआती फ़िल्मों का संगीत अपने क्षेत्र के जाने-माने लोगों – पंडित रविशंकर (अपूत्रयी, पारस पत्थर), उस्ताद विलायत खाँ (जलसाघर), अली अकबर खाँ (देवी) ने दिया है। मगर ये लोग फ़िल्म की तकनीक और दुनिया से परिचित न थें, अत: सत्यजित राय को एडीटिंग टेबल पर स्वयं काफ़ी मेहनत करनी पड़ती थी। बाद में वे अपनी फ़िल्मों का म्युजिक स्वयं कम्पोज करने लगे। उन्हें भारतीय और पश्चिमी दोनों संगीत में महारत हासिल थी। ‘चारुलता’ और ‘घरे-बाहरे’ में उन्होंने दोनों तरह के संगीत का प्रयोग किया है। उनके शांतिनिकेतन के मित्र और वहाँ इंग्लिश के शिक्षक एलेक्स एरोनसन के अनुसार मानिक विलक्षण थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे किसी भी प्रकार के म्युजिक के प्रति उनकी भक्तिभावना रखते थे। चाहे वह इंडियन म्युजिक हो अथवा वेस्टर्न म्युजिक ,वे समान रूप से डूब कर सुनते थे।
सत्यजित राय ने भारतीय सिनेमा का स्वरूप बदल डाला। वे अपनी मातृभाषा बाँग्ला में फ़िल्म बनाते थे क्योंकि वे फ़िल्म निर्माण के प्रत्येक पक्ष पर स्वयं काम करते थे। मोहक छायांकन, विलक्षण रंगबोध और दृश्य संयोजन के मामले में तो राय सदैव अनन्य रहें। यह बड़ा दिलचस्प है कि राय को हिंदी नहीं आती थी पर हिंदी में वे प्रेमचंद के पास गए और उन्होंने पहले ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बनाई, बाद में ‘सद्गति’ फ़िल्म बनाई। श्रेष्ठ कलाकार सदा अपनी सीमाओं का विस्तार करता है। वह अपनी सीमाओं से बाहर काम करने की चुनौती स्वीकारता है। सत्यजित राय अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर निकले और उन्होंने हिन्दी में फ़िल्में बनाई। ऐसा कर उन्होंने हिंदी को अविस्मरणीय सिनेमाई अनुभव से भी समृद्ध किया। बाँग्ला में उन्होंने ‘पथेर पांचाली, ‘अपराजितो’, ‘पारस पत्थर’, ‘जलसाघर’, ‘अपुर संसार’, ‘देवी’, ‘तीन कन्या’, ‘कंचनजंघा’, ‘अभिजान’, ‘महानगर’, ‘चारुलत”, ‘टू’, ‘कापुरुष’, ‘महापुरुष’, ‘नायक’, ‘चिड़ियाखाना’, ‘गूपी गायने बाघा बायने’ ‘अरेण्येर दिन ’, ‘त्रि’, ‘प्रतिद्वंद्वी’, ‘सीमाबद्ध’, ‘अशनि संकेत’, ‘सोनर केला’, ‘जन अरण्य’, ‘पीकू’, ‘जय बाबा’, ‘फ़ेलुनाथ, ‘हीरेक राजार देश’, ‘घरे बाइरे’, ‘गणशत्रु’, ‘शाखा प्रशाखा’, ‘आगंतुक’ उनकी फ़िल्में हैं। इसमें ‘टू’ तथा ‘पीकू’ लघु फ़िल्में हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘सिक्किम’ ‘बाला’, ‘सुकुमार राय’, ‘रबिंद्रनाथ टैगोर’, ‘दि इनर आई’ नाम से डॉक्यूमेंट्री भी बनाई।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सत्यजित राय फ़िल्म निर्देशक, फ़िल्म एडीटर, संगीतज्ञ तो थे ही; इसके अलावा पटकथा लेखन, टाइपोग्राफ़र, कैलियोग्राफ़र, डिजाइनर, रेखांकन, कहानी लेखन, बाल कथा लेखन, पत्रिका संपादन, समीक्षा में भी कुशल थे। फ़िल्म बनाने के पहले से वे फ़िल्म समीक्षा कर रहे थें जो उस समय के प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित हो रही थीं। उन्होंने कहानियों के साथ-साथ ढ़ेरों उपन्यास (‘बादशाही अंगटी’, ‘गंगटोके गंडगोल’, ‘सोनार केला’, ‘रॉयल बेंगाल रहस्य’, ‘हत्यापुरी’, ‘नयन रहस्य’ इत्यादि) भी लिखा। उनकी कहानियाँ और उपन्यास बाँग्ला की प्रसिद्ध पत्रिकाओं जैसे ‘संदेश’ तथा ‘देश’ में प्रकाशित होते थे। उन्होंने साहित्य में फ़ेलुदा (35 कहानियाँ हैं इस श्रृंखला में, केवल दो – ‘शोनार केला’ तथा ‘जय बाबा फ़ेलुदा’ – पर फ़िल्म बनी हैं), प्रोफ़ेसर शंकु जैसे कालजयी चरित्रों का निर्माण किया। उनके स्क्रीनप्ले भी प्रकाशित हैं। उनके अधिकांश लेखन का इंग्लिश में अनुवाद हो चुका है। उन्होंने अपनी जीवनी ‘जखन छोटो छेलम’ (व्हेन आई वाज ए चाइल्ड) में अपने बचपन का चित्रण किया है। उन्होंने अपनी बुआ पुन्यलता की किताब ‘दोज चाइल्डहुड डेज’ का रेखांकन किया। ‘अवर फ़िल्म्स, देयर फ़िल्म्स’ सत्यजित राय द्वारा विभिन्न समय (28 साल की अवधि) में लिखे गए सिनेमा लेखों, उनकी डायरी, दूसरे फ़िल्मकारों से मुलाकातों, हॉलीवुड, मास्को तथा जापान भ्रमण के प्रभाव, संस्मरण आदि का संग्रह है। सिने प्रेमियों के लिए इस किताब का बहुत महत्व है क्योंकि यह विश्व के कई महान फ़िल्मकारों तथा अच्छी सिनेमा के विषय पर प्रकाश डालने वाली किताब है।
फ़िल्म निर्माण कार्य आसान नहीं होता है। यह बहुत कठिन कार्य है और बहुत परिश्रम की माँग करता है। यह एक टीम वर्क होता है तथा इसमें पर्याप्त पूँजी की आवश्यकता होती है। वैसे हर फ़िल्म निर्माण के समय अपनी-अपनी कठिनाइयाँ संग ले कर आती है। मगर यहाँ मैं केवल एक उदाहरण दे रही हूँ। पूँजी का इंतजाम, खासकर नए निर्देशक के लिए यह बहुत कठिन काम होता है। सत्यजित राय को भी अपनी पहली फ़िल्म के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। अपनी पहली फ़िल्म ‘पथेर पांचाली’ के लिए उन्हें जो कठिनाइयाँ उठानी पड़ीं, जो संघर्ष झेलने पड़े उन पर उन्होंने स्वयं तथा अन्य लोगों ने काफ़ी कुछ लिखा है। इसी तरह फ़िल्म ‘जलसाघर’ बनाते समय भी उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। सत्यजित राय किसी फ़िल्म संस्थान से पढ़ कर नहीं निकले थे, वे स्वशिक्षित थे। उन्होंने जो सीखा सब फ़िल्म बनाने दौरान सीखा। शुरु में उन्हें इस विधा की तकनीकी जानकारी नहीं थी। वे दूसरों से इन बातों पर बात करते, उनसे सलाह लेते और उन पर विश्वास करते थे। उनमें सीखने की अकूत क्षमता थी, नतीजतन वे इस विधा में पारंगत हो गए। वे जिस क्षेत्र में जाते, गहराई तक जाते , चाहे वह फ़िल्म निर्देशन हो अथवा संगीत या लेखन।
अपनी पहली फ़िल्म ‘पथेर पांचाली’ से उन्होंने फ़िल्म दुनिया में नाम कमाया, विश्व फ़िल्म पटल पर भारत को स्थापित किया और पुरस्कार-सम्मान बटोरे। 111 मिनट की यह फिल्म कान, एडिनबरा, बर्लिंग, न्यूयॉर्क, तोक्यो, डेनमार्क समेत बारह फिल्मोत्सवों में ‘पथेर पांचाली’ पुरस्कृत हुई। फिल्म को कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। फ़िल्म का दादा साहेब सम्मान 1984 में मिला। भारत में उन्हें कई सम्मान के साथ देश का सर्वोच्च “भारत रत्न सम्मान” (1992) प्राप्त हुआ। सत्यजित राय को 1992 में लाइफटाइम अचीवमेंट की श्रेणी में ऑस्कर से सम्मानित किया गया था। अगर उनकी सारी फ़िल्मों के पुरस्कारों की सूची बनाई जाए तो यह काफ़ी लंबी होगी। सत्यजित राय पर श्याम बेनेगल तथा गौतम घोष ने डॉक्यूमेंट्री बनाई है।
सत्यजित राय पर उनके समकालीनों ने खूब लिखा-कहा है। ‘राय का सिनेमा नहीं देखने का मतलब है दुनिया में बिना सूरज या चाँद के देखे अस्तित्व में रहना।’ – ऐसा मानना है जापान के विश्वप्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा का। 1975 में कुरोसावा ने सत्यजित राय के विषय में कहा कि उन्हें लगता है वे मूवी इंड्रस्ट्री के असाधारण व्यक्ति हैं। ‘पथेर पांचाली’ देखने के बाद अपने मन की उत्तेजना कुरोसावा कभी नहीं भूल सकते हैं। इस तरह का सिनेमा जो प्रशांत और कुलीनता की बड़ी नदी के साथ प्रवाहित होता है। लोग पैदा होते हैं, अपनी जिंदगी जीते हैं और अपनी मृत्यु स्वीकार करते हैं। बिना तनिक से प्रयास के और बिना किसी अचानक हिचकोले के, राय अपनी पिक्चर ऐसी ही पेंट करते हैं लेकिन इसका प्रभाव दर्शक पर पड़ता है, उसके गहन मनोभावों को उद्वेलित करता है। कुरोसावा चकित हो पूछते हैं, ‘वे इसे कैसे प्राप्त करते हैं?’ फ़िर खुद ही उत्तर देते हैं, ‘उनकी सिनेमाटोग्राफ़ी तकनीक में कुछ भी अनावश्यक या संयोग नहीं होता है। इसी में उनकी उत्कृष्टता का रहस्य समाहित है।’ कुरोसावा के मन में उनके लिए बहुत सम्मान है, वे उन्हें मूवी इंडस्ट्री का एक विशालकाय व्यक्ति मानते हैं। सत्यजित राय और उनके सिनेमा पर इंग्लिश में बहुत काम उपलब्ध है। बाँग्ला में भी अवश्य होगा। मगर हिन्दी में उन पर न के बराबर काम हुआ है। मेरे द्वारा संपादित पुस्तक ‘सत्यजित राय का अपूर्व संसार: सृजन विमर्श’ भाग 1 एवं 2 इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि इसमें उनकी सारी फ़ीचर-लघु फ़िल्मों तथा समस्त डॉक्यूमेंट्री पर सामग्री उपलब्ध है। सत्यजित राय पर बहुत कुछ लिखा-कहा जा सकता है मगर प्रत्येक आलेख की सीमा होती है। अत: इस आलेख में अपनी बात यही कहते हुए समाप्त करती हूँ कि सत्यजित राय की फ़िल्में भकोसने के लिए नहीं आराम से देखने और देर तक चुभलाने के लिए हैं। उन्हें देखें और उनका रस लें, उन पर चिंतन-मनन करें।
डॉ. विजय शर्मा
झारखंड, भारत