मेरी महानायिका-झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई
बुंदेलों हरबोलों के मुख
हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वी तो
झाँसी वाली रानी थी।
आदरणीया स्वर्गीया सुभद्राकुमारी जी की रचना रानी लक्ष्मीबाई के साथ इतिहास में अंकित हो गई। यह काव्य कथा एक दर्पण की भाँति रानी जी की जीवनगाथा को अक्षरशः प्रतिबिंबित करती है। कविता पढ़ते हुए क्रान्तिकारिणी के जीवन की एक एक घटना चलचित्र की तरह आँखों के समक्ष गुज़रने लगती है।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 11 नवम्बर 1835 में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके माता पिता के नाम भागीरथीबाई सापरे तथा मोरोपन्त जी तांबे थे। इनका बचपन का नाम मनु था। माँ बड़ी विदुषी एवं धार्मिक महिला थी। पढ़ाई लिखाई के साथ मनु को आध्यात्मिक ज्ञान भी खूब मिलता था। किन्तु मनु का मन लड़कियों वाले खेलों में कहाँ रमता था। वह तो नाना व तात्या के संग खेलती थी। बरछी भाले कटार उसके खिलौने थे।गुड्डे गुड़ियों से खेलने के बजाय वह घुड़सवारी करती थी। अपनी लड़को जैसी आदतों के कारण मनु के लिए बुजुर्ग तरह तरह की बाते करते थे। किंतु माता पिता अपनी लाड़ली को हर बात में निपुण करना चाहते थे।इस तरह शास्त्र की ज्ञाता के साथ शस्त्र चलाने में भी वे दक्ष होती गई।
होनी को कौन टाल सकता है भला। मासूम मनु के सिर से माँ का साया उठ गया। बेटी की परवरिश का पूरा दायित्व पिता के काँधों पर आ गया। मोरोपंत जी अपनी लाड़ली को अपने साथ बाजीराव पेशवा के दरबार में ले जाया करते थे। वहॉं चंचल व सुंदर मनु को सब प्यार से “छबीली” के नाम से पुकारते थे। दरबारी वातावरण में रहने से राजसी गुणों का समावेश भी उनके व्यक्तित्व में होने लगा था। अभ्यास करते हुए सैनिकों को देखना उन्हें बहुत रास आता था। घुड़सवारी व तलवारबाजी के करतब देख लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते थे। हाथी की सूंड पर कलाबाजियाँ करना उनके बाएँ हाथ का खेल था। लोग ताज्जुब से देखते थे। साथ ही छींटाकशी करने से भी नहीं चूकते कि यह क्या संभालेगी चौका-चूल्हा। लेकिन उनकी किस्मत में तो विधि ने राज योग जो लिखा था।
सन 1842 में वीरता का वैभव के साथ गठबंधन हो गया। तेरह वर्षीय बालिका गंगाधर राव नेवालकर की जीवनसंगिनी बन गई। वह मनु से रानी लक्ष्मीबाई बन गई। महल में रहते हुए लक्ष्मी का ध्यान राज्य की गतिविधियों पर गहराई से विश्लेषण करता रहता था। सन 1851 में रानी को माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। किन्तु चार माह के राजकुमार के स्वर्गवासी होने से उनकी गोद सूनी हो गई।
1852 में राजा गंगाधर राव के अस्वस्थ होने से राज गद्दी के उत्तराधिकारी हेतु दामोदर राव को गोद लिया गया।
राजकुमार अभी बालक ही थे। रानी की राजकाज में सक्रियता बढ़ने लगी थी। वैसे भी रानी समय समय पर पति को सलाह देने में नहीं चूकतीं। राजा अपराधी को प्राणदण्ड की सजा देने के हिमायती थे। रानी ने फाँसी प्रथा रुकवा दी। अपराधी को कालकोठरी में कम से कम भोजन देकर रखा जाने लगा। इस तरह भूखे रह कर कैदियों में पश्चाताप की भावना आने लगती है। रानी ने अपने स्तर पर राजकाज में सहयोग देना शुरू कर दिया था। ऐसा ही सुधार-प्रयोग किरण वेदी तिहाड़ जेल के कैदियों पर कर चुकी हैं। हालाँकि तरीके चाहे भिन्न रहे हो।
सन 1853 में लक्ष्मीबाई पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। विधाता ने उनकी माँग सूनी कर दी। वैधव्य की पीड़ा के साथ अंग्रेजों की कुचालें भी झेलनी थी। श्वेत वस्त्र धारण कर माला फेरने के लिए लक्ष्मी नहीं बनी थी। शिव व माँ देवी की वे परम भक्त थी। वह नियमित रुपसे पूजा आराधना करती थी। एक नारी पुजारिन के साथ स्वयं चंडी स्वरूपा भी होती है।
फिरंगियों ने नए- नए पैंतरे चलना शुरू कर दिए थे। डलहौजी की प्रचलित हड़प-नीति ने दत्तक दामोदर राव को राजा नहीं माना। राजधानी दिल्ली पर कब्ज़ा कर पेशवा को कैद कर लिया। रानी के अधिकार छीन लिए गए। किन्तु ब्रितानी हार गए थे रानी की कर्तव्यशीलता एवं देशभक्ति के सामने।
अकेली रानी की ललकार चहुँ ओर गूँजने लगी *मैं अपनी झाँसी कभी नहीं दूँगी* लक्ष्मी अब चंडी बन चुकी थी। अकेली रानी अपने विश्वासपात्र सहयोगियों के साथ योजनाएँ बनाने में जी जान से जुट गई। एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया गया। विशाल स्तर पर महिलाओं की सेना में भर्ती की जाने लगी। झलकारी बाई रानी की हमशक्ल थी। अंग्रेजों को भ्रमित करने व डराने के लिए चंडी ने हर सम्भव कोशिश की। मन्दरा व काना जैसी कई वीरांगनाएँ उनकी साथिनें थीं।
क्रांति का बिगुल बज चुका था। बहादुरशाह जफ़र, तात्या टोपे, बेगम हज़रतमहल के बाद 3 अप्रेल 1858 को झाँसी में ह्यूरोज़ के खिलाफ़ लक्ष्मीबाई खड़ी हुई। रानी के नेतृत्व में क्रांति की चिंगारी सुलगाई गई। धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक शोषण की हदें पार हो चुकी थी। कृषि सुविधाओं का अभाव, भारतीयों को मामूली वेतन आदि कई कारण थे। क्रांतिकारियों ने इनके खिलाफ़ आवाज़ उठाई।
फिरंगियों ने झाँसी के अभेद्य किले पर भी कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने चालाकी से गणेश मंदिर की आड़ लेकर गोलाबारी शुरू कर दी। रानी के पास *कड़क बिजली तोप* होने पर भी उनके अन्तर्मन ने मंदिर पर वार करने से रोक दिया। उनकी पीठ पर वार हुआ। तब घायल भवानी ने बेटे को पीठ पर बाँधा और छलाँग स्थल से कूद गई। दोनों हाथों में तलवारें लहराती, सैनिकों का हौंसला बढ़ाती आगे ही आगे बढ़ती गई। उनके तीन घोड़े थे। पहले पवन ने फ़िर बादल ने साथ छोड़ा।अब तीसरा नौसिखिया सारंगा अपनी रानी का साथी था। ह्यूरोज़ की रणनीति के चलते रानी को स्वर्णरेखा नदी के किनारे गोली लगी। सारंगा अपनी माँ को पीठ पर लादे गुरु की झोपड़ी तक पहुँचाया । रानी की प्रार्थना पर वह फूस की झोपड़ी बन गई रानी की चिता।
क्रांति की प्रथम शहीद थी अवंतीबाई लोधी। और 17 जून 1858 को द्वितीय शहीद के नाम से महिमामण्डित हुई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उस समय वे मात्र बाइस वर्ष सात माह व सत्रह दिन की थी। आश्चर्य की बात यह कि ह्यूरोज़ ने भी सेल्यूट करके रानी को अंतिम विदाई दी।
रानी की शहादत व्यर्थ कैसे जा सकती थी। एक महिला द्वारा देशभक्ति की मिसाल कायम की गई। अन्य स्त्रियों के हौसलें भी बुलन्द हो गए। देश को बचाने की मुहिम में जाँबाजों का कारवाँ बनता गया। जब तक दम है तब तक हम हैं।की लीक पर मुट्ठीभर ताकत वाले भी जीत के सपनें देखने लगे। कहते हैं जीवित बचे राजकुमार दामोदर राव की सुरक्षा का बीड़ा महारानी के साठ विश्वासपात्र सहयोगियों ने उठाया। वे अपने राजकुमार को पीठ या कंधों पर उठाए जंगल में छुपते रहे। कई बार अंग्रेजों ने पकड़कर परेशान भी किया। अंत में दस हजार पेंशन तय कर उन्हें इन्दौर में रहने का आदेश दिया।अभी भी उनके परिवार वाले झाँसीवाले के नाम से जाने जाते हैं।
झाँसी में रानी के किले में आधुनिक साधनों के कई उदाहरण मिलते हैं। वाटर हार्वेस्टिंग भी किया जाता था। लोहे से सिर्फ तोपें बनती थीं। बाद में अंग्रेजों ने किले में कुछ लोहे के दरवाजे लगवा दिए। तोपों को ऊपर तक ले जाने हेतु सुविधाजनक ट्रैक अभी भी हैं। शुद्ध हवा के आवागमन के लिए क्रॉस वेंटिलेशन भी लगे हैं। ऐसी थी रानी और वैसी ही थी उनकी सूझबूझ।
जय रानी,जय झाँसी
सिनॉप्सिस
मर्दों में मर्दानी थी वो
झांसी वाली रानी थी
नाम मणिकर्णिका था
मनु बेटी वो कहलाती थी
भाले कटार खिलौने थे
संग नाना के वो खेली थी
सबकी ही लाडली थी
वो झाँसी वाली रानी थी
वीर मनु महलों में आई
लक्ष्मी गंगाधर राव बनी
विधान विधि का था कैसा
सूनी रानी की मांग हुई
वो ना थी अबला नारी
वो झाँसी वाली रानी थी
ऐसे में फिरंगी आ पहुँचे
डलहौज़ी वॉकर व स्मिथ
व्यापारी बन पासे फ़ेंके
भारत में धाक जमा बैठे
हड़प नीति भी काम न आई
वो झाँसी वाली रानी थी
रानी नाना व साथियों ने
बिगुल युद्ध का था बजाया
छक्के छूटे फिरंगियों के
रणभूमि में दम दिखलाया
रणचंडी का रूप धरती
वो झाँसी वाली रानी थी
काना मंदरा सखियाँ लेकर
दोनों हाथों तलवारें चली
स्वामी भक्त घायल घोड़े ने
रानी को अलविदा कहा
घावों की परवाह किसे थी
वो झाँसी वाली रानी थी
नया नया घोड़ा रानी का
ना हार भवानी मानी थी
लड़ी आखरी साँसों तक
लहू की नदियाँ बहाती रही
हो निढाल साहस ना खोया
वो झाँसी वाली रानी थी
लड़ती हुई रणचंडी माँ ने
स्वयं को बलिदान किया
अमर ज्योति बन होम हुई
इतिहास नवल लिखा गई
इक नई राह दिखलाई सबको
वो झाँसी वाली रानी थी
मर्दो में मर्दानी थी वो
झाँसी वाली रानी थी
सरला मेहता
इंदौर,भारत