भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की- रानी गाईदिन्ल्यू

क्रांतिकारी वीरांगना गाईदिन्ल्यू

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल में अंग्रेज प्रशासन को भयभीत रखने वाली अदम्य साहसी योद्धा के अतुल्य योगदान को नमन।

“मैं (रानी) अंग्रेजों के लिए जंगली जानवर के समान थी, इसलिए एक मजबूत रस्सी मेरी कमर से बाँधी गई । दूसरे दिन कोहिमा में मेरे भाई ख्यूशियांग की भी बड़ी क्रूरता से पिटाई की गई और इस प्रकार हम दोनों भाई बहनों को तरह तरह की यातनाएं दी गईं। कड़कड़ाती सर्दी में हमारे कपड़े छीनकर हमें रातों में ठिठुरने के लिए छोड़ दिया गया , पर मैंने धीरज नहीं खोया।” —- ये वाक्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अपने कठिनतम समय के अनुभवों को साझा करते हुए वीरांगना रानी गाईदिन्ल्यू ने कहे , जो ब्रिटिश शासन की क्रूरता के साथ साथ रानी की देशभक्ति और अदम्य विद्रोही प्रवृत्ति को बताने के लिए पर्याप्त हैं।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में न जाने कितनी ज्ञात -अज्ञात वीरांगनाओं के बलिदानों की गाथाएं समाई हुई हैं , जो प्रेरणास्पद होने के साथ – साथ गर्वानुभूति कराने वाली हैं । इसी संग्राम का लगभग गुमनाम सा व्यक्तित्व है — भारत के पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड की रानी गाईदिन्ल्यू , जिनका योगदान वंदनीय है ।

विशेष उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत लेख के लिखे जाने का कारण रानी गाइदिन्ल्यू के विषय में कुछ विद्यार्थियों का वह वार्तालाप रहा ,जिसे इस लेख की लेखिका को भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की अपनी यात्रा के समय डिमापुर में सुनने का अवसर मिला और फिर इस विषय पर अधिक जानकारी प्राप्त करने का क्रम चल पड़ा । इसी क्रम में यह भी जानकारी मिली कि भारत के स्वाधीनता संग्राम में संघर्ष करते हुए बड़ी संख्या में वीरांगनाओं ने प्राणोत्सर्ग किया, किंतु इतिहास में उन्हें वह स्थान नहीं मिला जिसकी वे हकदार रहीं ।

भारतीय वीरांगनाओं ने तो इतिहास के प्रत्येक कालखंड में अपने पारिवारिक दायित्वों का भली भाँति निर्वहन करते हुए कला, संस्कृति , ज्ञान- विज्ञान और युद्ध के मैदान सभी क्षेत्रों में समाज और राष्ट्र के लिए तन मन धन से योगदान करने के साथ-साथ अपने संपूर्ण जीवन की आहुति दी है । ये और बात है कि पुरुष प्रधान समाज में अधिकांश लेखक पुरुष रहे , जो महिलाओं के योगदान को अंकित करने से ही बचते रहे , क्योंकि उन्हें अपने वर्चस्व पर खतरा मंडराता दिखाई दे रहा था और वे नहीं चाहते थे कि कि उनके वर्चस्व पर जरा सी भी आँच आए । स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पढ़ने पर भी लेखकों की इस मनोवृति की झलक स्पष्ट रूप से मिलती है , जहां कुछ गिनी-चुनी महिलाओं के महान योगदान का नाम मात्र के लिए उल्लेख किया गया है और शेष को गुमनामी के अंधेरे में छुपा दिया गया है । भारतीय स्वाधीनता संग्राम की क्रांतिकारी वीरांगनाओं में से एक गुमनाम चेहरा है – भारत के पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड की रानी गाइदिन्ल्यू का, जिन का योगदान वंदनीय है ।

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सन् 1915 से 1993 तक के अपने जीवन काल में भारतीय स्वाधीनता संग्राम में पूर्वोत्तर का प्रतिनिधित्व करने वाली और नागालैंड की रानी के नाम से लोकप्रिय स्वाभिमानी रानी गाईदिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 को मणिपुर के तामेंगलांग जिले के नुंगकाओ ग्राम निवासी रांग्मेयी जनजातीय परिवार में हुआ था । उनकी माता का नाम श्रीमती करोटिन्ल्यू और पिता का नाम श्री लोथेनांग था । वीरांगना गाईदिन्ल्यू को एक ऐसी धार्मिक और राजनीतिक नेत्री के रूप में प्रसिद्धि मिली , जिसने ब्रिटिश राज के विरूद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया । मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में ही पूर्वोत्तर के क्रांतिकारी हाईपो जादोनांग के संपर्क में आने पर उन्होंने अंग्रेर्जों के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था ।
जादोनांग द्वारा पूर्वोत्तर में चलाए जा रहे संघर्ष को स्थानीय लोगों द्वारा *हेराका आंदोलन* कहा जाता था । हेराका आंदोलन का उद्देश्य प्राचीन नागा धार्मिक मान्यताओं की बहाली और उन्हें पुनर्जीवन प्रदान करना था । इसका लक्ष्य नागा जनजातीय धर्म का फिर से उत्थान करने के साथ ही ब्रिटिश शासन का अंत कर स्वशासित नागा राज्य की स्थापना करना था । उन दिनों अंग्रेजों द्वारा पूर्वोत्तर में भोले – भाले नागा आदिवासियों का निरंतर बलपूर्वक धर्मांतरण कराया जा रहा था । उसका भी जादोनांग और रानी कड़ा विरोध किया करते थे ।हेराका आंदोलन का नारा था —
-हम आजाद लोग हैं , गोरों को हम पर हुकूमत नहीं करनी चाहिए।

जादोनांग द्वारा चलाया गया यह धार्मिक आंदोलन धीरे – धीरे राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करने लगा और इसके द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा बंदी होती रही, ब्रिटिश सैनिकों के पास बंदूकें थीं जबकि जेलियांगरोंग जनजाति के ये सभी सैनिक तीर और भाले से उनका सामना वीरता पूर्वक कर रहे थे । उनके इस बहादुरी पूर्ण कृत्य ने अंग्रेजों को मणिपुर और नागा क्षेत्रों से खदेड़ना आरंभ किया ।

सन 1931 में क्रूर अंग्रेजों ने जादोनांग को गिरफ्तार कर फाँसी पर चढा दिया ।
अचानक क्रांतिकारी हईपो जादोनांग के बलिदान के बाद इस आंदोलन के नेतृत्व का भार रानी गाईदिन्ल्यू के कंधों पर आ पड़ा । नागा कबीलों में एकता स्थापित कर रानी जिस अद्भुत कुशलता और सूझ – बूझ के साथ कार्य कर रही थी, उसे वहाँ की जनता का अपार समर्थन मिला।रांग्मेयी जनजाति जिसे काबुई के नाम से भी जाना जाता है , में जन्मी रानी गाईदिन्ल्यू को वहाँ का जनजातीय समाज अपनी पूज्य देवी चेराचमदिन्ल्यू का अवतार मानकर सम्मान देने लगा ।

मात्र 16 वर्ष की आयु में इस क्रांतिकारी वीरांगना ने अपने अद्भुत नेतृत्व कौशल एवं संगठन कौशल के दम पर अपने लिए चार हजार सशस्त्र नागा सैनिकों की सेना तैयार कर ली । जनजातीय कबीलों के लोग स्वेच्छा से उनके आंदोलन में सम्मिलित होते गए जिसने एक गदर का रूप धारण कर लिया । रानी ने इनके साथ भूमिगत होकर अंग्रेज सेना का सामना किया । वह गोरिल्ला युद्ध से अंग्रेज सेना को भयभीत किये रखती थी ।
जन सामान्य उन्हें अपनी देवी और उद्धारक मानने लगा , तो अंग्रेजी सेना उसे खूँखार योद्धा मानकर भयभीत रहती थी ।
रानी ने अपने लोगों को कर (Tax )नहीं चुकाने के लिए प्रोत्साहित किया और उस धनराशि से किले का निर्माण करवाने लगी जिसमें अपनी सेना और सैन्य सामग्री को सुरक्षित रखा जा सके।

ब्रिटिश शासन रानी की गिरफ्तारी का मौका ढूंढ रहा था , किंतु रानी असम, नागालैंड, मणिपुर के गांव-गांव में घूमते हुए एक और तो नवजागरण का शंखनाद कर रही थी तो दूसरी हो प्रशासन को चकमा दे रही थी । असम के गवर्नर ने असम राइफल्स की 2 दुकड़ियां रानी को और उनकी सेना को पकड़ने के लिए भेजी, किंतु इसके पहले ही रानी के सशस्त्र सैनिक इतने सावधान और सशक्त हो गए थे कि उन्होंने असम राइफल्स की टुकड़ी पर ही हमला कर दिया ।फिर तो बौखलाई हुई अंग्रेज सरकार ने रानी को पकड़ने में मदद करने के लिए बड़ा इनाम भी घोषित किया । 17 अप्रैल 1932 को अंग्रेज सेना ने कैप्टन मैक्डॉनल्ड नेतृत्व में आक्रमण कर रानी को उनके समर्थकों के साथ गिरफ्तार करके इंफाल जेल में डाल दिया और 10 महीने तक राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया । परिणामत: उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई । रानी के अधिकांश सहयोगियों को मौत की सजा दी गई और कुछ को जेल में डाल दिया गया । सन् 1933 से 1947 तक गाईदिन्ल्यू को गुवाहाटी , शिलांग , आइजोल और तुरा जेल में कैद रहना पड़ा । सन् 1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शिलांग जेल में उनसे भेंट कर उनकी रिहाई के प्रयास का वचन दिया । पंडित नेहरू उन्हें पहाड़ों की बेटी कहा करते थे ।

अंग्रेज शासन उन्हें खतरनाक विद्रोही मानता था इसलिए असम की असेंबली में गाईदिन्ल्यू के लिए प्रश्न पूछने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था । जेल में उन्हें नरक की यातनाएं झेलनी पड़ी लगभग 14 वर्षों के पश्चात 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तभी उन्हें भी जेल से मुक्ति मिल पाई । जेल से मुक्त होने के पश्चात भी वे अपने क्षेत्र के लोगों के विकास के लिए निरंतर कार्य करती रहीं ।अंग्रेजों की नाक में दम करके रखने वाली रानी गाइदिन्लयू का देहांत सन् 1993 में 78 वर्ष की आयु हुआ।
असम सरकार ने सिल्चर में इस नागा स्वतंत्रता सेनानी के सम्मान में एक पार्क विकसित कर उसमें रानी की प्रतिमा स्थापित की है ।
सन् 2015 में रानी की स्मृति में सिक्का भी जारी किया गया ।

गाईदिन्ल्यू के अद्भुत योगदान को सम्मान देने के लिए भारत सरकार ने 1995 में उन पर एक डाक टिकट जारी किया । सन 1972 में रानी को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ताम्रपत्र से , सन 1983 में विवेकानंद सेवा सम्मान से और सन 1982 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया ।
24 अगस्त 2015 को रानी गाइदिनल्यू के जन्म शताब्दी समारोह का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें रानी – मां कह कर संबोधित किया और प्रसन्नता का विषय है कि उनके नाम पर स्त्री शक्ति पुरस्कार भी आरंभ किया गया है । इसके साथ ही भारतीय तटरक्षक दल के एक जहाज का नाम भी रानी गाइदिन्ल्यू के नाम पर रखा गया है ।


अंग्रेजों सेना की नींद उड़ाने वाली नागा जनजाति की इस क्रांतिकारी के नाम पर रानी गाइदिन्ल्यू ट्राईबल फाइटर्स म्यूजियम भी बनवाया जा रहा है , जिसके लिए जनजातीय कल्याण मंत्रालय द्वारा लगभग ₹15 करोड़ की धनराशि मंजूर की गई है ।
असम मणिपुर नागालैंड के स्थानीय लोगों की बेहतरी के लिए रानी ने केंद्र सरकार , इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से बात की और एक अलग जेलियांगरोंग क्षेत्र की मांग रखी ।
क्रांतिकारी वीरांगना रानी गाइदिन्ल्यू का मानना था कि – अपनी संस्कृति , अपनी भाषा और अपनी मिट्टी को नजरअंदाज करने का अर्थ होगा अपनी पहचान गँवा देना। इसलिए भारत की संस्कृति , भाषा और मिट्टी की सुरक्षा और सम्मान प्रत्येक भारतवासी का परम कर्तव्य है ।

उर्मिला देवी उर्मि
रायपुर , छत्तीसगढ़

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