भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की-रानी चेन्नमा

 

कित्तूर की रानी चिन्नमा

नारी दया,ममता, त्याग और प्रेम की प्रतिमूर्ति है। किंतु इतिहास गवाह है कि जब नारी पर अतिरिक्त कार्यभार या ज़िम्मेदारी पड़ती है तो वो उसे भी बखूबी निभाना जानती है।आज युग और समय काफ़ी बदल चुका है। बहुत से साकारात्मक बदलाव आए हैं समाज में।अब नारी पहले से कहीं अधिक स्वच्छंद है, उन्मुक्त है, उसके पास बहुत से अधिकार हैं और उसे परिवार व समाज का भी भरपूर सहयोग प्राप्त है ।किंतु इतिहास में हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ नारी ने उस समय अदम्य साहस, शौर्य व बुद्धिमता का परिचय दिया जब नारी को बहुत से नियमों और रूढ़ियों की बेड़ियों में बाँधा गया था। ऐसी ही एक महान विभूति थीं ” केत्तूर की रानी चेन्नमा” जो दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य से थीं। झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई से करीब तीस वर्ष पूर्व इन्होंने अंग्रेजों की नीति डाक्टराइन आफ लैप्स का पुरजोर विरोध किया था।

वे उन पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने अनावश्यक हस्तक्षेप और कर संग्रह प्रणाली को ले अंग्रेज़ों का विरोध करते हुए युद्ध में अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया।इस वीरांगना का जन्म २३ अक्टूबर, १७७८ को दक्षिण भारत के काकतीय राजवंश में, बेलगांव जिला, मैसूर, कर्नाटक में हुआ। पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने इनका पालन पोषण पुत्र की भांति किया।बचपन से ही घुड़सवारी, तलवार बाज़ी, तीरंदाजी में विशेष रुचि रखने वाली चेन्नमा अस्त्र-शस्त्र चलाने और रणनीति में भी निपुण थीं।केत्तूर राजघराने में लिंगायत समुदाय के राजा मल्लासारजा से इनका विवाह सम्पन्न हुआ और इन्हें एक पुत्र भी प्राप्त हुआ।किंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था ।पति के निधन के कुछ समय पश्चात रानी ने अपना पुत्र भी खो दिया।किंतु साहसी रानी ने बहुत संयम से काम लिया।दुखों का पहाड़ टूट पड़ने पर भी उन्होंने हिम्मत न हारी और अपना राज्य और प्रजा का उत्तरदायित्व बखूबी संभाला। रानी ने शिवलिंगप्पा को दत्तक पुत्र बना उत्तराधिकारी बनाया जिसे अंग्रेजों ने अस्वीकार कर हटाने का आदेश दे डाला। अंग्रेज़ों की नीति “डाक्ट्राइन आफ लैप्स” के तहत दत्तक पुत्रों को राज करने का अधिकार न था।वे ऐसे राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लेते थे।रानी चेन्नमा ने इस अन्याय पूर्ण नीति को मानने से स्पष्ट रूप से मना कर दिया ।केत्तूर एक समृद्ध राज्य था ।मणि-माणिक्य, स्वर्ण, हीरे-जवाहरात से भरपूर इस छोटे से धनी राज्य पर अंग्रेजों की कुदृष्टि बहुत समय से थीं।अब उन्हें केत्तूर को हड़पने का बहाना मिल गया। रानी चेन्नमा ने लार्ड इल्फ़िन्स्टोन, लेफ़्टिनेंट गवर्नर आफ बाम्बे प्रैसीडेंसी को अर्जी दी जो अंग्रेजों ने नामंजूर कर दी। दो हज़ार सैनिक,चार सौ बंदूकों को मद्रास नेटिव हार्स आर्टिलरी से ले अंग्रेज़ों ने अक्टूबर ,१८२४ में हमला कर दिया जिसमें अंग्रेजों की बुरी तरह पराजय हुई।अमातूर बीलाप्पा, रानी चेन्नमा के सेनापति, कलेक्टर सेंट जान ठाकरी की मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार थे।दो अंग्रेज़ अफसर,सर वाल्टर एलिओट और मिस्टर स्टीवनसन रानी ने बंधक बना लिये।रानी ने इस शर्त पर उन्हें मुक्त किया कि अंग्रेज़ युद्ध अंत करने का वचन दें और फिर युद्ध न करें। विश्वासघाती अंग्रेज़ों ने झूठा वचन दिया और कुछ समय बाद अपना वचन तोड़ते हुए पुन: केत्तूर पर आक्रमण कर दिया।इस बार अंग्रेज़ अफसर चैप्लिन ने और अधिक दल बल के साथ आक्रमण किया जिसमें मिस्टर मुनरो जो कि सोलापुर का सब कलेक्टर था ,मारा गया।रानी बहुत वीरता से लड़ी,उनके दो मुख्य योद्धाओं सनमोली रायान्ना और गुरुसिदप्पा ने बहुत साथ दिया किंतु दुर्भाग्यवश इस बार रानी बंदी बना ली गई। अंग्रेज़ों के दलबल के समक्ष केत्तूर के वीर योद्धा विजय प्राप्त न कर सके।


बहादुर रानी ने दो बार अंग्रेज़ों को युद्ध में हराया था ।उन‌पर मर्दानी बन टूट पड़ी अपने देशभक्त योद्धाओं के साथ। किंतु तीसरी बार अंग्रेज़ों ने उन्हें बंदी बना बेलहोंगल किले में कैद कर लिया।रानी की वीरता और साहस के चर्चे चहुँ ओर हुए।२१ फरवरी ,१८२९ में पचास वर्ष की आयु में इस वीरांगना ने बंदीगृह में अपने प्राणों की आहूति दे दी।उनका बलिदान व देशभक्ति भाव प्रणम्य है। उस समय जब नारी पर अनेक बंधन थे,उस समय रानी चेन्नमा ने न केवल राज्य भार संभाला अपितु मातृभूमि की रक्षा हेतु शत्रु से भिड़ गई।आज भी ऐसी वीरांगना सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।उनके माता-पिता ने उस समय पुत्र की भांति उनका पालन- पोषण किया जो आज भी एक उदाहरण है समाज के लिए। दक्षिण भारत में रानी चेन्नमा को विशेष सम्मान प्राप्त है, जैसा सम्मान उत्तर भारत में झाँसी की रानी को प्राप्त है।नमन है इस वीरांगना को।आज बदले समय में,नये युग में नारी को बहुत से अधिकार व शिक्षा प्राप्त है।ऐसे में रानी चेन्नमा से आज की नारी बहुत प्रेरणा ले सकती है।कितनी ही विषम परिस्थितियाँ हों, कभी भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।हर परिस्थिति का सामना साहस व बुद्धिमता से करना चाहिए। अंग्रेज़ कितने भी बलशाली थे किंतु रानी चेन्नमा ने शीश न झुकाया, आत्मसम्मान से समझौता न‌ किया बल्कि मुकाबला किया।यही प्रेरणा प्रत्येक व्यक्ति को उनसे लेनी चाहिए। मातृभूमि के प्रति समर्पण व प्रेम, कर्तव्यनिष्ठा,वीरता व कुशल राजनीति तथा रणनीति की वे आज भी मिसाल हैं और सदैव रहेंगी। प्रणाम देवी मैं नतमस्तक हूँ ऐसी देवी के समक्ष। भारत माता के प्रति उनका बलिदान अनुकरणीय है। रानी चेन्नमा की प्रथम विजय आज भी वार्षिकोत्सव के रूप में २२-२४ अक्टूबर को बहुत धूमधाम व हर्षोल्लास से मनाई जाती है।रानी की समाधि बैलहोंगल ताल्लुक के एक छोटे से उद्यान में स्थित है जिसकी देखभाल सरकार करती है।११ सितम्बर ,२००७ को रानी चेन्नम्मा की मूर्ति का अनावरण, दिल्ली के संसद भवन में उस समय की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल जी के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ।यह मूर्ति केत्तूर रानी चेन्नमा मेमोरियल कमेटी द्वारा सम्मान सहित दान के रूप में दी गई थी व इसका निर्माण शिल्पकार श्री विजय गौण जी द्वारा किया गया। यह भारतवर्ष की भूमि रानी चेन्नमा के बलिदान की सदैव ऋणी रहेगी। सदैव अभिनन्दन।भारत माता की जय ।

कामना मिश्रा 
दिल्ली

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