मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
मौलाना अबुल कलाम आजाद की कुछ पंक्तियां जो मन को छू लेती हैं-
अगर स्वर्ग से कोई देवदूत भी उतर कर मुझसे कहे कि, अल्लाह ने मेरे लिए भारत की स्वतंत्रता का उपहार भेजा है तब भी मैं उसे तब तक स्वीकार नहीं करूंगा, जब तक हिंदुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित नहीं हो जाती, क्योंकि भारत को स्वतंत्रता नहीं मिलने से केवल भारत का नुकसान होगा परंतु यदि हिंदू मुस्लिम एकता स्थापित नहीं होती है, इससे संपूर्ण मानवता को क्षति पहुंचेगी।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जिनका संपूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित था का जन्म 11 नवंबर 1888 को अरब के पवित्र शहर मक्का में हुआ था। उनके परदादा बाबर के काल में, हेरात यानी अफगानिस्तान से भारत आए थे। उनके पिता मौलाना खैरूद्दीन भी प्रख्यात विद्वान थे। वह अफगान मूल के भारतीय थे। उनकी माता अरब के शेख की पुत्री थी और उनका नाम आलिया बेगम था। मौलाना के पिता मक्का जाकर रहने लगे थे। वही अबुल कलाम का जन्म हुआ।पिता
अपने बेटे को फिरोजबख्त कहते थे जिसका अर्थ भाग्यशाली होता है। उनके जन्म के लगभग 3 वर्ष बाद वह परिवार भारत कोलकाता शहर में आकर बसा। 11 वर्ष की उम्र में उन्हें अपनी माता का बिछोह झेलना पड़ा। उस समय के रीति-रिवाजों के अनुसार 13 वर्ष की आयु में उनका विवाह जुलेखा बेगम से हो गया था । मौलाना के कोई संतान नहीं थी । जुलेखा ने मौलाना की अभावों की जिंदगी में भरपूर साथ दिया। मौलाना लंबी अवधि तक जेल में रहे और वह बड़े सब्र से उनका इंतजार करती रहती। उन्हें टीबी हो गई थी और दवा भी छूट गई थी क्योंकि पैसे की बहुत तंगी थी ।खुद्दारी का यह हाल था कि किसी को शक तक नहीं होने दिया कि दवा नसीब नहीं है। 9 अप्रैल 1943 को जब मौलाना जेल में थे उनकी पत्नी ने बीमारी के कारण अपने प्राण त्याग दिए।
शिक्षा
अब्दुल कलाम की पढ़ाई घर पर ही हुई। उनके घर में पढ़ाई लिखाई वाला संस्कार एक वातावरण था। पिता ही उनके पहले शिक्षक बने। बाद में अन्य गुरुजनों ने उन्हें घर पर ही या मस्जिद में शिक्षित किया। पारिवारिक परंपरा अनुसार उन्होंने पहले अरबी और फारसी पढ़ी। इसके बाद गणित, दर्शनशास्त्र,यूनानी,चिकित्सा और राजनीति शास्त्र का स्वयं घर पर रहकर अध्ययन किया। आजाद बहुत कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। 10 वर्ष की आयु में वे कुरान के पाठ में निपुण हो गए थे। 16 वर्ष की आयु में उन्होंने 25 वर्ष की आयु तक मिलने वाली शिक्षा हासिल कर ली थी। लोग अपना बचपन खेलकूद में बिताते हैं लेकिन वह देर रात तक 13 साल की उम्र में ही पुस्तकें लेकर लोगों की नजरों से बचने के लिए एक कोने में अपने को छुपाने की कोशिश करते। अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी की भाषा थी परंतु भाषा ज्ञान की दृष्टि से आजाद उसको भी सीखना चाहते थे। उन्होंने पाश्चात्य दर्शन को समझा और बाइबिल भी पड़ी।
वह जो कुछ भी पढ़ते उस पर टिप्पणी अवश्य लिखते थे। धीरे-धीरे उन्हें लेख लिखने का अच्छा अभ्यास हो गया जिस कारण वह लेखक भी बन गए। मौलाना के व्यक्तित्व निर्माण में देश के वातावरण का योगदान भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। देश में आज़ादी का आंदोलन चल रहा था जिसके लिए मौलाना ने लेखन और पत्रकारिता का रास्ता अपनाया। सन उन्नीस सौ के आरंभिक दौर से ही वह देश में होने वाले साहित्यिक, सामाजिक तथा राजनीतिक सेमिनारओं में हिस्सेदारी निभाने लगे। वह धीरे-धीरे शायरी भी करने लगे। उन्होंने एक पत्रिका भी निकालनी शुरू की जिसका नाम नवरंगी आलम था। केवल 11 वर्ष की उम्र में ही एक पत्रिका की शुरुआत कर मौलाना ने अपने वैचारिक जुझारूपन का परिचय दिया था। बाद में वो एक अखबार के संपादक भी बने। एडवर्ड्स गैज़ेट पत्र के भी वह सामयिक संपादक नियुक्त हुए।
उन्होंने अपने पत्रकारिता के उद्देश्य को इस प्रकार बताया –
1सोशल रिफॉर्म मुस्लिमों की सामाजिक स्थिति में सुधार
2 उर्दू की तरक्की भाषा के वैचारिक साहित्य के दायरे का विस्तार
3 साहित्यिक मनोविनोद को बरकरार रखना
4 आलोचना उर्दू कृतियों की समीक्षा करना
वह कई घंटों तक धाराप्रवाह विभिन्न विषयों पर बोलने की क्षमता रखते थे। लेकिन यह बात यह है कि मौलाना यथार्थ की ओर से आंखें मूंद केवल पुस्तकों की दुनिया में रहने वाले युवक ना थे। देश की तत्कालीन परतांत्रिक परिस्थितियां उनके मन को विचलित करती रहती ।1905 में जब अंग्रेज शासन ने धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया तब मौलाना के अंदर का विचारवान,जोशीला युवक पूरी सक्रियता के साथ बाहर आ गया और उन्होंने खुलकर इस विभाजन का विरोध किया। यहीं से उनकी कर्मठ क्रांतिकारी राजनेता में परिवर्तन की यात्रा प्रारंभ होती है। उनके अंदर देश को आज़ाद देखने की आकांक्षा इतनी बलवती थी उन्होंने स्वयं अपने नाम के साथ ‘आज़ाद जोड़ दिया। उनके प्रखर क्रांतिकारी लेखो और अखबारों के कारण सरकार ने डिफेंस एक्ट की धारा 3 के अंतर्गत उन्हें बंगाल प्रांत से बाहर जाने का आदेश जारी किया और 1916 में रांची में सरकार ने उन्हें जेल में बंद कर दिया।
अब्दुल कलाम ने हिंदू मुस्लिम सौहार्द्र का वातावरण निर्मित करने में बहुत कार्य किया। अंजुमन इस्लामिया संस्था की बुनियाद डाली जिस का काम था मुसलमानों के बीच सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक समझ को दुरुस्त करना और उन्हें जागरूक बनाना। अंजुमन के तहत एक मदरसा भी खोला गया जिसमें मुसलमान के बच्चों को नए प्रकार की शिक्षा देने का प्रबंध किया गया। थी।
इन साहसिक कार्य हेतु उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 4 वर्ष तक जेल में रखा गया।
महात्मा गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से लौट चुके थे और दिनोंदिन स्वतंत्रता आंदोलन जन आंदोलन के रूप में गहराने लगा था। आज़ाद गांधीजी की स्वदेशी वस्तु प्रयोग और स्वराज के आदर्शों के प्रबल पक्षधर थे। उनके इन विचारों के कारण उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित किया गया। 1920 में आज़ाद ने अपने साथियों के साथ मिलकर जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की स्थापना की। 1923 में आजाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अब तक के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष चुने गए। 1931 में
बोधा राशन सत्याग्रह के महत्वपूर्ण नेता थे। वह गांधीवादी विचारधारा के अनुयायी थे। मुस्लिम लीग ने जब गांधीजी के सत्याग्रह की आलोचना की, आज़ाद ने लीग से ही किनारा कर लिया।
गांधी जी ने आज़ाद के प्रति अपनी ममता छलकाई है इन पंक्तियों में – “जैसी उनकी इस्लाम के प्रति श्रद्धा है वैसा ही दृढ़ उनका देश प्रेम है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महानतम नेताओं में से एक हैं ।”
1927 में जब सरकार ने साइमन कमीशन बनाने की घोषणा की तो आजाद ने फौरन इस कमीशन के बायकाट करने का ऐलान कर दिया। साइमन कमीशन के विरुद्ध एक बड़ा आंदोलन विभिन्न स्थानों पर खड़ा हो गया। 25 दिसंबर 1929 को जब सर्वसम्मति से संपूर्ण आज़ादी का प्रस्ताव पेश हुआ तो आज़ाद मीटिंग में उपस्थित थे। इस प्रस्ताव में सरकार को चेतावनी दी गई कि 1 साल के भीतर ब्रिटिश सरकार प्रस्ताव को मंजूर कर दे।
1930 में नमक सत्याग्रह में आज़ाद ने प्रमुख भूमिका निभाई और अपने हजारों मुस्लिम समर्थकों के साथ उसमें शरीक हुए। कई बार जेल गए। आज़ाद न केवल हिंदू और मुसलमानों के बीच सुलह का काम करते थे बल्कि वह महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के बीच की दरार को भरने के लिए भी प्रयास करते थे। उनका उद्देश्य था आज़ादी के प्रति सभी में दीवानगी पैदा करना।
1939 में जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ और आशंका के बादल मंडराने लगे, ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में अब्दुल कलाम ने कांग्रेस अध्यक्ष के पद के लिए चुनाव लड़ा, जिसका की निर्वाह करना आसान नहीं था।1935 में उन्होंने मुस्लिम लीग, मोहम्मद अली जिन्ना और कांग्रेस के साथ परस्पर वार्तालाप से देश हित में टकराव का स्थाई समाधान निकालने का प्रस्ताव रखा था। 1940 में वह कांग्रेस अध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद पर फिर से नियुक्त हुए।
1942 में क्रिप्स मिशन भारत आया जिसका उद्देश्य भारत की आज़ादी और विश्व युद्ध में भारत के सहयोग के बारे में विचार विमर्श करना था। मौलाना आज़ाद ने नेतृत्व से भेंट की। गांधी को क्रिप्स की शर्तें मंजूर नहीं थी।
स्वतंत्रता से ठीक पहले ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के सुझाव पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और अधिकांश राज्यों की विधानसभाओं के साथ-साथ केंद्र में भी वे जीत कर आए। अंतरिम सरकार का गठन हुआ। आज़ाद तो कांग्रेस के अध्यक्ष थे, उन्होंने सारी कार्यवाही की बागडोर स्वयं थाम रखी थी।
मौलाना आजाद अस्थाई सरकार में शामिल होने के इच्छुक नहीं थे लेकिन गांधी का आग्रह था कि वह मंत्रिमंडल में अवश्य शामिल हों, तब मौलाना ने 15 अगस्त 1947 को मंत्रिमंडल में शिक्षा का कार्यभार संभाला।
लेखन- शुरुआती जीवन काल में मौलाना कवि भी थी देशभक्ति दर्शन और धर्म उनके काव्य विशेष हुआ करते थे। पत्रकारिता उनका पसंदीदा क्षेत्र था। सामान्यता लोग उनको ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ के रचयिता के रूप में जानते हैं। उनकी अन्य पुस्तकें हैं हिजर ओ वसल, खुदबातउल आज़ाद,गुबारे ख़ातिर, हमारी आज़ादी,तजकरा और उनकी राजनैतिक आत्मकथा। उर्दू से अंग्रेजी में बहुत सी पुस्तकों, आलेखों का अनुवाद उन्होंने किया। उन्होंने कुरान की उर्दू में टीका भी लिखी जिसे साहित्य अकैडमी ने प्रकाशित किया।
वो 15 अगस्त 1947 से 13 मई 1952 तक देश के पहले शिक्षा मंत्री रहे और उन्होंने शिक्षा और संस्कृति के विकास पर बहुत ध्यान दिया। उन्होंने नई पाठशाला, महाविद्यालयों की स्थापना की। वे संपूर्ण भारत में एक ही शिक्षा प्रणाली चाहते थे और 10+2+3 की संरचना के पक्षधर में थे। देश में व्याप्त निर्धनता को देखते हुए उन्होंने निशुल्क शिक्षा व्यवस्था की ओर ध्यान दिया। वे चाहते थे कि शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार बने।
जब भी केंद्रीय सलाहकार शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष बने उन्होंने केंद्र और राज्यों के अतिरिक्त विद्यालयों में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा, 14 वर्ष तक के बालक बालिकाओं के लिए निशुल्क शिक्षा, व्यवसाय प्रशिक्षण, कृषि शिक्षा और तकनीकी शिक्षा जैसे प्रावधानों के सुझाव दिए और प्रयास किए।
उन्होंने उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की-संगीत नाटक अकादमी साहित्य अकादमी और ललित कला अकादमी। तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में 1951 में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद की स्थापना की गई और मुंबई,चेन्नई,कानपुर और दिल्ली में भी आईटीआई खोले गए। उनके द्वारा किए गए इन महत्वपूर्ण कार्यों की सूची से उन्हें सदैव याद रखा जाता है । उन्होंने 12 फरवरी 1958 को अंतिम सांसे ली।
पुरस्कार मरणोपरांत सन 1992 में भारत सरकार ने सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से विभूषित किया। 2008 से उनके जन्मदिन 11 नवंबर को शिक्षा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हैदराबाद में उनके नाम पर मौलाना अबुल कलाम आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।
आदर्श
अबुल कलाम विविध क्षेत्रों में प्रेरणा स्रोत हैं 12 वर्ष के होने से पहले उन्होंने एक पुस्तकालय वाचनालय और एक डिबेटिंग सोसायटी का संचालन शुरू कर दिया था।
13 साल से 18 साल का होते होते उन्होंने कई पत्रिकाओं के संपादन का निर्वहन किया था।
15 साल की आयु में वे अपने से दुगनी उम्र के छात्रों को पढ़ाने लगे थे।
हिंदू मुस्लिम सौहार्द्र – उन्होंने अंजुमन इस्लामिया संस्था की बुनियाद डाली थी और उसके तहत एक मदरसा भी खोला था, जिसमें मुसलमान के बच्चों को नए प्रकार की शिक्षा देने का प्रबंध किया था। इस साहसिक कार्य की कीमत उन्हें गिरफ्तारी से चुकानी पड़ी थी। उनकी हिंदू मुस्लिम एकता दिखावटी शब्दावली नहीं थी। उन्होंने राष्ट्र विभाजन के प्रणेता मोहम्मद अली जिन्ना को बहुत समझाया था। उन्होंने पूरे देश के मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहा जो लोग पाकिस्तान जा रहे हैं या पाकिस्तान का ख्वाब देख रहे हैं वे लोग राह से भटक गए हैं। उनके दिमाग सो गए हैं।अरूणा आसिफ अली ने मौलाना आजाद के बारे में यह लिखा कि 15 अगस्त 1947 की रात को जिस वक्त पूरा देश आजादी की खुशियां मना रहा था उस वक्त मौलाना आजाद रो रहे थे क्योंकि उनके नजदीक इस खुशी से बड़ा और पीड़ादायक दुख हिंदुस्तान का विभाजन होना था।
ओजस्वी वक्ता थे। उनका गहन अध्ययन भाषाओं पर उनकी पकड़ और प्रभावशाली शब्द चयन उनके भाषण को जादुई आभा प्रदान करते थे। 1947 में जब मुसलमान परिवार बड़ी संख्या में भारत छोड़कर पाकिस्तान जा रहे थे तब मौलाना ने जामा मस्जिद की प्राचीर से ऐतिहासिक भाषण दीया,” जामा मस्जिद की ऊंची मीनारें तुमसे पूछ रही हैं कि जा रहे होतुमने इतिहास के पन्नों को कहां खो दिया ? कल तक तुम यमुना के तट पर वजू किया करते थे और आज तुम यहां रहने से भी डर रहे हो? याद रखो कि तुम्हारे खून में दिल्ली बसी है। वापस आ जाओ यह तुम्हारा घर है, तुम्हारा देश। उनके इस भावुकता पूर्ण संबोधन का यह प्रभाव रहा कि अनेक लोगों ने पाकिस्तान जाने का विचार त्याग दिया।
शिक्षा के साथ-साथ देश की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर भी उनकी चिंता के दायरे में थी। मौलाना ने संरक्षित स्मारकों की देखरेख व मरम्मत के लिए भारतीय पुरातत्व विभाग को प्रेरित किया और अधिकार दिए।
महिला अधिकारों के वैसे ही माहिती थे मानो आज के व्यक्ति हो। उस काल में मुस्लिम धर्मगुरु स्त्रियों के रहन-सहन में बिल्कुल खुलापन नहीं चाहते थे। ना उनके अधिकारों को तवज्जो दी जाती थी और ना शिक्षा पर ध्यान दिया जाता था। वह इसे इस्लामी सोच नहीं मानते थे। उन्होंने मिस्र में अरबी भाषा की एक पुस्तक जिसमें मुस्लिम महिलाओं की लैंगिक समानता का विषय था उसका हिंदी में अनुवाद किया।मौलाना आजाद अत्यंत दृढ़ निश्चय स्वाभिमानी देश प्रेमी थे।
जब वह अहमदनगर किले की जेल में थे तो उनकी पत्नी अत्यंत बीमार थी। वे चाहते तो अंग्रेज सरकार से कुछ दिन घर जाने का अनुरोध कर सकते थे परंतु उनके जमीर को यह मंज़ूर ना हुआ। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से कहा अब कुछ भी हो अपनी पत्नी से मिलने के लिए मैं देश के दुश्मनों से रिहाई की भीख नहीं मांगूंगा। उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई आजाद को बहुत धक्का लगा। नेहरू ने फिर से उन्हें जेल के बाहर आने का अनुरोध किया क्योंकि उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था। मौलाना जी ने बिना विचलित हुए कहा,” भाई मेरे जो सरकार हमें सही मायने में आज़ादी देने से इंकार कर रही है उससे कुछ हफ्तों के लिए आज़ादी मांगने का कोई फायदा नहीं है। फिर कुछ देर बाद बोले,”अब अगर खुदा ने चाहा तो हम जन्नत में मिलेंगे।”
वो जीवन पर्यंत जिस सादगी से जीते रहे वह सब के लिए अनुकरणीय है। मृत्यु के समय उनके पास एक भी बैंक खाता नहीं था। उनसे एक दर्जन खादी के कुर्ते,पजामे, कुछ सूती अचकन,2 जोड़ी चप्पल और एक पुराना ड्रेसिंग गाउन ही मिला। उनके पास जो वस्तुएं सबसे अधिक थी वह थी पुस्तकें। यह सब राष्ट्रीय खजाने की संपत्ति बनी।
डॉ अनिता भटनागर जैन
भारत