भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की- जय प्रकाश नारायण

लोकनायक- जयप्रकाश नारायण

आइए देखें इतिहास का एक और चमकता दर्पण,
ओजस्वी स्वतंत्रा सेनानी जयप्रकाश नारायण

जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज़ छोड़ दो।
समाज के प्रवाह को, नयी दिशा में मोड़ दो।

जयप्रकाश नारायण
स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वतंत्र भारत की राजनीति में जिन नेताओं की अग्रणी भूमिका रही है उनमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण का नाम प्रमुख है। लोकनायक के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण महान स्वतंत्रता सेनानी समाज सुधारक और राजनेता थे। जयप्रकाश नारायण का आधुनिक भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान हैI वह अकेले ऐसे शख्स हैं जिन्हें देश के तीन लोकप्रिय आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने अपने जीवन को जोखिम में डालते हुए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। 70 के दशक में भ्रष्टाचार और अधिनायकवाद के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया। इसके पहले 50 और 60 के दशकों में भूदान आंदोलन में भाग लेकर लोगों की सोच बदलने की कोशिश की और बड़े पैमाने पर सामाजिक परिवर्तन लाने का काम किया। अपने गिरते स्वास्थ्य के बावजूद इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करके 1977 में वर्तमान सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया। संपूर्ण क्रांति का उनका दर्शन और आंदोलन भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव तो लाया ही साथ ही देश के सामाजिक ताने-बाने को बदलने में भी कारगर साबित हुआ। आजादी के बाद वह बड़े-बड़े पद हासिल कर सकते थे लेकिन उन्होंने गांधीवादी आदर्शों की अपनी सोच नहीं छोड़ी और सादा जीवन जीकर बेमिसाल हो गए।

व्यक्तिगत जीवन

जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्टूबर 1902 में बिहार के सारण जिले के सिताबदियारा गांव में हुआ। उनके पिता का नाम हरशू दयाल श्रीवास्तव और माता का नाम फूल रानी देवी था। इनके पिता कैनल विभाग में राज्य कर्मचारी थे। माता-पिता की चौथी संतान जयप्रकाश जब 9 साल के थे तब वह अपना गांव छोड़कर कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला लेने के लिए पटना चले गए।
अक्टूबर 1920 में जब जयप्रकाश 18 वर्ष के थे तब उनका विवाह ब्रजकिशोर प्रसाद जी की सुपुत्री प्रभावती देवी से हुआ। इसी समय महात्मा गांधी ब्रिटिश सरकार द्वारा जारी किए रौलट एक्ट (राजनीतिक बंदियों को बिना मुकदमा चलाए दो साल तक जेल में बंद रखना) के खिलाफ असहयोग आंदोलन कर रहे थे। इस आंदोलन में जयप्रकाश मौलाना आजाद के भाषण सुनने वालों में शामिल हुए। इस भाषण में मौलाना आजाद ने लोगों से अंग्रेजी हुकूमत की शिक्षा को त्यागने की बात कही थी। इन्हीं तर्कों से प्रभावित होकर पटना लौटकर परीक्षा के ठीक 20 दिन पहले ही इन्होंने कॉलेज छोड़ डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा स्थापित कॉलेज ‘बिहार विद्यापीठ’ में अपना नामांकन करा लिया और डॉक्टर अनुग्रह नारायण सिन्हा के पहले विद्यार्थी हुए।

शिक्षा

बिहार विद्यापीठ से पढ़ाई के बाद 1922 में अपनी पत्नी प्रभावती को महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में छोड़कर जयप्रकाश नारायण कैलिफोर्निया के ‘बर्कले विश्वविद्यालय’ में पढ़ने चले गए।
वे 1922 से 1929 तक अमेरिका में रहे। पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए उन्होंने फैक्ट्री, गैरेज, कंपनियों और होटलों में काम किया। जब बर्कले यूनिवर्सिटी की फीस बढ़ गई तो उन्होंने ‘यूनिवर्सिटी ऑफ लोया’ में अपना दाखिला कराया। पैसे की कमी की वजह से उन्हें विदेश में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा। जयप्रकाश नारायण ने अमेरिका में सोशियोलॉजी की पढ़ाई की जो उनका पसंदीदा विषय था। इस दौरान उन्हें प्रोफेसर एडवर्ड रोस से काफी सहायता प्राप्त हुई। विस्कांसिन में पढ़ते हुए उन्हें कार्ल मार्क्स की पुस्तक ‘दास कैपिटल’ पढ़ने का अवसर मिला। काम और अध्ययन के दौरान उन्हें श्रमिक वर्गों की कठिनाइयों को करीब से जानने का मौका मिला। उन्होंने अमेरिका से बी.ए. और एम.ए. की डिग्री हासिल की। मगर पीएचडी की पढ़ाई पूरी नहीं कर सके। मां की तबीयत ठीक नहीं होने के कारण उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा।

राजनैतिक योगदान

1929 में जब जयप्रकाश नारायण भारत लौटे तो उनके विचारों और दृष्टिकोण में कार्ल मार्क्स का स्पष्ट प्रभाव थाI भारत वापस आते वक्त लंदन में और भारत में उनकी मुलाकात कई कम्युनिस्ट नेताओं से भी हुई,जिनके साथ उन्होंने भारत के स्वतंत्रता और क्रांति के मुद्दे पर चर्चा कीI हालांकि उन्होंने भारतीय कम्युनिस्टों के विचारों का समर्थन नहीं किया।
जवाहरलाल नेहरू के आमंत्रण पर 1929 में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। उसके बाद उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। ब्रिटिश शासन के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने पर 1932 में उन्हें नासिक जेल में बंद कर दिया गया। वहां अपने कारावास के दौरान उनकी मुलाकात राम मनोहर लोहिया, अशोक मेहता, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, युसूफ देसाई, सी. के. नारायण स्वामी आदि राष्ट्रीय नेताओं से हुई। इन सब से मिलने से कांग्रेस में वामपंथी दल का निर्माण हुआ जिसे ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ कहा गया। इस पार्टी के अध्यक्ष आचार्य नरेंद्र देव और महासचिव जयप्रकाश नारायण हुए।
1939 में में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया। और ऐसे अभियान चलाए जिससे सरकार को मिलने वाला राजस्व रोका जा सकेI इस दौरान उन्हें गिरफ्तार करके 9 महीने के लिए जेल में डाल दिया गया। अपनी रिहाई के बाद उन्होंने महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के बीच मतभेदों को सुलझाने का प्रयास भी किया लेकिन उसमें वह सफल नहीं हो सके।

भारत छोड़ो आंदोलन

अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व गुण उभर कर सामने आए। जब महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया तब जयप्रकाश नारायण ने राम मनोहर लोहिया और अरुणा आसफ अली के साथ मिलकर आंदोलन को संभाला। हालांकि वह भी लंबे समय तक जेल से बाहर नहीं रह पाए और जल्द ही उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग सेंट्रल जेल में डाल दिया गया। जेल में ही उन्होंने अपने अन्य क्रांतिकारी साथियों जैसे योगेंद्र शुक्ला, सूरज नारायण सिंह, गुलाब चंद गुप्ता, राम नंदन मिश्र, शालिग्राम सिंह आदि के साथ मिलकर जेल से भागने की योजना बनाई। 9 नवंबर 1942 को दिवाली के दिन वह अपने साथियों के साथ जेल से फरार हो गए। इसके बाद स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उन्होंने भूमिगत होकर काम किया।
ब्रिटिश शासन के अत्याचार से लड़ने के लिए उन्होंने नेपाल में ‘आजाद दस्ता’ बनाया। कुछ महीनों बाद 1943 में ट्रेन से यात्रा करते वक्त उन्हें पंजाब से गिरफ्तार कर लिया गया। स्वतंत्रता आंदोलन की महत्वपूर्ण जानकारी हासिल करने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें काफी सारी यातनाएं भी दीं। जनवरी 1945 में उन्हें लाहौर किले से आगरा जेल में भेज दिया गया। जब गांधी जी ने जोर देकर कहा कि वह राम मनोहर लोहिया एवं जयप्रकाश नारायण की बिना शर्त रिहाई के बाद ही ब्रिटिश शासकों के साथ कोई बातचीत शुरू करेंगे तो उन्हें अप्रैल 1946 को रिहा कर दिया गया।

कैरियर

भारत की आजादी पाने के साथ ही जयप्रकाश नारायण को अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसक निरर्थक पूर्ण विश्वास हुआ। भारत के स्वतंत्र हो जाने के बाद उन्हें ‘ऑल इंडिया रेलवेमेन फेडरेशन’ का अध्यक्ष बनाया गया ।यह दल भारत का सबसे बड़ा श्रमिक दल है। इस पद पर वह वर्ष 1947 से 1953 तक कार्यरत रहे।

विशेष योगदान

गरीबों के लिए उनकी प्रतिबद्धता कभी कम नहीं हुई। यही कारण था जो उन्हें 60 के दशक में विनोबा भावे के ‘भूदान आंदोलन ‘के करीब लेकर आया। फिर 70 के दशक में जब देश में स्थिति बहुत अधिक खराब हो गई थी। आम आदमी को रोजगार नहीं मिल रहा था, भ्रष्टाचार, महंगाई से पूरा देश जूझ रहा था। ऐसे में देश को एक नई क्रांति की आवश्यकता थी। 1974 में गुजरात के छात्रों ने उनसे ‘नवनिर्माण आंदोलन’ के नेतृत्व का आग्रह किया। उसी वर्ष पटना के गांधी मैदान से उन्होंने ‘शांतिपूर्ण संपूर्ण क्रांति’ का भी आह्वान किया। सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बाद 72 वर्ष की आयु की अवस्था में ‘सिंहासन खाली करो जनता आती है’ इस नारे को बुलंद किया तो सारा देश उनके पीछे ऐसे चल पड़ा जैसे किसी संत महात्मा के पीछे चल रहा हो। जयप्रकाश नारायण उर्फ जे.पी. ने छात्रों से भ्रष्ट राजनीतिक संस्थाओं के खिलाफ खड़े होने की अपील की। और एक साल के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालयों को बंद करने को कहा। क्योंकि वह चाहते थे कि इस अवधि में छात्र अपने आप को राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए समर्पित करें।

जे.पी. की संपूर्ण क्रांति

देश की आजादी की लड़ाई से लेकर 1977 तक तमाम आंदोलनों की मशाल थामे चलने वाले जे.पी. ने अपने विचारों, दर्शन और व्यक्तित्व से देश को एक नई दिशा दिखाई। भारत में समाजवादी पार्टी के स्थापना के साथ ही वह भारत छोड़ो आंदोलन और अराजकता के खिलाफ छात्र आंदोलन और संपूर्ण क्रांति के वाहक बने। संपूर्ण क्रांति ने देश में एक नई क्रांति का आगाज किया।
5 जून 1974 को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया तब गांधी मैदान में यही नारा गूंजा था। और इसकी गूंज काफी दूर तक गई।
संपूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केंद्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा जयप्रकाश की हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ा था। बिहार से उठी संपूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने कोने में आग बन कर भड़क उठी और जेपी घर-घर में क्रांति के पर्याय बन गए। दरअसल संपूर्ण क्रांति जे.पी. का विचार और नारा था जिसका आह्वान उन्होंने केंद्र सरकार को हटाने के लिए किया था। जे.पी. ने कहा संपूर्ण क्रांति से मेरा तात्पर्य समाज के सबसे अधिक दबे कुचले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना है। आजादी के दो दशक बाद देश के राजनीतिक और आर्थिक हालात में जयप्रकाश नारायण को विचलित कर दिया। और इसी वजह से सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके जे.पी. ने दोबारा से राजनीति में आने का निर्णय लिया।
दिसंबर 1973 में जेपी “यूथ फॉर डेमोक्रेसी” नाम का संगठन बनाया और देशभर के युवाओं से अपील की कि वे लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएं। गुजरात के छात्रों ने जब 1975 में चिमनभाई की सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया तो जे.पी. वहां गए और नवनिर्माण आंदोलन का समर्थन किया।
मार्च 1974 को जब पटना में छात्रों ने आंदोलन की शुरुआत की थी तब छात्रों के जोर देने पर जे.पी. ने बिहार में आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया। और यही बिहार आंदोलन बाद में संपूर्ण क्रांति में बदल गया। यह आजाद भारत के लिए अनोखी घटना थी। दरअसल यह आंदोलन समस्याओं का परिणाम था जिन्हें लेकर छात्रों और आम जनता में जबरदस्त आक्रोश और असंतोष था।
शैक्षिक स्तर में गिरावट, महंगाई, बेरोजगारी, शासकीय अराजकता और राजनीति में बढ़ता अपराधीकरण ऐसे मुद्दे थे जिन्हें लेकर आम आदमी काफी परेशान था। ऐसे में छात्र युवाओं का संगठन आंदोलन एक संभावित घटना थी। लिहाजा मार्च 1974 में पटना में शुरू हुआ आंदोलन ऐसा आंदोलन बन गया जिसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ा।
5 जून 1974 को जब पटना गांधी मैदान में जे.पी. ने पहली बार संपूर्ण क्रांति का आवाहन किया तो करीब 5 लाख से भी ज्यादा लोग इसके गवाह बने। जे.पी. ने संपूर्ण क्रांति को सिर्फ दो शब्दों में ही उच्चारित किया था। हालांकि क्रांति शब्द नया नहीं था लेकिन संपूर्ण क्रांति नया था। क्योंकि गांधी परंपरा में समग्र क्रांति शब्द का इस्तेमाल किया जाता था संपूर्ण क्रांति का नहीं।
जे.पी. ने तब कहा- “यह क्रांति है मित्रों! और संपूर्ण क्रांति है। विधानसभा का विघटन मात्र इसका उद्देश्य नहीं। यह तो महज मील का पत्थर है। हमारी मंजिल तो बहुत दूर है और हमें अभी बहुत दूर तक जाना है।“
5 जून 1974 को जे.पी. ने घोषणा की कि भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि वह इसी व्यवस्था की उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब संपूर्ण व्यवस्था ही बदल दी जाए। और संपूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रांति, संपूर्ण क्रांति आवश्यक है। इस व्यवस्था ने जो संकट पैदा किया है वह संपूर्ण और बहुमुखी है इसलिए इसका समाधान संपूर्ण बहुमुखी ही होगा। व्यक्ति का अपना जीवन बदले, समाज की रचना बदले, राज्य की व्यवस्था बदले, तब जाकर कहीं बदलाव पूरा होगा और मनुष्य सुख शांति से जीवन जी सकेगा।
इसके साथ ही जे.पी. ने संपूर्ण क्रांति के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि संपूर्ण क्रांति में सात क्रांति शामिल हैं। जिनमें राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक क्रांति शामिल है। इन सात क्रांतियों को मिलाकर संपूर्ण क्रांति होती है।
संपूर्ण क्रांति आंदोलन को जनता का भरपूर समर्थन मिल रहा था। जे.पी. ‘लोकनायक’ बन चुके थे। उनकी जनसभाओं में उमड़ती भीड़ से केंद्र सत्ता की इंदिरा गांधी सरकार हिल गई थी। आंदोलन को कुचलने के लिए केंद्र की तत्कालीन सरकार ने हर संभव उपाय और हथकंडे अपनाए। इसी बीच 1975 में गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई और जनता पार्टी ने सत्ता संभाल लिया।
उधर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया। इसके साथ ही जे.पी. आंदोलन को मिल रहे भारी समर्थन से घबराकर केंद्र सरकार ने 25 जून की रात को भारत में आपातकाल की घोषणा कर दी। देश भर में सेंसरशिप लागू कर दी गई और जे.पी. सहित सभी मुख्य आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया।
19 महीने के काले कानून के बाद जनवरी 1977 में इंदिरा गांधी ने देश में आम चुनाव की घोषणा की। हालांकि उस वक्त जे.पी. की तबीयत काफी खराब थी।इसके बावजूद उन्होंने चुनाव की चुनौती स्वीकार की।
चुनाव में उत्तर भारत में कांग्रेस बुरी तरह से हार गई। आजादी के बाद देश के केंद्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की नैतिक शक्ति और स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान ने उन्हें वह अवसर दिया कि वह अराजकता वाली केंद्र सरकार को बदल पाए।

आपातकाल और जे. पी.

जे.पी. आंदोलन के अंत में 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा हुई जो बाद में जनता पार्टी की जीत में तब्दील हुई। जे.पी. जो एक जमाने में कांग्रेस के सहयोगी थे लेकिन इंदिरा गांधी सरकार के भ्रष्ट एवं अलोकतांत्रिक तरीकों ने उन्हें कांग्रेस और इंदिरा के विरोध में खड़ा कर दिया। 1975 में इंदिरा गांधी को इलाहाबाद कोर्ट में एलेक्टोरल कानून तोड़ने के अंतर्गत दोषी साबित किया तो जेपी ने विपक्ष को एकजुट कर उनसे इस्तीफे की मांग की। फलस्वरुप जे.पी. समेत सभी विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। 1977 में केंद्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। जनता पार्टी के तले सभी गैर कांग्रेसी दलों को एकत्रित करने का श्रेय जयप्रकाश नारायण को ही जाता है।

जे.पी. का अंत समय

संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान ही जे.पी. का स्वास्थ्य बिगड़ना शुरु हो गया था। आपातकाल में जेल में बंद रहने के दौरान उनकी तबीयत अचानक 24 अक्टूबर 1976 को खराब हो गई। इसके बाद 12 नवंबर को उनको रिहा किया गया जहां से उन्हें डायग्नोसिस के लिए मुंबई के जसलोक अस्पताल में ले जाया गया। वहां पता चला कि ने किडनी संबंधित परेशानी है जिसके बाद वह डायलिसिस पर ही रहे। 8 अक्टूबर 1979 को पटना में 77 वर्ष की अवस्था में डायबिटीज और हृदय रोग के कारण उनका निधन हो गया।

वर्तमान समय में जे.पी. के सिद्धांतों की प्रासंगिकता

जयप्रकाश नारायण का नाम देश के ऐसे शख्स के रूप में उभरता है जिन्होंने अपने विचारों, दर्शन और व्यक्तित्व से देश की दिशा तय की थी। जयप्रकाश नारायण ने जो विचार और सिद्धांत समाज के सामने पेश किए वह आज भी देश के लिए प्रासंगिक और युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। आजादी और देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के बाद महात्मा गांधी की परंपरा को आगे ले जाने में जे.पी. सबसे महत्वपूर्ण है।
आजादी के बाद में पहले आम चुनाव के बाद से ही जे.पी. यह मानने लगे थे कि राजसत्ता चाहे जिस रूप में हो वह कल्याणकारी नहीं हो सकती। उनका कहना था कि उसमें जनता की भागीदारी का प्रभाव नहीं होता है। अपने इन्हीं विचारों का अनुसरण करते हुए जब उन्होंने देखा कि राजसत्ता आक्रमक तानाशाह की तरह काम करने लगी है जिसमें लोकतंत्र सिर्फ वोट भर है, तो वह उठ खड़े हुए और उसे उखाड़ फेंकने में भी सफल हुए। महात्मा गांधी भी उनके विचारों से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की थी कि समाजवाद के बारे में जयप्रकाश से बेहतर देश में और कोई नहीं जानता।
संपूर्ण क्रांति ने जे.पी. को लोकनायक बना दिया था। उन्हें यह नाम ऐसे ही नहीं मिला। आजादी की लड़ाई और उसके बाद भी वो लगातार आम लोगों के हितों की बात करते थे। हर तरह की राजनीतिक लोभ की विकृति से दूर रहकर जयप्रकाश नारायण ने खुद को एक ऐसे शख्स के रूप में पेश किया जिसका एकमात्र उद्देश्य जनकल्याण था।
वह अहिंसक सत्याग्रही के साथ ही ऐसे व्यावहारिक विचारक थे जो समाजवादी संकल्पों के जरिए देश में आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहते थे। आजादी के बाद भी जे.पी. का व्यक्तित्व लगातार उभरता गया। गांधी जी के निधन के बाद उन्होंने अपने आप को अधिक उत्तरदाई व्यक्ति के रूप में ढाला। इस रूप में उन्होंने देश को अपने समाजवादी विचारों के अनुकूल बनाने की कोशिश की।
50 के दशक में उनकी आई किताब “भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना: एक सुझाव” में आज के जमाने में हमारे लिए सबसे उपयुक्त राज्य पद्धति और राज्य शासन व्यवस्था के स्वरूप को स्पष्ट करता है।

आदर्श

जे.पी. राज्य के समतामूलक आदर्श को उन प्रजातांत्रिक मानकों में देखते हैं जिन पर सत्ता का नहीं जनता का अधिकार होता है। जवाहरलाल नेहरू की नीतियों से असहमति के कारण ही उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। सत्ता को अपने स्वभाव के विपरीत मानकर ही उससे दूरी बनाई। वह सही मायने में गांधीजी के उस उत्तराधिकार को मानते थे जिसमें बिना किसी स्वार्थ के सेवाभाव प्रमुख था।
यही वजह है कि 1937 में जब सर्वसम्मति से उन्हें देश के राष्ट्रपति पद पर बैठाने की बात आई तो उन्होंने इनकार कर दिया। इस इंकार के जरिए जो उन्होंने आदर्श पेश किया उसकी मिसाल खोजना मुश्किल है। जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति दर्शन उनके अंग्रेजी में प्रकाशित दो निबंधों 1959 में “ए प्ली फॉर रिकंस्ट्रक्शन ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स” और 1961 के “स्वराज फॉर द पीपल” में दिखाई देता है। इसके आधार पर उन्होंने एक समग्र विचार देने की कोशिश की और अपने कर्मों से उसे चरितार्थ भी किया।
संपूर्ण क्रांति का दर्शन आज पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रासंगिक है। भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति के इस युग में यदि हम एक राष्ट्र के रूप में अपने को सही अर्थों में पाना चाहते हैं तो इस दर्शन का दूसरा विकल्प नहीं है।

पुरस्कार/ सम्मान
लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसा व्यक्तित्व किसी तरह की पुरस्कार का मोहताज नहीं है। देश सेवा में उन्होंने अपना समस्त जीवन दे दिया। इन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार प्राप्त हुए।
वर्ष 1965 में लोकसेवा के लिए उन्हें रमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित किया गया।
वर्ष 1999 में मरणोपरांत भारत सरकार द्वारा देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न द्वारा सम्मानित किया गया।
महाकवि दिनकर की बातें बिल्कुल ही सही निकलीं,
जयप्रकाश ने स्वदेश की आशा को नई दिशा दे दी।
है जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास आदर देता है,
बढ़कर आगे पदचिन्हों की छाप स्वर्णांकित कर देता है।
कहते हैं उसको ‘जयप्रकाश’ जो नहीं मरण से डरता है,
ज्वाला को बुझते देख कुंड में स्वयं कूद जो पड़ता है।


डॉ. श्वेता सिन्हा,
आयोवा, अमेरिका

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