शहीद भगत सिंह
“गुलामी की तोड़ने जंजीर
फैला रहे पंछी अब पंख
हुकुमरान सजग हो जाओ
बजा रहे विश्व भारती अब विजय शंख”
-वंदना खुराना
इन पंक्तियों से मैं चित्रण करती हूँ उस दौर का, जब हमारे वीर क्रांतिकारियों ने माँ भारती को अंग्रेजी शासनकालों से मुक्त कराया होगा। कुछ इसी तरह का विजय घोष किया होगा देश और विदेश में बसे लाखों करोड़ों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने, जिनके फलस्वरूप सैकड़ों वर्ष पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा हुआ भारत सन 1947 में आजाद हुआ। स्वतंत्रता का सेहरा लाखों लोगों के त्याग और बलिदान के तप स्वरूप ही संभव हो पाया जिसमे देश-विदेश और समाज के हर तबके के लोगों ने हिस्सा लिया। इन्हीं के फलस्वरूप स्वतंत्रता का महा पान हुआ। स्वतंत्र भारत का हर एक व्यक्ति आज उन महापुरुषों और वीरों का ऋणी है जिन्होंने अपना सर्वस्व देश की आजादी के लिए समर्पित किया।
भारत की स्वतंत्रता एक महान ऐतिहासिक घटना है और अन्य राष्ट्रमंडल देशों के स्वतंत्रता संग्राम से इसकी प्रकृति भिन्न है। यह मुख्यता एक अहिंसक लड़ाई थी और इसका नेतृत्व विभिन्न स्तरों पर किया गया।कुछ संग्राम भारत से बाहर विदेशों में भी उभरे। इस महासंग्राम को फलीभूत करने के लिए समाज के एक विस्तृत संगठनों और प्रमुख व्यक्तियों के विभिन्न तरीकों के उपयोग तथा अनथक प्रयास थे।
उपनिवेशवाद के खिलाफ विदेशों में प्रवासी भारतीयों ने भी उत्साह एवं साहस से क्रांतिकारी कदम उठाए थे। ब्रिटेन में इंडियन लीग, इंडियन वर्कर एसोसिएशन, गदर पार्टी तथा लेबर पार्टी के अभियान ने स्वतंत्रता हासिल करने में प्रमुख भूमिका निभाई।
प्रधानमंत्री एटले ने अपने एक भाषण में भारतीय स्वतंत्रता के विषय में कहां था “कि यह उस घटना चक्र की लंबी श्रृंखला का चरम बिंदु है। मार्ले मिंटो, माउंट फोर्ट ,साइमन आयोग की रिपोर्ट, गोलमेज कांफ्रेंस, 1935 का भारत सरकार अधिनियम, क्रिप्स शिष्टमंडल तथा मंत्रिमंडलीय शिष्टमंडल यह सभी उस मार्ग के चरण हैं जिसका अंत भारत को स्वतंत्रता देने का सुझाव है। “
विदेश में रहते हुए प्रवासियों में भी देश भक्ति निरंतर प्रवाहित होती रही। पराधीनता का भाव जिनके मन को प्रतिक्षण कचोटता रहा आज हम उन्हीं प्रवासी भारतीय सेनानियों को स्मरण कर रहे हैं मातृभूमि आज भी उनके प्रति श्रद्धा पूर्वक अपनी कृतज्ञता प्रकट करती है।
आज अपने आलेख में मैं अपनी कलम से जिनको नमन करती हूँ वह है भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह जी।भगत सिंह जी का जन्म 28 सितंबर 1907 में गांव भंग लालपुर ( पाकिस्तान )में हुआ । उनका जन्म एक सिख किसान परिवार में हुआ पिताजी का नाम सरदार किशन सिंह और माता जी का नाम विद्यावती कौर था ।
एक निजी संस्मरण साझा करते हुए मैं गौरवान्वित महसूस करती हूँ कि अपने स्कूल के एक कार्यक्रम में मुझे भगत सिंह जी की माता जी और उनकी बहन के हाथों एक पुरस्कार पाने का सौभाग्य मिला।
अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 के जलियांवाला बाग के निर्मम हत्याकांड का भगत सिंह जी की सोच पर गहरा प्रभाव पड़ा ।उस समय भगत सिंह जी करीब 12 वर्ष के थे जब इस घटना की उनको सूचना मिली तो वह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर ही जलियांवाला बाग पहुँच गए।कहा जाता है कि आठ वर्ष की छोटी आयु से ही वे भारत की आज़ादी के बारे में सोचने लगे थे।भगत सिंह जी अपने बचपन में हमेशा बंदूकों के बारे में ही बात करते थे अभी इसी तरह का खेल रचते थे जिसमें अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के बारे में बोला जाता था। खेतों में भी बंदूकें उगाना चाहते थे जिसके इस्तेमाल से वे अंग्रेजों से लड़ सकें।एक तथ्य के अनुसार जलियांवाला बाग की घटना के उपरांत उन्होंने वहाँ से खून से गीली मिट्टी को एक बोतल में इकट्ठा कर अपने लिए एक आदर्श बना लिया था कि वह इसका बदला जरूर लेंगे। कॉलेज में वह एक महान अभिनेता भी थे और राणा प्रताप और भारत दुर्दशा जैसे नाटकों में कई भूमिकाएं निभाई।
बचपन में अपने चाचा अजीत सिंह और श्वान सिंह जी की आजादी में अपने सहयोग दे रहे थे। करतार सिंह सराभा द्वारा निर्मित गदर पार्टी के सदस्य थे भगत सिंह पर उनकी बातों का गहरा प्रभाव पड़ा और वो बचपन से ही अंग्रेजों से घृणा करते थे।बचपन में इस दौर में भी भगत सिंह जी गहरा चिंतन करते थे एक तरफ अपने चाचा अजीत सिंह जी क्रांतिकारी किताबें पढ़कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है या नहीं और दूसरी तरफ गांधीजी की अहिंसक नीति पर भी गहरा अध्ययन करते थे।गाँधीजी का असहयोग आंदोलन के बाद वे गांधीजी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रांतिकारियों के हिंसक आंदोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे।
असहयोग गाँधीजी की आन्दोलन में बहुत सक्रिय भाग ले रहे थे परन्तु”चोरी चोर” हत्याकांड के बाद 1922 में जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को रोक दिया तो उनका अहिंसा से विश्वास कमजोर हो गया और उनके मन में ये भाव प्रबल हुआ कि शस्त्र क्रांति ही स्वतंत्रता दिलाने में सहायक होगी। इस घटना से उन्होंने गांधीजी के अहिंसात्मक अंदोलन को छोड़कर देश की स्वतंत्रता के लिए हिंसात्मक क्रांति का मार्ग अपनाना उचित समझा उन्होंने काफी आंदोलनों और जुलूसों में भाग लेना आरंभ किया जो कि क्रांतिकारी दलों के गठन से था उनके दल के प्रमुख क्रांतिकारियों में चंद्रशेखर आजाद सुखदेव राजगुरु इत्यादि थेI इसके बाद उन्होंने चंद्रशेखर आजाद जी द्वारा गठित गदर दल को अपना लिया।
देश में कई प्रकार के विस्तृत आंदोलन हो रहे थे एक तरफ गांधीजी का अहिंसात्मक और एक तरफ गर्म दल और गदर का हिंसात्मक का प्रदर्शन। 1927 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए भयानक प्रदर्शन हुए साइमन वापस लौट जाओ के नारों से देश भर में आंदोलन किए गए इन प्रदर्शनी में भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठीचार्ज भी किया । इसी लाठीचार्ज के आहत होकर लाला लाजपत राय जी की मृत्यु हो गई इस घटना से भगत सिंह काफी रोष में आए और एक गुप्त योजना के तहत उन्होंने पुलिस सुप्रीटेंडेंट स्क्वाड को मारने की योजना बनाई ।इस योजना में भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे और उधर जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गए जैसे कि वो खराब हो गई हो गोपाल जी का इशारा मिलने पर दोनों को सचेत होकर चंद्रशेखर आज़ाद जी के साथ सुपरिटेंडेंट स्क्वाट को मारने की योजना थी लेकिन दुर्भाग्यवश करीब 4:15 बजे एएसपी सौंडर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधे उनके सिर पर मारी जिससे वह पहले ही मर जाता लेकिन तुरंत बाद भगत सिंह जी ने भी तीन चार गोलियां दाग कर उसके मरने का पूरा इंतजाम कर दिया। इस तरह इन दोनों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया। इस तरह भगत सिंह जी ने अपने आदरणीय लाला लाजपत राय जी की हत्या का बदला ले लिया।भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे लेकिन वह देश में गदर दल द्वारा सशस्त्र क्रांति के तहत रामप्रसाद बिस्मिल तथा अन्य क्रांतिकारियों ने काकोरी कांड मैं अंग्रेजों को मात दे इसके तहत रामप्रसाद बिस्मिल तथा चार अन्य क्रांतिकारियों को फांसी होने पर भगत सिंह को काफी दुख हुआ और चंद्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन से जुड़ गए और उससे एक नई पहचान हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन के नाम दिया। इस संगठन का एकमात्र उद्देश्य सेवा त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवकों को तैयार करना था। दिसंबर 1927 में लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज जेपी सांडर्स को राजगुरु के साथ मिलकर भगत सिंह जी ने गोली मारी।काकोरी कांड के बाद अंग्रेजों ने हिंदुस्तान रिपब्लिक असोसिएशन के क्रांतिकारियों की धरपकड़ तेज कर दी। जगह जगह पर अपने एजेंट बहाल किए इनसे छुपकर भगत सिंह और सुखदेव लाहौर पहुँच गए वहाँ पर उनके चाचा सरदार किशन सिंह ने उनके लिए एक खटाल खोला वे दूध की बेचने का कारोबार करने लगे। भगत सिंह की शादी कराना चाहते थे और एक बार लड़की वालो कूलर भी पहुँच गए। वीर भगत सिंह को फ़िल्में देखना और रसगुल्ले खाना काफी पसंद था ।बाजू और अब उसकी यशपाल के साथ जब भी मौका मिलता फ़िल्म देखते। इस पर चंद्रशेखर आजाद उनसे कभी गुस्सा भी हो जाते थे।
यद्यपि भगत सिंह रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परंतु वे वामपंथी विचारधारा को मानते थे। वे कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान थे और उसी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे थे। मजदूर विरोधी नीतियों से वे बहुत रुष्ट थे और साथ में ही भारतीय उद्योगपतियों से जो कि अपने मजदूरओं के विरोधी नीतियों का समर्थन करते थे। इन नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देने का उनके दल ने फैसला किया।एक योजना बनाई गई कि दिल्ली के केंद्रीय असेम्बली हॉल में बम फेंककर अंग्रेजों को चेतावनी दी जा सके कि हिंदुस्तान के युवा अब जान चूके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश और असमर्थन है। अपनी योजना के अनुसार निर्धारित 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेम्बली में भगत सिंह तथा बटुकेश्वरदत्त जी का नाम चुना गया। उन्होंने ही बम फेंका। बम के फेंकने से हाल पूरा धुएं से भर गया और भगत सिंह चाहते तो भाग सकते थे लेकिन उन्होंने पहले से ही निर्णय किया था कि वह समर्पण करेंगे और पुलिस के गिरफ्तार होते समय दोनों इंकलाब जिंदाबाद साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का नारा लगाते हुए अपने आपको पुलिस के हवाले किया ।जेल में करीब भगत सिंह जी 2 साल रहे और उस समय उन्होंने अपनी लेख लिखकर क्रांतिकारी विचार व्यक्त किए। निज जीवन की एक छटा एकादश वर्षीय क्रान्तिकारी जीवन सिंधु से प्रकाशित बिस्मल की आत्मकथा का प्रथम पृष्ठ ये पुस्तक भगत सिंह को लाहौर जेल में भेजी गई ।उन्होंने अपने एक अंग्रेजी में भी लेख लिखा जिसका शीर्षक था ‘मैं नास्तिक की हूँ’ ये लेख उन्होंने पूंजीपतियों के लिए लिखा था ।भगत सिंह जी का कहना था कि चाहे वह पूँजीपति भारतीय ही क्यों न हो वे उनके शत्रु है जो कि मज़दूरों का हक नहीं देते। भगत सिंह व उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की थी जेल की नीतियों के खिलाफ़ जिसमें कि उनके एक साथी जितेंद्र दास के भूख हड़ताल के दौरान प्राण भी चले गए।
विस्फोटक पदार्थ अधिनियम के तहत भगत सिंह को 26 अगस्त 1930 फांसी की सजा सुनाई ।इसके साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई।इसके बाद यह तय होता है कि भगत सिंह के समर्थन में कोई आंदोलन न हो इसलिए अंग्रेजी सरकार ने पहले ही अपना इंतजाम कर लिया ।इस सजा के तत्कालीन बाद ही कांग्रेस अध्यक्ष पंडित मदनमोहन मालवीय ने वाइसरॉय से माफी के लिए एक अपील दायर की और अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ़ करने के लिए अपील की लेकिन ये अपील भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ़ ही हो रहा था क्योकि उन्हें नहीं पसंद था कि उनके लिए सजा माफ़ की जाए ।
23 मार्च को 1931 शाम 7:33 पर भगत सिंह और उनके दोनों साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दी गई। इससे पूर्व लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और अपनी अंतिम इच्छा के रूप में भी उन्होंने उसको पढ़ने का ही समय मांगा और कहाँ “ठहरें पहले एक क्रान्तिकारी को दूसरे से मिल तो लेने दीजिए” फांसी के समय भी वह तीनों मस्ती से यही गा रहे थे मेरा रंग दे बसंती ……
कहा जाता है कि फांसी के बाद इस डर से कि कहीं जन आंदोलन न भड़क जाए , अंग्रेजी सरकार ने पहले उनके मृत शरीर के टुकड़े किए फिर उन्हें बोरियो में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गए ये सब बहुत ही खुफिया ढंग से किया जा रहा था। फिरोजपुर की बहरी गांव में उन्होंने मिट्टी का तेल डालकर उन शवों को जलाने की कोशिश की लेकिन गांव वालों ने आग को देखकर जब वहाँ पहुंचें तो अंग्रेजी सरकार डर कर अर्धजली टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंककर भागे। फिर गांव वालों ने इन सभी टुकड़ों को एकत्रित कर कर विधिवत दाह संस्कार किया और भगत सिंह हमेशा के लिए अमर हो गए ।
जब हम भगत सिंह के व्यक्तित्व पर नजर डालते हैं तो हम उनके बारे में उनकी लेखो से उनकी विचारधारा का अनुमान लगा सकते हैं उन्होंने भारतीय समाज मैं जाति और धर्म के कारण आई दूरियों पर बहुत दुख व्यक्त किया था। इतनी छोटी आयु में भी उनके लिखित विचार अंग्रेजों द्वारा किए गए अत्याचार और कमजोर वर्ग, मजदूर वर्ग पर हुए अत्याचार को बहुत संवेदनशीलता से महसूस किया और प्रकट किया उनका ये एक दृढ़ विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जाएगी जो कि उनके जिंदा रहने से शायद ही हो पाए। फांसी से पहले 3 मार्च को उन्होंने अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में लिखा था-
“ उन्हें ये फ़िक्र है हरदम नई तर्ज़ ए जफ़ा क्या है
मैं ही शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
देर से क्यों खफा रहें चर्ख का क्या गिला करें
सारे जहा अधूरे से ही आओ मुकाबला करें “
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का आप अनुमान लगा सकते हैं जब चंद्रशेखर आजाद से पहली बार उनकी मुलाकात हुई थी तो उन्होंने उनका साथ निभाने के लिए जो कसम खाई थी वो जलती हुई मोमबत्ती पर हाथ रखकर खाई थी कि उनकी जिंदगी देश पर ही कुर्बान होगी और ये कसम उन्होंने अपनी फांसी और शहादत से पूरी की।
“ किसी ने सच कहा है सुधार बूढ़े आदमी नहीं कर सकते वे तो बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते हैं सुधार तो होते हैं युवकों के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से जिन्हें डरना नही आता जो विचार कम और अनुभव अधिक करते हैं” ये भगत सिंह जी की पंक्तियाँ हैं ।सिर्फ 23 साल के एक युवक से इतनी ताकतवर हुकूमत भयभीत हो गई तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि क्या गरिमा और क्या प्रभाव रहा होगा इस नवयुवक का इतनी बड़ी हुकूमत का जिसके बारे में कहा जाता है कि उनके शासन में सूर्य कभी अस्त नहीं होता लेकिन वे यह शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य भी एक नवयुवक के विचारों के सामने घबरा गई और उसके पांव तले से जमीन खिसक गई ।राम प्रसाद बिस्मिल जी की इन पंक्तियों के साथ मैं भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करते हुए अपनी भावनाओं और लेखनी को विराम देती हूँ।
तराना-ए-बिस्मिल (राम प्रसाद बिस्मिल)
बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से,
लटकते आए अक्सर पैकरे-ईसार फांसी से।
लबे-दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी,
तमन्ना थी कि करता मैं लिपटकर प्यार फांसी से।
खुली है मुझको लेने के लिए आग़ोशे आज़ादी,
ख़ुशी है, हो गया महबूब का दीदार फांसी से।
कभी ओ बेख़बर तहरीके़-आज़ादी भी रुकती है?
बढ़ा करती है उसकी तेज़ी-ए-रफ़्तार फांसी से।
यहां तक सरफ़रोशाने-वतन बढ़ जाएंगे क़ातिल,
कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे दो-चार फांसी से।
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जय हिन्द जय हिन्द
वंदना खुराना
ब्रिटेन