महामहिम अब्दुल कलाम— सपनों का सौदागर!
देश की स्वतंत्रयोत्तर समुन्नति की, विज्ञान के क्षेत्र के महानायक श्री अबुल पकीर जैनलुब्दीन अब्दुल कलाम साहब का नाम तक लेते हुए जबान लड़खड़ाती है और महानता देख गर्दन ऊँची हो जाती है। हिंदू पौराणिक कथाओं में स्वर्गाधिपति इंद्र की कथाएँ प्रसिद्ध है। इंद्र ऐसा पद है जो उसी को मिलता है जिसने किसी क्षेत्र में दक्षता की सीमाएँ पार कर ली हो। उन्हें मिसाइल टेक्नॉलजी का “इंद्र” ही कहा जा सकता है। सिर्फ़ यही नहीं ऐसे ऊँचे चरित्र का उदार, महिमावान व्यक्ति कि देश उन्हें राष्ट्रपति बनाकर स्वयं गौरवान्वित हुआ और पद्म भूषण, विभूषण, भारत रत्न आदि देकर भी संतुष्ट न हुआ। भारत आज अगर विश्व के समस्त राष्ट्रों के मध्य अपनी वैज्ञानिक प्रगति और शक्ति का बेधड़क एलान करता है तो उनकी वजह से। आज देश का बच्चा-बच्चा उनसे प्रेरित होता है तो उसका कारण है उनकी सच्चरित्रता, उनकी विनम्रता और उदारता। वे उन्नीसवाँ पुराण बन गये हैं जिनकी गाथा हमारी चारण संस्कृति की आनेवाली पीढ़ियाँ गाते हुए नहीं थकेंगी।
वे कौन सी बातें थी कि हमारी स-ओ-जमीन में एक ऐसा महान व्यक्ति इसकी मिट्टी में पनपा और वे कौन से तत्व थे जो उन्हें महान बना गए? कुछ बीज तो बचपन में पड़ें और कुछ उन्होंने अपनाया, विकसित किया।
जन्म हुआ रामेश्वरम में 15 अक्टूबर 1931 मध्यमवर्गीय तमिलभाषी परिवार में। मस्जिद की गली में एक पुश्तैनी मकान, हिंदुओं और मुसलमानों का मिला जुला शांतिपूर्ण मोहल्ला। परिवार बड़ा था,कई भाई बहन थे। पिता कश्तियों की मरम्मतादि का काम करते थे। बड़े आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। घर से दस मिनट की दूरी पर रामेश्वरम का प्रसिद्ध शिव मंदिर था। मुख्य पुरोहित श्री पक्षी लक्ष्मण शास्त्री और पिता में गहन रूहानी चर्चाएँ होतीं थीं। अपनी अपनी रिवायती लिबास में दोनों आध्यात्मिकता में डूबे मिलते थे। हर शाम मस्जिद में कलाम पिता के साथ नमाज़ पढ़ने जाते और थोड़े बड़े होने पर बहनोई जलालुद्दीन के साथ टहलते हुए शाम को मंदिर की परिक्रमा भी होती। परमात्मा के सभी रूपों को प्रेमपूर्वक स्वीकारने की सोच इनमें सहज थी। रात सोने के पहले माँ और नानी-दादी रामायण और हज़रत साहब के जीवन की कहानियाँ सुनातीं। उत्सवों में देव प्रतिमाएँ इनकी नावों में रमतीर्थ ताल में स्थित पूजा स्थल तक पहुँचाई जातीं।रामनाथ शास्त्री, अरविंद और शिवप्रकाश इनके बचपन के साथी थे। जिनमें से एक आगे चलकर रामेश्वरम मंदिर का प्रधान पुरोहित बना, एक कोंट्रैक्टर और एक ने ट्रांसपोर्ट एजेंसियां खोल ली।
भावनात्मक तौर पर और धन की दृष्टि से भी उनका माहौल बहुत गरीब न था। माँ ने जग के साथ अच्छाई और दया भाव के बीज डाले। पिता ने अनुशासन और सच्चरित्रता पर ज़ोर दिया। उनसे होनेवाले रूहानी बात-चीत में पिता की बातें उनका आजीवन मार्गदर्शन करती रहीं। बड़ों से बैठकर की गई बातें समय की बर्बादी न थीं।
यह विश्वास पिता से ही मिला -“इंसान को तक़दीर के भय से संक्रमित भविष्य दृष्टि और उस दूर दृष्टि में अंतर करना सीखना चाहिये जो हमारे सम्पूर्ण विकास में बाधा डालने वाले शत्रु को ढूँढ निकालने में मदद करती है जो हमारे ही अंदर छिपा है।”
लगता है तभी कलाम ने अपने अंदर छिपे हर शत्रु से लोहा लेने की ठान ली और उनका चरित्र कई टुकड़ों से बने टाट की नाईं न होकर इस देश के लहराते तिरंगे का मजबूत गौरवमय वस्त्र सा बन गया।
समुद्र में उठी तेज आँधी में एक बार पिता द्वारा निर्मित लकड़ी की बढ़िया कश्ती नष्ट हो गई। कलाम ने समुद्र की ताक़त का भयंकर रूप देखा। अब घर के खर्च में हाथ बँटाने हेतु कलाम अपने चचेरे भाई का अख़बार बेचने में हाथ बँटाने लगे। द्वितीय विश्वयुद्ध के कारणों से ट्रेन अब रमेश्वरम में नहीं रुकती थी और अख़बार धनुष्कोटि जाते हुए ट्रेन से रामेश्वरम रोड पर बंडल पर बंडल फेंक दिए जाते जिन्हें उठाने, बाँटने का काम कलाम ने खुद पर लिया। इस काम से पैसा तो मिलता था साथ ही बिना ख़रीदे सारा अख़बार भी पढ़ा जा सकता था। दिन भर इमली की गुठलियाँ जमा करके एक आने में बेचना भी आमदनी का ज़रिया बन गया।आठ साल की उमर में आत्म विकास के प्रति इतनी प्रतिबद्धता और इतना संकल्प!!पिता ने सिखाया था-मुश्किलें आफ़त को परखने का मौक़ा देती हैं।
आपा जोहरा के पति जलालुद्दीन, भले उनसे 16 साल बड़े थे से उनकी गहरी मोहब्बत थी। ज़्यादा पढ़े लिखे न होने पर भी उनके बीच की चर्चाएँ साहित्य, अविष्कार आदि बुद्धि को परिष्कृत करनेवाली व सोच को विशाल करने वाली बातों पर होती थीं। यहाँ तक कि वे कहते थे कि स्कूली शिक्षा के न होने पर भी उनके चचेरे भाई शम्सुद्दीन और जलालुद्दीन की सोहबत में बिना शब्दों के आदान-प्रदान के ही उनकी सहज बुद्धि या अंतरबुद्धि विकसित हुई और जो बाद में चलकर उनकी विज्ञान सम्बंधी रचनात्मकता में प्रकट हुई। यह सोचने की बात है कि हर जगह अगर रवैया सही हो तो इंसान बहुत कुछ सीखता है जो उसकी ज़िंदगी में बाद में काम आता है। बाद में सेवानिवृत्त होकर उन्होंने शिक्षा का कार्य अपनाया जिसमें अक्सर उन्होंने कल्पनाशीलता पर ज़ोर देकर कहा कि कल्पना में बहुत ताक़त है जो आपको बहुत दूर ले जा सकती है।
आगे की स्कूली शिक्षा हेतु श्वार्ट्स स्कूल रामनाथपुरम जाना पड़ा और शिक्षक एवं पादरी आइय्या दुराई सालमन को जानने का मौक़ा मिला। उन्होंने शिक्षा दी कि तीन गुणों को अपनायें- ख्वाहिश पक्की हो, ख्वाहिश पर पूरा यक़ीन हो, शिद्दत हो। दोनों का रिश्ता गुरु और शिष्य से आगे का था।
उन्हें वहाँ रामेश्वरम का सुकून और समुद्र बहुत याद आता । माँ के हाथ की पूरनपोली याद आती।समुद्र तट के बगुलों को देख अक्सर खुद भी उड़ान भरने की चाहत होती। पिता कहते थे ‘देखो, ये समुद्री पक्षी कितनी दूर तक उड़ान भर के जाते हैं। तुम्हारी आत्मा भी जहां तक उड़ान भरना चाहे जाओ।’
कलाम को यक़ीन था कि कामयाब होऊंगा अवश्य! शिक्षक सुब्रमणियम जी अक्सर पक्षी की उड़ान का उदाहरण देकर समझाते थे। कलाम की योग्यता व पात्रता पर उनका विश्वास पक्का था। पत्नी की नापसंदगी और सामाजिक संकीर्णताओं के बावजूद उन्हें घर खाने पर बुलाकर स्वयं परोसते। उनकी इस बात ने ‘जब तुम व्यवस्था को बदलने का निर्णय ले लेते हो तब सामने आती समस्याओं से भी निपटना पड़ेगा’ ने न केवल कलाम को प्रभावित किया बल्कि पत्नी का भी दृष्टिकोण बदल दिया।
एक दिन रामकृष्ण ऐयर की गणित की घंटी में कलाम ग़लत कक्षा में घुस गए और बड़ी डाँट खाई-‘कक्षा का अंक नहीं जानते तो गणित क्या पढ़ोगे? साथ ही बेंत भी लगी। बाद के वर्षों में कलाम ने जब गणित में अपनी उच्चता सिद्ध की तो पूरी स्कूल के सामने शिक्षक ने उनकी प्रशंसा की और चुटकी भी ली कि ‘जो मेरे हाथ से बेंत खाता है वह उन्नति ही करता है।’
आगे की पढ़ाई के लिये त्रिच्ची,सेंट जोसेफ जाना था । कलाम की सोच बी एस सी के आगे नहीं गई थी। इतना तो समझ आ गया था कि फिजिक्स मेरे बस की बात नहीं है, इंजीनियरिंग करना है। हवाई जहाज़ के प्रति गहन आकर्षण था। उड़ान की बात ज़ेहन में हमेशा थी। “इल्म आज़ादी का हक़दार बनाता है इंसान को।”
आगे पढ़ाई के लिये प्रसिद्ध एम आइ टी यानी मद्रास इन्स्टिटूट ओफ़ टेक्नॉलजी में दाख़िला लेना था। एरोनोटिकल इंजिनीरिंग के विशिष्ट शाखा की पढ़ाई थी। दाख़िले के हज़ार रुपए ने प्रश्न खड़ा किया। आपा जोहरा ने सोने के कड़े बेचकर पैसों का इंतज़ाम किया। इस कृतज्ञता ने प्रेरित किया कि अवश्य पैसे कमाने हैं। यहाँ के तीन प्राचार्यों ने बहुत प्रभावित किया। प्रोफ़ेसर सानडर्ज़, प्रो.पांडले, प्रो. नरसिंह राव। सॉंनडर्स ने सिखाया कि इंसान का रवैया ठीक हो और मन में प्रेरणा हो तो भीतर ताक़त भर जाती है! उनकी टीम को अंत में प्रोफेसर साहब से एक लो लेवल अटैक एर्क्रैफ़्ट बनाने की ज़िम्मेदारी मिली किंतु उनकी प्रगति को लेकर प्रोफ़ेसर साहब सिर्फ़ असंतुष्ट ही नहीं थे बल्कि उनकी डिज़ाइन को बहुत कमस्तरीय घोषित करते हुए उन्होंने चेतावनी दे दी कि अगर तीन दिनों में डिज़ाइन तैयार न हुआ तो उनकी छात्रवृत्ति रोक दी जाएगी। वाक़ई भोजन तक न लेते हुए कलाम साहब इस तरह जुटे कि तीसरे दिन श्रीनिवास जी टेनिस खेलकर लौटते हुए उनके कमरे में जब आए तो डिज़ाइन को देखकर उन्हें गले लगा लिया। शिक्षक की उम्मीद से कहीं उम्दा थी डिज़ाइन! इसी बीच कालेज के तमिल संगम में उन्होंने एक रोचक लेख तमिल में लिखा और श्री देवन, तमिल के प्रसिद्ध लेखक के हाथों पुरस्कार भी जीता। विषय मज़ेदार था ‘चलो हम अपना हवाई जहाज़ बनाएँ!’
पढ़ाई के बाद प्रशिक्षण HAL या हिंदुस्तान एरोनोटिकल में हुआ और वे वहाँ से बतौर एरनॉटिकल इंजीनियर बनकर निकले।वहाँ मिली ट्रेनिंग के मर्मस्पर्शी क़िस्से हैं। ट्रेनिंग के बाद नौकरी के लिये लगभग एक ही समय दो जगहों से साक्षात्कार का बुलावा आया-एक रक्षा मंत्रालय के डिरेक्टरट में वायु शाखा से, दूसरा वायुसेना से । इच्छा तो उड़ान से ही जुड़ी थी। दिल्ली और देहरादून की यात्रा दक्षिण से करनी पड़ी। राह में हर कुछ मीलों में बदलती संस्कृति से भारत की विविधता से परिचय हुआ। देहरादून में साक्षात्कार में नवें स्थान पर होने के कारण नौकरी न मिली। मन उदास हो गया। वे ऋषिकेश में गंगा किनारे हृदय का संताप घोलने गए और वहाँ स्वामी शिवानंद से भेंट हुई। उनकी बच्चों जैसी मुस्कान,कृपाशीलता और तीक्ष्ण दृष्टि ने जैसे उन्हें खींच लिया। उन्होंने ढाढ़स बँधाते हुए समझाया कि उनकी दिली ख्वाहिश अवश्य पूरी होगी क्योंकि ऐसी पावन और तीव्र ख़्वाहिशों में एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक ऊर्जा होती है जो रात को सोते समय व्योम में ईश्वरीय सत्ता से मिलकर पुनः सच होने के लिये लौटती है। बात मन में ठहर गई। आध्यात्म और विज्ञान का कलाम अद्भुत सामंजस्य थे और यही उनकी अंदरूनी शक्ति की कुंजी थी।
तभी खबर मिली कि उन्हें डिफ़ेंस में बतौर सीनियर साइंटिफिक असिस्टेन्ट चुन लिया गया है। तनख़्वाह प्रतिमाह 250 रुपए। 1958 का वर्ष था, वे द्वन्द मुक्त हो चुके थे और स्वामीजी के कहे अनुसार उन्होंने दैवी इच्छा को स्वीकार किया। इस दौरान इन्होंने सुपरसाॅनिक टार्गेट एयरक्राफ़्ट की डिज़ाइन बनाई जो प्रशंसित हुआ। इसके बाद कुछ समय कानपुर में बीता जहाँ Gnat mk1 का परीक्षण चल रहा था।कानपुर में उन्हें काफ़ी अकेलापन महसूस हुआ। बाहर से आए मज़दूरों की यातनापूर्ण ज़िंदगी के किस्से उन्हें प्रभावित कर रहे थे। इसके बाद लौटके कई अन्य डिज़ाइनों जैसे डार्ट टारगेट, वर्टिकल टेक ऑफ, लैंडिंग प्लाट्फ़ोर्म, हॉट कोकपिट आदि पर काम करने के बाद बैंगलोर जाने की तैयारी करनी पड़ी। यहाँ अब तक ए डी ई यानी एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एस्टेब्लिशमेंट खुल चुका था।
इस शहर का व्यक्तित्व उन्हें कानपुर से बिल्कुल अलग लगा। गहरी संवेदनशीलता के साथ वे कहते हैं भारत सदियों की हुकूमत के विभिन्न सियासतों की तहज़ीब को प्रतिबिम्बित करता है।जहाँ कानपुर में तब उन्हें वाजिद अली शाह के संस्कार में रंगी पीढ़ियाँ मिलीं वहीं बैंगलोर में अंग्रेज़ी हुकूमत के साहिबों की कुत्ता घुमानेवाली संस्कृति! दुःख था कि हम अपनी संस्कृति की अद्भुत ताक़त से नाता नहीं जोड़ पा रहे हैं। उनका हृदय इन कमजोर नक़ली परतों के नीचे छिपी गहनता को ढूँढ रहा था जो रामेश्वरम के सुकून भरे वातावरण में था। उन्हें लगा कि भारतीयों के हृदय और बुद्धि का रिश्ता इन सतही, नक़ली तहज़ीबों की भीड़ में खो गया है! यहाँ वे, हमने हुकुमरानों से, सही बात को ताक में रखकर नक़ली नम्रता के नाम पर झुकने या अस्मिता को अनदेखा करने की जो तहज़ीब सीखी है उसकी भी आलोचना करते है, दुःख जताते हैं।
उनकी अगुआई में चार लोगों की छोटी टीम ने तीन सालों में एक अच्छी डिज़ाइन की हावरक्राफ़्ट बनाई। यह पूरी तरह से देशी थी -मेड़ इन इंडिया! न बहुत अनुभव था न जानकारी ज़्यादा उपलब्ध थी। एक दिन कलाम ने तय किया कि वे इस काम को उपलब्ध ज्ञान के आधार पर ही पूरा करके दिखाएँगे। कुछ महीने प्लानिंग में ड्रायिंग बोर्ड पर बीते फिर हार्डवेर बनाने में सब जुटे। राइट भाइयों की मिसाल दिमाग़ में थी। लेकिन आलोचना भी बहुत सुनने को मिली ख़ासकर कलाम जी को कि कोई अज्ञानी ग्रामीण असम्भव सपनों के पीछे दौड़ रहा है!, तभी तत्कालीन रक्षा मंत्री के के मेनोन ने इस प्रोजेक्ट स्थिति जाँचनी चाही और उन्होंने इस प्रोजेक्ट पर अपनी आस्था जताई। यह युद्धभूमि में उपयोगी एक व्यावहारिक क़िस्म का हावरक्राफ़्ट था। नाम “नंदी” था। किंतु कुछ अंतर्विरोध की वजह से वह प्रोजेक्ट, सफल होने के बावजूद राजनीतिक दांव- पेंच में उलझ कर रह गया और ताक पर रख दिया गया। मेनोन अब सत्ता में न थे। पहली बार अपने जीवन की कठिनतम हालातों से ऊपर उठ सकनेवाले कलाम को जीवन की सीमाएँ कोंचने लगीं। आसमान को छूने में देर थी। पक्षी शास्त्री जी की बात याद आयी- सत्य को खोजो, वही तुम्हें मुक्त कर सकता है। विभ्रम और विमोह से कलाम ने खुद को छुड़ा लिया।
कुछ समय बाद टाटा इन्स्टिटूट ओफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च से श्री एम जी के मेनोन आए और नंदी में दस मिनट की उड़ान के बाद सलाह दी कि वे इंकोसपार- इंडीयन कमिटी फ़ोर स्पेस रिसर्च, जिसमें डॉक्टर. विक्रम साराभाई थे,से आकर साक्षात्कार करें और देखते-देखते कलाम को वहाँ बतौर राकेट इंजिनीयर के पद पर नियुक्त कर लिया गया। मेनोन की स्पष्टता और दूरगामी दृष्टि ने कलाम को सही जगह पर पहुँचा दिया।साक्षात्कार के लिए तैयारी का वक्त ना मिला था पर पक्षी लक्ष्मण शास्त्रीय का सिखाया काम आया-‘ चाहना और नापसंदगी से द्वन्द जन्म लेता है।वही द्वन्द मुक्त है जो मेरी आराधना में अटल है और वह पापों से भी मुक्त है।’
उन्होंने चाहना से मुक्त होकर परिस्थिति को जीतना सीखा और संदेह व तनाव से आज़ाद होकर साक्षात्कार किया। जो भी हुआ वह अपने आप ही हो रहा था। पैनल में तीन लोग थे-साराभाई, सराफ जी और श्री मेनोन। उनका व्यवहार दोस्ताना और बराबरी का था।साराभाई जी के प्रश्न, उनके ज्ञान से नहीं, उनकी सम्भावनाओं को लेकर थे।वे उन्हें एक विराट सपने का जैसे हिस्सा बना रहे थे और कलाम उनके विशाल व्यक्तित्व का हिस्सा बन गये।
उन्हें थुम्बा, केरल में मछुआरों के एक छोटे गाँव में 1962 में रोकेट लॉंचिंग स्टेशन स्थापित करना था काम शुरू हुआ। यह जगह इस महान देश की रोकेट अनुसंधान की नन्ही सी शुरुआत बनी और आगे के महत् करवटों की प्रथम बिंदु। समुद्र और रेलवे लाइन की बीच की ज़मीन में स्थित माता मेरी मगडेलिन का गिरजाघर थुम्बा अंतरिक्ष केंद्र का प्रथम दफ़्तर बना । परिस्थिति सुविधाओं की दृष्टि से हास्यास्पद थी। फिर भी जहां चाह वहाँ राह! तत्कालीन कलेक्टेर माधवन नायर जी ने ज़मीन देश के लिए उपलब्ध कराई। बिशप डेरेरा के आशीर्वचनों के साथ प्रार्थना हाल पहली प्रयोगशाला बनी। बिशप का कमरा उनका दफ़्तर।
उन्हें नासा में छह महीने के प्रशिक्षण हेतु गोड़ार्ड स्पेस स्टेशन में भेजा गया। जाने के पूर्व वे बंधुओं से मिलने पहले रामेश्वरम गए। मस्जिद में शुक्राना अदा करने पिता के साथ गए और तभी उन्हें दैवी शक्ति का प्रवाह पिता की ओर से उनकी ओर बहता महसूस हुआ। वे मानते थे कि प्रार्थना से मनुष्य की चेतना के रचनात्मक स्तर सजीव हो उठती है। सारी छिपी सम्भावनाएँ प्रकट होने लगती हैं। चचेरे भाई और जलालुद्दीन मुंबई तक छोड़ने आए और जलालुद्दीन ने कहा—आज़ाद, हम तुमसे प्यार करते हैं और तुम पर पूरा भरोसा करते हैं। हम तुम पर फ़ख़्र करते हैं।’
प्रेम और प्रेरणा के इन शब्दों को मन में बिठाकर कलाम भींगी आँखों के साथ न्यूयॉर्क विदा हुए। प्रशिक्षण की समाप्ति के बाद 21 नवंबर 1963 को भारत ने पहली रोकेट छोड़ी जिसका नाम था “नैकी अपाची”। इसके बाद प्रथम रोहिणी तैयार हुई, फिर मेनका। इसका फल ये हुआ कि यह देश साउंडिंग रॉकेट टेक्नोलॉजी में प्रवीण होने लगा। इसका श्रेय श्री विक्रम साराभाई को जाता है। कलाम उन्हें विज्ञान का गाँधी मानते थे। इसके बाद रूसी टेक्नॉलॉजी के रेटो की बारी थी। मोटर रुस की पर बाक़ी सब देशी।श्री वी एस नारायणन और अब्दुल कलाम जी को यह काम सौंपा गया। भारत का एक मिसाइल पैनल भी निर्मित हुआ जिसमें आप दोनों को शामिल किया गया।उस समय भारत विदेशी टेक्नॉलॉजी पर निर्भर था और अब्दुल कलाम इस स्थिति को बदलना चाहते थे। जयचंद्र बाबू के दिए गए व्यावहारिक सुझाव उन्होंने साराभाई जी के सामने रखे और तुरंत सहमति मिल गई।सिर्फ़ बीस इंजीनियरों के साथ बारह महीनों में “रेटो” का एक परीक्षण हुआ।अब बड़े रॉकेटों और सैटेलाइट यानी एस एल वी की बारी थी। अब्दुल कलाम को टीम का अगुआ चुना गया।चेन्नई के निकट श्री हरिकोटा का शार लॉंचिंग स्टेशन स्थापित किया गया।रेटो अब कम खर्च में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा बनाया जाने लगा था।कहाँ 33000 और कहाँ 17000!
विभिन्न केंद्रों से कई वैज्ञानिक एस एल वी के भिन्न पुर्ज़े बनाने लगे और इन सबके समन्वय एवं संयोजन का काम प्रोजेक्ट मैनेजर के तौर पर डॉक्टर. अब्दुल कलाम को सौंपा गया। कठिन चुनौती थी।275 इंजीनियरों की ज़रूरत थी मिले सिर्फ़ 50 पर बेहद प्रतिभाशाली।इसके साथ ही डी आर डी ओ में मिसाइल का काम चल रहा था।1978 में पहला परीक्षण तय किया गया।इस बीच जलालुद्दीन की मौत हो गई और कलाम साहब रामेश्वरम पहुँचे। पिता की उम्र 100 से ज़्यादा हो चुकी थी।वे भी 1976 में गुजर गए और कुछ समय बाद ही माता भी चल बसीं।यह उनके लिए उदासी का मौसम था। यहाँ एस एल वी 3 के भी उड़ान के दूसरे चरण में समस्या आ गई और कलाम का दिल बैठ गया। किंतु तरह -तरह की व्यंग्यात्मक टिप्पणियों के बावजूद 18 जुलाई 1980 को वह ऐतिहासिक दिन आया जब कामयाबी हाथ लगी, रोहिणी सैटेलाइट अपनी यात्रा तय करने लगी।1989 में साइक्लोन के डर के बावजूद अग्नि भारत की प्रथम मिसाइल 22 मार्च 1989 में सफलतापूर्वक छोड़ी गई।
अब्दुल कलाम ने तब अपनी डायरी में ये शब्द लिखें-
अग्नि को देखकर ये न सोचो की यह शक्ति का प्रदर्शन है या भयंकर शक्तियों को डराने के लिए है।यह है आग एक भारतीय के हृदय की मिसाइल भी न समझो इसे यह चमकता है क्योंकि यह इस देश का ज्वलंत गौरव है।
1998 में पोखरन परीक्षण में सक्रिय रहे।
आगे कहानी बाक़ी है कलाम की! 2002 से 2007 तक वे इस देश के राष्ट्रपति रहे। उन्हें ‘पीपल्ज़ प्रेसिडेंट’ के नाम से पुकारा गया क्योंकि जनता से उनका एक सक्रिय नाता था।सेवा निवृत्ति के बाद शिक्षक बने। छात्रों को ‘ मैं क्या दे सकता हूँ’ के आंदोलन में भाग लेने को प्रेरित किया। मृत्यु के समय वे आई आई एम शिलांग में छात्रों को सम्बोधित कर रहे थे।
उन्हें वीर सावरकर मेडल,इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता अवार्ड, हूवर अवार्ड, रामानुजन अवार्ड, चार्ल्ज़ टू मेडल आदि अन्य कई सम्मान भी मिले।
ईश्वर से उनकी साझेदारी थी कि वे यथाशक्ति से पचास प्रतिशत ज़्यादा कोशिश करेंगे और बाक़ी दैवी मदद से पूरा होगा।
रामेश्वरम का वह मेहनती लड़का एक सच्चा इंसान था, एक सच्चा हिंदुस्तानी था। हमारी मिली जुली तहज़ीब का एक अद्भुत मिसाल था और उसने प्रगति के कई अविस्मरणीय अध्याय इस देश के इतिहास में जोड़ दिये।
हर माता-पिता, हर छात्र,हर वैज्ञानिक, हर शिक्षक और देश का हर शुभ चिंतक उनके जीवन से प्रेरणा ले सकता है।
राधा जनार्धन
केरल, भारत