भागलपुर मेरी यादों में

भागलपुर मेरी यादों में

गंगा किनारे बसा भागलपुर बिहार का एक साधारण सा शहर पर मेरे लिए बेहद महत्व पूर्ण …..मेरे पापा माँ की शादी भागलपुर में १९५९ जून में हुई थी जब नाना वहाँ मजिस्ट्रेट थे .पापा की पहली नौकरी टी एन बी कोलेज भागलपुर में ही हुई और उनकी पहली संतान यानि मेरा जन्म भी इसी नगर में हुआ .न तो मुझे पापा अम्मा की शादी का पता चला न अपने जन्म का कुछ याद है .पापा अम्मा की सुनी सुनाई बातें कहीं किसी कोने में घुसी पड़ी थी .जब मैं कोलेज में थी तब १९८१ -८२ में एक बार भागलपुर जाना हुआ,[ एक दिन के लिए] अम्मा पटना विश्व विद्यालय शिक्षक आन्दोलन के दौरान वहाँ जेल में थीं ,उनसे मिलकर बस लौट आई थी शहर तो देखने का मौका ही नहीं मिला.वह भी यादगार दिन था ,एक महीने जेठ की गर्मी में अम्मा को टिन की छत वाले बैरेक से निकलकर मुलाकातियों से मिलते देखना कम पीड़ादायक नहीं था . रोते रोते हम तीनो भाई बहनों का बुरा हाल था ……….
लगभग ३० वर्षों बाद मुझे कोलेज के कुछ काम से भागलपुर जाने का मौका मिला. ख़ुशी थी अपने जन्म स्थान को देखने की पर अफ़सोस भी था की मैं पापा के रहते यहाँ नहीं आ सकी . पापा तिलका माझी विश्व विद्यालय के उप कुलपति के पद पर सिर्फ नौ महीने थे और उस दौरान मुझे आने का मौका चाह कर भी नहीं मिल पाया . पापा से बहुत सारी कहानियां इस विश्व विद्यालय की मैं सुन चुकी थी इसलिए उनकी नज़र से मैं इस शहर को देख रही थी .इस बार मैं एन सी टी ई की तरफ से बीस वर्षों से बंद पड़े फुलवरिया प्रिमरी टीचर ट्रेनिंग कोलेज के निरिक्षण में आई थी इसलिए अपने व्यक्तिगत मोह मायाबंधन में आ पड़ कर अपना काम कर रही थी . निरिक्षण की रिपोर्ट के आधार पर ही कोलेज को पुनः शुरू किया जा सकेगा .एक बुजुर्ग ग्रामीण व्यक्ति जो स्कूल में ही शायद रहते होंगे स्कूल के इतिहास को बड़े प्रामाणिकता के साथ बता रहे थे और मैं उनसे तथा प्राचार्य से जितनी जानकारी ले सकती थी ले रही थी .मेरे साथ एक प्रोफ़ेसर उड़ीसा के थे जिन्हें हिंदी बोलने में थोड़ी कठिनाई होती थी इसलिए चलते समय मैंने कहा की ये बाहर से है पर मेरा घर पटना है मैं बिहारी हूँ .उस व्यक्ति ने तपाक से कहा ” पटना के शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव जी यहाँ उप कुलपति थे ……..” मैंने बीच में ही टोक कर कहा “मैं उनकी बेटी हूँ”…….. शायद मेरी वाणी में कुछ गर्व मिल गया था….या फिर पापा की बेटी होने का अभिमान ……..उस व्यक्ति ने शायद अपना नाम अवधेन्द्र दुबे बताया . पापा को बहुत अच्छी तरह जानते थे …..वरुण चौधरी के रिश्तेदार थे और जानते थे की पापा ने चौधरी जी के लिए कितना कुछ किया था ….. टीम के दूसरे सदस्य को उन्होंने कहा ‘ये तने बड़े व्यक्ति की पुत्री हैं इन्हें ऐसे कैसे जाने दें चलिए घर चल कर खाना खाइए …… “किसी अन्य व्यक्ति ने अम्मा यानि वीणा कंठ का नाम लिया ….हमारे परिवार को जानने वाले इस छोटी सी जगह पर भी लोग हैं यह देख कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ .
शाम में ट्रेनिंग कोलेज के प्राचार्य ने अनौपचारिक रूप से कोलेज दिखने के बहाने मिलने को बुलाया .वहाँ मैं एन सी टी ई मेम्बर नहीं बल्कि शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव की सुपुत्री के नाते सबो से परिचित हुई . दस बारह लोग थे सभी विश्व विद्यालय से संलग्न ,सबी पापा की स्मृतियों को संजोये सभी अपने अनुभवों को बांटने को आतुर ……मेरे लिए सचमुच लोमहर्षक क्षण था मैं पापा को अपने आस पास महसूस कर रही थी . उन्हें इस संसार से गए ६ वर्षों से अधिक हो गए पर उनकी चर्चा आज लोग इस तरह मुझसे मिल रहे हैं जैसे मैं उनकी बातें पापा तक पहुंचाने वाली हूँ …….. [
रात में पापा के बेहद आत्मीय शशि चाचा[ जो मेरे पति के भी चाचा हैं ]उनके घर गयी .सुबह से जिन आंसुओं को मैंने रोक रखा था उन के बाँध को अब और रोक पाना कठिन था
बम चाचा यानि शशी चाचा के घर बिजली नहीं थी चांदनी रात थी हम लोग आँगन में ही बैठ गए .बम चाचा के भाई लखी चाचा भी मेरे लिए रुक गए थे .उन्हें कस्बा जाना था ,नहीं गए .
किरण चाची का निधन तीन साल पहले कैंसर से हो चूका है पर घर को सलीके से चाचा ने संभाल रखा है . आँगन में पापा और बस पापा की ही बातें होती रही .पापा यहाँ नियमित
आते थे,किस खाट पर तकिये की टेक लगा कर बैठ ते थे ,कहाँ बैठ कर दादी से बतियाते थे,दादी उनसे समधी का रिश्ता निभाती और सर पर पल्लू रख कर कैसे उनसे बात करती
,कैसे पापा उनका पाँव छूकर उनका सम्मान करते और दादी कहती की इतना बड़ा आदमी मेरे पैर छूता है …….कितनी सारी कहानियां चाचा के पास थी सुनाने को ……. और हर थोड़ी देर पर चाचा कहते ‘तुम तो पापा के रहते आ नहीं पायी वो कहते थे ” सब आये छुनु मुन्नी सपरिवार दिवाली में रह कर गए पर जूही नहीं निकल पाती …….. काश मैं उनके मूक निमंत्रण को समझ पाती ,काश मैं समय को फिर से वापस ले जा पाती ,मैं उन पलों को फिर से जीना चाहती हूँ ,और चाचा से उस व़ी सी बंगले को एक बार देखने की इच्छा भी जाहिर करती हूँ पर संभव नहीं हो पाया क्यों की बीते हुए लम्हों की बस यादें ही शेष रह जाती हैं उन्हें फिर से जीने की चाह में कुछ न कुछ छुट ही जाता है .जैसे पापा जब व़ी सी बने तो उनकी तीव्र इच्छा हुई उस घर को एक बार देखने की जइस घर से उनकी शादी हुई थी ……. बम चाचा ने तुरंत इसकी व्यवस्था की .उस घर में एक बंगाली परिवार रहने लगा था और एक भाग में बैंक था .पापा को कार में ही बिठा कर बम चाचा उस बंगाली परिवार से मिले और उन्हें बताया की व़ी सी साहेब आना चाहते हैं
”हाँ हमें मालूम है उनकी शादी इसी घर से हुई थी आप जरूर उन्हें लेकर आये ” चाचा पापा के साथ जब गए तब अम्मा नहीं थीं .पापा खो गए मधुर स्मृतियों में जब १९५९ में वो दूल्हा बनकर यहाँ आये थे …..ख़ुशी और चमक से भरी उनकी आँखें चाचा को खूब याद हैं …..परएक लम्बे अरसे ,शायद ४५ वर्षों के बाद उनसपनो को , उन पलों को फिर से पापा क्या उतनी ही उश्मता से महसूस कर पाए होंगे ?
पापा जब व़ी सी थे नॉन टीचिंग स्टाफ हड़ताल पर थे और पापा सीधे उनके साथ दरी पर बैठ गए और सारे कर्मचारी इतने शर्मिंदा हुए की तुरंत हड़ताल वापस कर ली और कहा’ सर आप चल कर चम्बर में बैठिये अब हड़ताल नहीं होगी’ ऐसे ही कितनी घटनाएं वहाँ के लोगो की जुबां पर थी . ………….पापा आज भी उनके बीच जीवित हैं उनकी कीर्ति आज भी चारो दिशाओं में फ़ैल रही है. उस ईश्वर को मैं लाख लाख धन्यवाद देती हूँ जिसने मुझे उनके जैसे यशस्वी पिता की शरण में मेरा लालन पालन किया।

डॉ जूही समर्पिता

 

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