दधीचि के देश में
देश युद्धस्तर पर कोरोनावायरस से लड़ रहा है।पूरे देश में आज लगभग सवा दो करोड़ लोग जो अलग-अलग स्तर के संक्रमण से गुजर रहे हैं, हमारी मदद और सकारात्मक पहल की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं, उन्हें इनकी बहुत आवश्यकता भी है। इस बीमारी के बदलते स्वरूप और उससे जूझते रोगियों और उनके परिजनों की विविध तस्वीरें पूरे समाज की संवेदना को हिला कर रख दे रही हैं और इन्हीं तस्वीरों के मध्य कुछ ऐसे रंग भी दिख जा रहे हैं, जो किसी भी सभ्य समाज के संस्कार और मानवीय बोध पर गहरा प्रश्न चिन्ह लगाते हैं।
कोरोनावायरस की दूसरी लहर ने देश को जिस तरह अपना ग्रास बनाया है, इस अव्यवस्था और कष्ट के माहौल में केंद्र और राज्य सरकारें पक्ष- प्रतिपक्ष के द्वारा प्रश्नों के घेरे में है। चाहे वह विभिन्न राज्यों में हाल फिलहाल संपन्न हुए विधानसभा चुनाव हों, कुंभ जैसे धार्मिक उत्सवों का आयोजन हो या प्रदेश विशेष में संपन्न हुआ पंचायत चुनाव-सभी के औचित्य और विधि- व्यवस्था पर आलोचना -समालोचना मुखरित है। प्रशासन या सरकार एक संगठन है और हम नागरिक अपने आप में अलग-अलग एकल इकाई। एक नागरिक के तौर पर प्रशासन पर से नजर हटा कर स्वयं पर डालते हुए मैं यह प्रश्न पूछना चाहती हूं कि आपदा के इस युद्ध में हमारी स्वयं की भूमिका कितनी सराहनीय है?
ऑक्सीजन सिलेंडर से लेकर दवाइयों तक की कालाबाजारी, ऑक्सीमीटर से लेकर भाप लेने वाली मशीनों तक के बाजार मूल्य में बेतहाशा वृद्धि,बिना लाइसेंस के पैथोलॉजी सेंटर का काम करना, ऑक्सीजन के सिलेंडर में कार्बन डाइऑक्साइड जैसे गैस को उच्च तापमान पर भर देना, इस जानलेवा बीमारी की भी नकली दवाएं बना देना , एक जगह तो प्रशासन की आंख में धूल झोंक कर झोलाछाप डॉक्टर के द्वारा कोविड सेंटर का संचालन करना, ऑक्सीजन सिलेंडर से लेकर एंबुलेंस सेवा प्रदान करने में रोगियों के परिजनों से मनमानी रकम वसूल करना, स्वयं डॉक्टर का दवाइयों की कालाबाजारी में पकड़ा जाना-क्या है यह सब? यहां तक की लाशों को जलाए जाने वाली लकड़ियों की कालाबाजारी-किस ओर जा रहे हैं हम?इंसान वेश में क्या घूमते- फिरते पिशाच नहीं हम? हमने बहुत आरोप लगाए पुलिस व्यवस्था पर, प्रशासनिक व्यवस्था पर -भ्रष्टाचार के, पर जब हमारी बारी आई तो स्वयं अपने आचरण से हमने क्या स्थापित किया? दुनिया के कई देश ,कई व्यापारिक प्रतिष्ठान भारत में बीमारी के बढ़ते प्रकोप को देखकर और बड़े पैमाने पर लोगों की उखड़ती सांसों को देखकर दोनों हाथों से मदद करने के लिए आगे आए हैं। परंतु हम,गुरुग्राम से लुधियाना तक का एंबुलेंस किराया ₹1,20000 तक वसूल लेते हैं, ऑक्सीजन के टैंकर को एक-एक सांस के लिए छटपटाते मरीजों तक जल्दी से जल्दी पहुंचाने की बेचैनी की जगह कालाबाजारी के मकसद से उसकी निर्धारित राह से भटकाने का लोभ पाल लेते हैं, गंभीर अवस्था में तड़पते मरीजों की के परिवार से ऑक्सीजन सिलेंडर और दवाइयों की चौगुना कीमत वसूलते हैं – कौन कहेगा यह देश कभी दधीचि और राम का रहा है। उस महर्षि दधीचि का, जिन्होंने इंद्र के एक निवेदन पर वृत्रासुर के वध के लिए आत्मबलिदान दे दिया था।
वृत्रासुर जो त्वष्टा का पुत्र था,ने तीनों लोकों को अपने आतंक से त्रस्त कर दिया। देवता, अनेक प्रयास करके भी उस भयानक असुर को मार नहीं पाए। तब ब्रह्मा ने देवराज इंद्र को बताया कि केवल महर्षि दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र से ही वृत्रासुर का वध संभव है। इंद्र के अनुरोध पर महर्षि दधीचि ने विश्व-कल्याण के लिए देह-त्याग कर दिया और अपनी अस्थियां वज्र-निर्माण हेतु दान कर दीं। उनकी अस्थियों से देव-शिल्पी विश्वकर्मा ने एक शक्तिशाली और अद्वितीय वज्र तैयार किया और फिर इंद्र ने युद्ध में उस वज्र से वृत्रासुर का संहार कर दिया और इस तरह तीनों लोकों ने त्राण पाया। इसी दधीचि के वंशज हैं हम।
लेकिन आज विचारों में इतना अवमूल्यन क्यों है, हमारे रक्त में भारतीय संस्कारों की जगह क्या प्रवाहित होने लगा है, इतनी नीचता हमने कहां से सीखी- मृत देहों के सौदागर बन घूम रहे हैं हम। एक तरफ देश अगर कोरोना से लड़ रहा है तो दूसरी तरफ यह युग हमारे वैचारिक आत्ममंथन का भी है। क्यों अपने सामाजिक दायित्वों से, सामूहिक जवाबदेही से भागते हैं हम?क्यों इतने लापरवाह हैं हम? हमें सीसीटीवी कैमरा चाहिए कोरोनावार्ड की निगरानी के लिए ,ताकि हम अपने मरीजों की देखभाल कर रहे डॉक्टरों, नर्सों या अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की कार्यप्रणाली को अपनी आंखों से देख सकें। हमें उन स्वास्थ्यकर्मियों की निगरानी करनी है जो दिन-रात एककर पीपीई किट में खुद को डाल अपने कर्तव्य को पूजा की तरह अंजाम दे रहे हैं,लेकिन वहीं हमें मास्क पहनने के नाम से ही कोफ्त होती है ,अपने मुख और नाक को सही ढंग से से ढंकने की बात कौन कहे।इस आपदा में अपने ही घर में रहने में हमें असहनीय बंधन महसूस होता है, संक्रमण की चेन को तोड़ने के लिए हम हृदय से सहभागिता नहीं दे पातेऔर जब दूसरों की जिम्मेदारियों पर उंगली उठाने की बात हो तो हम कतार में सबसे आगे खड़े रहते हैं। कैसा दोहरा मापदंड है यह। हाल- फिलहाल त्रिपुरा की एक शादी बहुत चर्चा में रही, कथित जिलाधिकारी के आक्रामक रवैये को लेकर-इस चर्चित मुद्दे से जुड़े अनेक प्रश्न है, हमारी प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े इन प्रश्नों पर मैं गहराई में जाकर टिप्पणी करना नहीं चाहूंगी पर यह प्रश्न जरूर पूछना चाहूंगी अपने पाठकों से कि क्या राष्ट्रीय आपदा के इस समय में कोरोनावायरस से लड़ने के लिए बने मापदंडों का ईमानदारी से पालन करना वर -वधू पक्ष का नैतिक दायित्व नहीं था? अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों की यह घोर अवहेलना कहीं न कहीं हमें हत्या करने जैसे संगीन अपराध की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। कानून की धाराओं के अंतर्गत भले ही न हो, परंतु नैतिक तौर पर तो अवश्य।
वास्तव में राष्ट्रीय आपदा के वक्त हमारा ऐसा व्यवहार यह स्पष्ट रूप से बताता है कि हमें मनोचिकित्सा की जरूरत है, हमें शिक्षा व्यवस्था की गहराइयों में जाने की जरूरत है। नीति नियंताओं को विचारना होगा कि शिक्षा में हम और क्या शामिल करें कि शिक्षा रोजगारपरक के साथ-साथ अध्यात्ममूलक और चारित्रिक उन्नयन का भी सोपान बन सके। नैतिक मूल्यों के मामले में हमारे लिए इतना दोहरापन क्यों है-अपने लिए कुछ और, और दूसरों के लिए कुछ और मापदंड। यह गहन मंथन का विषय है कि हमअपने समाज की विचारधारा को कैसे परिष्कृत करें, पुराने अतीत के गौरव मूल्यों को पुनर्स्थापित कैसे करें।सरकारें अपना काम करती रहेंगी, परंतु एक साधारण नागरिक के दायित्व और कर्तव्य दोनों को कम से कम हम तो ईमानदारी से निबाहें, उसके बाद अपनी उंगलियां किसी और की ओर ताने।जेफ गोइंस का कहना है,”संघर्ष हमारा चरित्र बनता है और चरित्र तय करता है कि हम क्या बनेंगे।” किसी भी हद तक जाकर पैसा उपार्जित करने का वर्तमान परिस्थितियों में हमारा व्यवहार किस दिशा की ओर इशारा कर रहा है? वास्तव में अपराध मनोविज्ञान के लिए यह एक शोध का विषय है कि सच में ऐसी क्या मजबूरी है कि आदमी अंतिम विकल्प के रूप में ऐसे भ्रष्ट उपाय अपना लेता है या नैतिकता और आत्म चिंतन अपने अस्तित्व में इतना मर चुका है कि पैसे की भूख के आगे कुछ और दिखता ही नहीं ।अगर वास्तविक धरातल पर इतनी आर्थिक मजबूरी है तो देश को डरना होगा, लोगों को इस स्तर तक नीचे गिरने के लिए मजबूर होते देखकर और उनके जीवन पालन के उपायों पर दृढ़ता से काम करना होगा और यदि यह केवल राक्षसी प्रवृत्ति है तो हमारी शिक्षा व्यवस्था को सोचना होगा क्योंकि किसी भी व्यक्ति का संस्कार शिक्षा और उसका परिवेश दोनों मिलकर निर्मित करते हैं। हाल में ही कोरोना से काल कवलित हुए प्रसिद्ध लेखक मंगलेश डबराल का कहना था,”हम इंसान हैं ।मैं चाहता हूं कि इस वाक्य की सच्चाई बची रहे।”
ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार कोई नवीन मुद्दा उठ आया है, यह अति प्राचीन समय से ही समाज का अंग रहा होगा, तभी तो प्रेमचंद्र ने ‘नमक के दारोगा ‘में अपनी कहानी के एक पात्र के मुख से मासिक वेतन को पूर्णमासी का चांद और ऊपरी आय को बहता हुआ स्रोत और बरकत का मार्ग कहलवाकर करारा व्यंग्य किया है, परंतु वर्तमान परिस्थितियों में आय के जो विकल्प जिन मूल्यों पर ढूंढे जा रहे हैं वह मानवता के मुखारविंद पर कलंक का टीका है और इसलिए अत्यंत लज्जाजनक और चिंता की विषय- वस्तु है।
अंधकार के इन चित्रों के बीच प्रकाश की लकीरे खींचने का प्रयास भी कम नहीं। जहां कैलाश सत्यार्थी जैसे महापुरुष कोरोना के आघात से अनाथ हुए बच्चों के संरक्षण और प्रश्रय को लेकर चिंतित और प्रयासरत हैं, तो वहीं दूसरी ओर सामान्यजन अपने आसपास युद्धवीरों की तरह अपने -अपने सामर्थ्य के अनुसार जी -जान से जुटे हुए हैं। उम्मीद के आंकड़े के विशाल कैनवस की तस्वीरों में जम्मू कश्मीर के कौल परिवार का बेटा डॉक्टर रोहित अपनी मां के साथ मिलकर , आगरा के भगत हलवाई ;झारखंड, रांची की नवयुवती निशा भगत अपने मंगेतर के साथ मिलकर तीनों वक्त का भोजन सोशल मीडिया के द्वारा लोगों से संपर्क स्थापित कर सीधे पहुंचा रहे हैं और वह भी निःशुल्क। कुछ लोग अपने मित्रों के साथ मिलकर ऑक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था करने में पीड़ित परिवारों की मदद कर रहे हैं ।रूपिंदर सिंह सचदेवा जैसे लोग जिनकी मोहाली में अपनी यूनिट है, होम आइसोलेशन में रहने वाले मरीजों को निशुल्क ऑक्सीजन रिफिलिंग की सेवा दे रहे हैं, दूसरी ओर मध्यप्रदेश के शोहपुर में पंचर की दुकान चलाने वाले रियाज ने अपने और इधर- उधर से इकट्ठे कर कुल 70 जंबो ऑक्सीजन सिलेंडर प्रशासन को सौंप दिए ,भले ही उनका अपना काम ठप्प हो गया । कतर में रहने वाले इंजीनियर प्रभात सक्सेना जो मूलत:बुंदेलखंड के हैं, अपने एनजीओ ‘सृजन एक सोच’, जो मुख्यतः गरीब बच्चों की शिक्षा का कार्य करता था, के द्वारा इस महामारी के समय में अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार कर लखनऊ और बुंदेलखंड के आसपास के इलाकों में जरूरतमंदों की जानकारी इकट्ठा कर रहे हैं और उनकी प्रमाणिकता जांच कर हॉस्पिटल, दवाइयां ,ऑक्सीजन से लेकर ऑक्सीजन कंसंट्रेटर तक की व्यवस्था करने का कार्य कर रहे हैं। दिल्ली पुलिस के एएसआई राकेश कुमार निजामुद्दीन जो पुलिस बैरक में ही रहते हैं, 13 अप्रैल से अब तक ग्यारह सौ मृतकों के अंतिम संस्कार में मदद कर चुके हैं ,खुद 50 से अधिक चिताओं को मुखाग्नि दे चुके हैं और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए उन्होंने 7 मई को होने वाली अपनी बेटी की शादी की तारीख को भी आगे बढ़ा दिया है। इंदौर के तीन इंजीनियर पंकज, शैलेंद्र और चिराग -अनेक अस्पतालों में वेंटिलेटर के इंस्टॉलेशन और रिपेयरिंग के काम में अपनी नि:शुल्क सेवा देकर कोरोनायोद्धाओं की अग्रिम पंक्ति में स्वेच्छा से शामिल हो गए हैं। उनकी विशेषज्ञता इस क्षेत्र में थी नहीं, बस महामारी के इस दौर में लोगों की मदद करने के लिए उन्होंने अपनी तरफ से अनुप्रयुक्त और बीमार वेंटिलेटर पर प्रयोग आजमाया और सफल रहें और बाद में यही इनकी सेवा का मार्ग बन गया।जहां हमारे शहरी बंधुओं को नियंत्रित जीवन में जीना बहुत खटकता है वहीं दूसरी ओर छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के 435 पंचायतों के 500000 ग्रामीणों ने अपने-अपने गांवों की नाकेबंदी कर दी है, इस नाकेबंदी पर और गांव में ही बने क्वॉरेंटाइन सेंटर पर युवा बटालियन तैनात है जो 150 रोगियों की सेवा भी कर रही है। सजगता और सामाजिक जिम्मेदारी के इस भावबोध के कारण ही आदिवासी बहुल क्षेत्रों में संक्रमण की दर अत्यंत निम्न है। ऐसी अनेक कहानियां हैं जो आज के संतप्त समय में चंदन का लेप लगा रही हैं। अंधकार के इस समय में सुप्रीम कोर्ट का भी प्रयास अत्यंत सराहनीय है। विभिन्न स्थितियों पर अपनी कड़ी नजर रखकर व आपदा प्रबंधन हेतु एक कमेटी का गठन कर वह भी अपने दायित्व निर्वहन में पीछे नहीं है। इस क्रम में हमें भारतीय रेलवे के दायित्व निर्वाहन को भी सलामी देनी होगी।
“गोरा”‘उपन्यास में लिखे रविंद्र नाथ टैगोर की यह पंक्तियां आज के इस अंधकारमय समय की मार्गदर्शिका हैं-“अंधकार बहुत विशाल होता हैऔर दीपशिखा छोटी। उस उतने विशाल अंधकार की अपेक्षा छोटी सी दीपशिखा पर मैं अधिक आस्था रखता हूं।”
रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड