…..जीवन दंश का क्या ?
पढ़ती हूं ,सुनती हूं,
फिर से नव पुष्प खिलेंगे,
नव पल्लव फिर सज जाएंगे,
पर जो टहनी सूख गई,
असामयिक दावानल से,
उन दरख़्तों का क्या?
झुलसी वल्लरियों का क्या?
जीवन की आस झलकाते परंतु अब,
ठूंठ बन चुके स्याहवर्णी नवपादपों का क्या?
कुछ घरों में चिरनिंद्रित मायें,
रोटी जलती रही तवे पर।
कहीं पिता ने मूंद ली आंखें,
भरभरा कर गिर गया घर।
पुत्र लौट कहाँ पाया घर को,
प्राणवायु ढूंढते रहे दरबदर ,
किसी ने फिर आवाज न दी,
सुनकर भी रुधन पुकार पर।
उन्होंने तो खो दिए जीवन साथी,
पर जीवनाधात बनी मात्र एक खबर।
कहीं कुटुंब ने तो एक -एक कर ढोया ,
कई मृत देह बस कुछ -कुछ समयातंर पर।
कालचक्र का एक सत्य,
मृत्यु है, जानती हूं,
शाश्वत है यह, मानती हूं।
परंतु जहां जिंदगी ,
इतनी निरीह हो,
घुट- घुट कर दम तोड़े,
ऐसे जीवन का क्या?
जहां मृत्यु सृष्टि का सिर्फ,
एक नियम बन कर न आए।
सामूहिक नर्तन हो उसका
सभ्यता की छाती पर।
ऐसे नर्त्तन का क्या?
जहां जीवन का गीत डूबा हो,
भय,विवशता की सुर लहरियों में ,
ऐसे गुंजित गायन का क्या?
नई फसलें बोई जाएंगी,
जानती हूं , मानती हूं ,
परंतु काल नदी के विकराल प्रवाह में,
पहचान खो चुकी जो हमेशा के लिए,
ऐसी तटीय भूमि का क्या?
सर्वदा के बिछोह के बाद,
जीवन भर के दंश का क्या?
रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड