धरा की व्यथा

धरा की व्यथा

मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई ।
भूमि, वसुधा, पृथ्वी, धरणी,
हूँ लाड़ली उस रचयिता की ।

आठ भाइयों में बहन अकेली ।
बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति,
शनि, यूरेनस, वरुण और प्लूटो,
पूरे आठ हैं मेरे भाई ।
मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई ।

मैं ही हूँ जो,
इस अपार, असीम,
अंतरिक्ष में,
दमकूँ नीलमणि सी ।
मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई ।

रचे अनेक ग्रह, सौर मंडल,
उस अप्रतिम कलाकार ने,
पर मुझे गढ़ा बड़े प्यार से
फुरसत और बड़े दुलार से ।

दीं हिमाच्छादित पर्वत मालाएं,
जिनके शिखर गगनचुम्बी,
पहने स्वर्ण मुकुट मस्तक पर ,
जब दस्तक दे किरण भोर की ।
मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई ।
हरे भरे मेरे वन उपवन,
कलकल बहती चंचल नदियां,
अल्हड़ से नटखट झरने,
अगाध महासागर,भरते हिल्लोरे ।

रचे उसने जीव जंतु,
जलचर, परिंदे और चौपाये
उन्मुक्त करें विचरण जो मेरे,
जल, थल और नील गगन में ।
मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई ।

गढा एक अनोखा प्राणी भी,
हा! दे दी उसे बुद्धि असीमित,
सोचा था करेगा आदर,
पूजेगा मुझे ईश्वर का,
दिव्य उपहार समझकर ।

हुआ भी कुछ ऐसा ही,
अनेक युगों तक,
दिया मानव ने सम्मान मुझे,
दिव्य वेद मंत्र और श्रुतियाँ
गूंजती थीं मेरे प्रांगण में ।
मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई ।

पर समय कभी क्या रुकता है ?
युगों ने भी खाया पलटा,
मानव बना अहंकारी,
बना वह लोभी दानव ,
शुरू कर दिया मेरा शोषण

भेद सीना मेरा,
बनाई लम्बी लम्बी सुरंगें,
लूटे खनिज, खजाने मेरे,
उगलते ज़हर, कारखाने उसके ।
मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई ।

तेल उड़ेला महासागर में
तहस नहस कर डाले,
मेरे ताल, तल्लैया,
वन और उपवन ।

मेरे सुंदर खग, विहग और जलचर,
बने उस दम्भी के चाकर ।
मूर्ख ! यह भी भूला कि,
मेरी एक आह मात्र से,
आते हैं तूफान भयंकर ।
मेरी एक छोटी सी सिसकी,
लाती है भूकंप तड़पकर ।

फट पड़ते हैं शांत जलाशय,
विनाशकारी लहरें महासागर की,
मृत्यु का करती हैं तांडव,
भीषण, दारुण और प्रलयंकर ।
मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई ।

छोड़ यह सब,
मेरा एक छोटा सा कीटाणु,
न देख पाएं नग्न नेत्र जिसे,
सक्षम है नष्ट करने में,
तुझे जैसे लाखों और करोड़ों ।
अब तू है कैद अंदर,
फंसा हुआ अपने ही जाल में ।

कब समझेगा तू
ओ ‘अति बुद्धिमान’ मानव !
मैं हूँ तेरी ज़रूरत और नियति,
पर, तू मेरे लिए नहीं जरूरी ।
मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई ।

मैं हूं पूर्ण,
स्वरूप रचयिता का,
जाने कितने बलशाली,
जीव, जंतु आये,
और चले गये ।

जो न बिठा सका,
ताल मेल जीवन का
मेरे दिव्य प्रसादों से,
नष्ट हो गया स्वयं ही,
अपने अत्याचारों से ।
मैं धरा हूँ ,
यूं तो नाम हैं मेरे कई

नीरजा राजकुमार,
भूतपूर्व मुख्य सचिव,
कर्नाटक ,भारत

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