कोरोना और करूणा
पिछले एक साल में एक छोटे वायरस ने जिंदगी बिल्कुल ही बदल डाली। और इस बार तो इसने ठान ली है कि दुनिया को अपना लोहा मनवा कर ही दम लेगा। कोरोना की इस लड़ाई में अकेले नहीं हैं। दुनिया मे इसके व्यवहार की चर्चा हो रही है, रिसर्च चल रहे हैं। ये तो हुई वायरस से लडने की बात। लेकिन वायरस अपने पीछे जो छोड़कर जा रहा है उनमें छोटे-मासूम बच्चों की हालत बहुत ही गंभीर है। रोज खबरों में, सोशल मीडिया पर अनाथ छोटे बच्चों की अवस्था पर चर्चा होती है। छोटे बच्चें, जो कि बालिग नहीं हैं, जो कि माता पिता दोनों की छत्रछाया से मरहूम है, जो कि अभी अपना भला बुरा नहीं समझ सकतें, उनकी अवस्था दयनीय हैं। बहुत सी परिस्थितियों में उनके नाना नानी, दादा दादी भी अपनी आर्थिक स्थिति के कारण उनकों नहीं अपना रहें हैं। कलकत्ता से, दिल्ली से, उड़ीसा से ऐसी खबरें आ रही हैं। क्या होता है जब ये, मासूम बिल्कुल उन बच्चों को चाइल्ड प्रोटेक्शन कमेटी अपनी छत्रछाया में लेती है। उन्हें उचित व्यवस्था होने तक चाइल्ड होम या शेल्टर होम मे रखा जाता है। बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो कि उनको गोद लेना चाहते हैं। गोद लेने की सरकारी प्रकिया जटिल है लेकिन न्यायगत है। कारा (CARA) के माध्यम से उन बच्चों गोद लिया जा सकता है। निम्न वर्गीय बच्चों को यौन शोषण से बचाना भी एक दुर्गम कार्य है क्योंकि उन बस्तियों में दूरियाँ नही होती। यह बड़े और मध्यमवर्गीय परिवारों में भी हो सकता हैं लेकिन वहाँ मामले और भी उलझे हैं। जायदाद के बँटवारे या “विल” के अभाव से कहानी और भी जटिल हो सकती है। तो क्या करें जब किसी एक बच्चे का पता चले-जो अपना नैचुरल गार्जियन खो चुका है और उसे देखने वाला कोई नहीं है। प्रथमत: पुलिस को जानकारी देनी चाहिए ताकि मामले को न्याय मिले। हर राज्य में (1098) चाइल्ड हेल्प लाइन नम्बर हैं। उनको जिलास्तर पर जानकारी दी जा सकती है। बहुत सारे ऐसे भी विकृत मनोवृति के लोग हैं जो कि गोद लेने की आड़ में बाल व्यापार कराना चाहते हैं। ऐसे तत्वों से सावधान होने की आवश्यकता है।
करीब तीन हफ्ते पहले हमारे एक व्हाट्स अप ग्रुप पर रात ग्यारह बजे सूचना मिली कि दो छोटे बच्चे अपने घर मे अकेले हैं और भूखे हैं। माता पिता कोविड़ से मर चुके है और बच्चों की बीमार दादी उनको देखने में अशक्त है।
दिल्ली की चाइल्ड कमेटी को रात में ही सूचना दी गई। उन्होने स्वायत्त सेवी संस्था के माध्यम से बच्चों को शेल्टर होम में ले लिया और एक दिन उनकी देखभाल की। बाद मे उनके चाचा आकर उनको ले गयें। इस तरह उस हप्ते में तीन चार सूचनाएँ और मिलीं। सरकारी तंत्र के माध्यम से ही उनका निपटारा किया। एक सुकून मिला कि सरकारी संस्थाए संलग्न हैं और अपना काम कर रही हैं।
ये मामले कभी उलझे भी होते हैं। बहुत बार परिवार वाले सहयोग नहीं करते और सामाजिक दबाव में बच्चों को ले जाते हैं पर उनकी देखभाल नही करतें।
राष्ट्रव्यापी आंकड़ा अभी हमारे पास नहीं है लकिन 1 से 12 मई तक केवल दिल्ली में 58 ऐसे कॉल 1098 पर मिले जहाँ दोनों माता पिता कोविड की चपेट में आ चुके हैं। दरअसल गोद देने की प्रकिया में पहले यह जानना जरूरी होता है कि क्या कोई लीगल गार्जियन बच्चे को अपनाना चाहता है। और नही तो, फिर बच्चे को अनाथ घोषित कर उसे ऐसे बच्चों कि मनस्थिति भी समझने के आवश्यकता है। दिल्ली में ऐसे दो भाई बहनों को पुलिस ने ऐंन वक्त पर बचा लिया, जो आत्महत्या करने जा रहे थें। बहुत सारे विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चे अगर परिवार में रह सकें तो वह अच्छा होता है, वरना वो डिप्रेशन का शिकार हो सकते हैं। अभी महाराष्ट्र सरकार में एक योजना है जिसके अनुसार एक हजार रूपये की राशि उस परिवार को दी जाती है जो इस तरह के बच्चों का लालन पालन करते हैं। शायद यह एक सेफ्टी नेट है जो कि पूरे देश में अपनाया जा सकता है।
यह समस्या एक ज्वलंत सामाजिक समस्या है जिसे राज्य सरकार, स्वयं सेवी संस्थाएँ मिलकर सुलझा सकती हैं। और हम नागरिकों का यह कर्त्तव्य है- कि सूचना मिलने पर हम सही जगह पर उनको जोड़ सकें। भले ही समस्याएँ अलग हों लेकिन हम सब आपस में जुड़े हैं करूणा के माध्यम से। और इसी से हम मदद कर सकते हैं – छोटी ही सही, थोड़ा ही सही।
डॉ. अमिता प्रसाद
दिल्ली