बदलाव
आज ट्रक से सामान उतर रहा था।
खानाबदोशी की यह जिंदगी उमा को अब अच्छी लगने लगी है। नए शहर, नए लोग, नया वातावरण – बारिश की बूंदों की तरह लगता है। जैसे धूल भरे सारे पत्ते साफ हो गए हों। चार फ्लैट का एक एक यूनिट | बगल वाले दरवाजे पर नाम देखा – विजयन एवं उषा | बगल वाले फ्लैट का दरवाजा थोड़ा सा खुला – और एक तल्ख सी आवाज आई – आय एम उषा। सामान ले आने में ज्यादा शोर नहीं करना। और दरवाजा धाड़ से बंद। क्या बदतमीजी है? ये तो काफी दिनों बाद पता चला कि उनके घर में ही नर्सिंग होम है। सास और ससुर दोनो होम केयर में।
सुबह से सर में तेज दर्द था। उमा का एक मन हुआ आफिस ना जाए। वर्क फ्रॉम होम करले। लेकिन वर्क फ्रॉम होम में आराम नहीं है। कभी प्रेशर कुकर की सीटी, कभी सासू माँ के पूजा की घंटी। फिर बच्चों का दौड़ दौड़ कर आना और इशारे से कुछ माँगना। उस दिन तो हद ही हो गई थी। लाख समझाने के बाद भी सुलु पीछे से हटी नही। ऐसे कोविड में, लोगों के घर अब बेगाने नहीं रहे। सबके ड्राईंग रूम में झाँक लिया हमने | बेतरतीब से रहने वाले, किताबों की दुनिया से बहुत दूर रहने वाले भी ईमीटिंग मे पीछे से किताबों की अलमारियाँ सजा लेते है। इंप्रेशन अच्छा पड़ता है। और यहाँ किसी तरह फूल वाले परदे के आगे बैठना पड़ता है बच्चों से छिपकर | ऐसे बच्चों को घर में देखकर दया आती है। ना खेल, ना पार्क, ना कोई मेल मिलाप| बचपन जैसे खो गया है कहीं।
आइसोलेशन का आज पाँचवा दिन है। दुबई से अरूप आ ही नहीं पाए। आठ महीनें से वही अटके पड़े हैं। सासू माँ ने किसी तरह से खिचडी बनाई, और बच्चो को सैंडविच खिला दिया। इतने दिनों में तो न जाने किचन में बर्तन का ढेर लग गया होगा। डॉक्टर ने सख्त हिदायत दी है – अलग रहो, दवाईयाँ खाओ। अपनी फिक्र करो। दरवाजे को अलग कर सुलु आँक लेती है। मन कितना छोटा हो जाता है और शरीर लाचार।
सासू माँ की आवाज आ रही थी। पड़ोसन उषा जी ने ढेर सारा खाना भेज दिया है। ट्रे में बाहर है। उषा जी से कभी भी मिलने की हर कोशिश, नाकाम ही हुई थी। “वी विल मीट इन गुड टाइम्स” कहकर हमेशा दरवाजा मुँह पर ही बंद कर दिया था। आज चार दिनों से उनके भेजे हुए ट्रे का खाना खा रही हूँ – बहुत ही तरतीब से बनाई हुई, पोहा, खिचड़ी | अच्छे से ढँके हुए सूप, सैंडविच | उषा जी ने इन चार दिनो में मुझे अपना सगा बना लिया था।
आज फोन पर धन्यवाद देने लगी तो उन्होंने कहा, लोगों ने मुझे हमेशा परखा ही है, समझा नही। तेरह सालों से घर में नर्सिंग होम बना है। तभी किसी को बुला नही पाते, मिल नही पाते। अपनी कमजारियों को कभी दिखाना नहीं चाहती मैं। खुद के पिंजरे से निकल कर देखा तो लगा जिंदगी कितनी छोटी है। इस जिंदगी में समय के बदलाव को पहचानने में देर तो हुई। हाँ, ये समझ गई कि जिंदगी का आइना तभी मुस्कुराएगा, जब हम मुस्कुराएंगे। उस दिन तुम्हारी बनाई हुई खीर वापिस कर दी थी। तुम्हें बुरा लगा होगा। उसी गलती को ठीक कर रही थी मैं। उषा जी थोड़ा सा हँसी | उमा का मन हल्का हो गया था। कोविड ही सही, बदलाव तो लाया हमारी जिंदगी में | उमा धीरे से मुस्कुराई और बुदबुदाई | “जो न देते थे जवाब, उनके सलाम आने लगे। वक्त बदला, तो मेरे नीम पर आम आने लगे।”
कोई गलत या सहीं नहीं होता। कोविड ने भी तो कही कुछ अच्छा किया ही।
डॉ अमिता प्रसाद
दिल्ली