अयोध्या
राम लल्ला को उनकी जन्मभूमि मिल गई और भारत को उसका सुकून। खुरच-खुरच के दर्दीली बन गई चमड़ी साफ, सुथरी और सुंदर हो गई। प्रजातंत्र है भई! देर लग सकती है पर काम हो जाता है। ज़मीन के नीचे छुपे तथ्यों को खींच कर ऊपर लाने की ज़रूरत थी। फ़ायदा ये हुआ कि अब श्रद्धा पर जो परवान चढ़ा है वह सदियों तक क़ायम रहेगा। विविधता के देश में सचमुच सबने एकता दर्शाई है। लगता है एक स्वस्थ मानसिकता वाले नये भारत की ओर कदम तेज़ी से बढ़ रहे हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि सिर भी थोड़ा ऊँचा उठ गया है कि हम सब एक हैं देश के मामले में।
एफबी में जब हज़ार पेटिशन और राय पूछे जा रहे थे तब मैंने खीजकर कमेंट कर दिया था कि खोल दीजिये मुफ़्त दवा-इलाज के लिये एक अस्पताल जहां देश के सभी भाई-बहन सुकून पा सके पर कृपा करके लड़िये मत इन मुद्दों पर।थोड़ा पाकर थोड़ा खोकर ही शांति मिलती है और शांति से बढ़कर कोई चीज है ही नहीं देश के स्वास्थ्य के लिये!
अयोध्या का इतिहास न केवल राम से जुड़ा है बल्कि महात्मा बुद्ध से भी और अब तो वह नव निर्मित ऐतिहासिक मंदिर और मस्जिद से भी जुड़ेगा। यह कभी उत्तर भारत के छ: बड़े प्रदेशों में एक था और साकेत के नाम से जाना जाता था । पाँचवीं सदी ई.पू. में यह नगर श्रावस्ती बना और यहाँ कभी महात्मा बुद्ध भी ठहरे। फिर ग्यारहवाँ-बारहवीं सदी में जब कन्नौज इस प्रदेश की राजधानी बना तब अयोध्या की स्फीति हुई। बाद में वैष्णव शासकों ने इसका जीर्णोद्धार किया। पंद्रहवीं सदी में बाबर का सूफ़ी कलंदर के भेस में काबुल से अयोध्या को आना और किंवदंतियों के अनुसार दो सूफ़ी संतों से आशीर्वाद लेना कि वह हिंदुस्तान पर क़ब्ज़ा करके इबादत की जगह बनायेगा की कहानी कुछ अभिलेखों में और कुछ अवशेषों में प्राप्त होती है। पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में एक ओर बाबा तुलसीदास ने जहां श्रीराम जी के जन्मदिवस को मनाये जाने की चर्चा की है वहीं कुछ बीसेक साल बाद आइन-ए- अकबरी में अब्दुल फ़ज़ल इब्न मुबारक ने अयोध्या को पावनतम तीर्थ का नाम देते हुए राम के जन्मदिवस के मनाये जाने का उल्लेख किया है। सत्रहवीं सदी में औरंगजेब का नाम भी इस पावनस्थल से जुडा। इस तरह विभिन्न शासनकालों में भीतरी बाहरी सियासी ताक़तों ने राम जी की धार्मिक व ऐतिहासिक उपस्थित स्वीकारी। सत्रहवीं सदी में अयोध्या बनाम औध के शासक और कोई नहीं नवाब शिराजुद्दौला थे। अंग्रेज यात्री फ़िंच ने अयोध्या के मस्जिद में रामकोट का उल्लेख किया जहाँ आस्थावान रामलल्ला के पालने की पूजा के लिये जाते थे। अयोध्या अब आधुनिक उत्तर प्रदेश में लखनऊ के फ़ैज़ाबाद के निकट है और वर्तमान की घटनाएं जग ज़ाहिर हैं। स्पष्ट है रामजी के ज़मीनी चेहरे में भले तब्दीलियाँ कई हुईं पर वे जनमानस में अक्षुण्ण रहे। वो क्यों और कैसे?
कोसलों की राजधानी अयोध्या में श्रीरामजी का न केवल जन्म हुआ बल्कि सारे कवि-कोविदों ने इसकी खबर रखी और सदियों तक यह जग ज़ाहिर होता रहा कि इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के पहले पुत्र श्रीराम हैं। उनके व्यक्तित्व और चरित्र की भारत में धाक ऐसी है कि आज भी स्वयं को गर्व से उनका वंशज बताने वाले लोग मिल जाते हैं जो ताड़ पत्रों को सबूत के तौर पर पेश करते हैं। जनमानस मिथकों को बड़ी गंभीरता से लेता है, उनसे क़तई बिछड़ना नहीं चाहता और यहाँ तो साकेत राम के ऐतिहासिक अवशेष बार-बार सिर उठाते उनके जीवन की घटनाओं के सबूत प्रस्तुत करते रहते हैं जैसे राम सेतु के पत्थरों का पुल के रामेश्वरम् के समुद्री तट पर जल के नीचे होने की नासा द्वारा खिंची तस्वीरों का प्रमाण। ठीक है कि भारतवर्ष भक्तों व श्रद्धालु जनों से भरा है पर श्रद्धा यूं ही नहीं जगती! मेरी दृष्टि में सदियों पुराना नायक राम आज भी जीवन को मर्यादित ढंग से जीने की प्रेरणा देता है। बाहरी संदर्भ बदल जाते हैं पर मर्यादा, स्नेह, उत्तरदायित्व, वचनबद्धता जैसे नैतिक संदर्भ कहाँ बदलते हैं? पूरे भारत को अपनी भावधारा में बाँध कर एक करने की शक्ति इन चरित्रों में है पर हमने अनाज को फेंक थोथा ही स्वीकार किया। इस भावधारा का उद्देश्य था समाज को जीने के आदर्श दिये जायँ न कि पृथकत्व के बीज बोये जायँ! संस्कृति मानव समाज की भौतिक, बौद्धिक, भावनात्मक उन्नति के साथ स्थायित्व ग्रहण करती हुई सहज रूप में प्रवाहित होती जाती है। इसका संदर्भ समझकर, समयानुकूल ग्रहण करने में ही बुद्धिमानी है। आख़िरकार संस्कृति का मूल लक्ष्य है समाज में उत्तमता को बढ़ावा देना, समाज के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाना। ऐतिहासिक,धार्मिक और मिथकीय तत्वों का संस्कृति के निर्माण में अहम् स्थान है। किसी भी दैवी व्यक्तित्व की पूजा-वंदना उस चरित्र की विशेषताओं की वजह से होती है। श्री रामचंद्र मर्यादा, सहनशीलता, न्यायप्रियता जैसे गुणों के प्रतीक थे। आइये हमारे पूर्वज, अयोध्या में जन्मे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र का सिर ऊँचा करें और अपने समाज में नैतिक मूल्यों की मर्यादा को काल-देश-परिस्थिति के अनुसार बनाये रखें। असली मंदिर तो हृदय है जहाँ नित आत्माराम की आरती न उतारी तो मंदिर क्या गये!
राधा जनार्दन
लेखिका