राम तुम्हारा चरित स्वयम् ही काव्य है

राम तुम्हारा चरित स्वयम् ही काव्य है

अयोध्या की यात्रा एक चिर प्रतीक्षित अविस्मरणीय यात्रा थी, वर्षों की कामना पूर्ण हो रही थी और अपनी कल्पना के साकार हो पाने की अनुभूति हो रही थी,,, इतिहास के पन्नों पर बिखरी अयोध्या नगरी की अनगिनत कहानियाँ, उनके सच, और उस यथार्थ का मुखर मौन और उनके गौरव गान सभी आमंत्रित कर रहे थे, इस बार बरसों बाद जब अपनी जन्मभूमि वाराणसी गयी तो अयोध्या भ्रमण करने की पुरानी इच्छा बलवती हो उठी, और मैं अपने पति मिश्रा जी, एवं भाई भाभी और उनकी छोटी बेटी सुरम्या के साथ ट्रेन से अयोध्या नगरी के लिए प्रस्थान किया,, कुछ घंटों की यात्रा थी,, बारिश जोरों से हों रही थी,,जब हम अयोध्या पहुंचे तो भोर हो रही थी,,सुबह का धुध छाया हुआ था,,, बारिश की नन्ही बूंदों से भींगी धरती ने हमारा स्वागत किया,, थोड़ी ठंड भी लग रही थी, ऐसे में स्टेशन के समीप बनी धर्मशाला में आश्रय लेकर यात्रा की थकान उतारी,,,गुजराती धर्मशाला बहुत साफ सुथरी और चारों और लगे सफेद संगमरमर और टाइल्स से चमचमा रही थी,, वहीं पर एक परिवार की ओर से सभी ठहरे हुए यात्रियों के लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था भी थी,जो अपनी कोई बड़ी मनौती पूरी होने पर यह आयोजन और यज्ञ,पूजा आदि करवा रहे थे, उन्होंने हमें भी आमंत्रित किया और हमने सादर सस्नेह स्वीकार कर लिया था,मेरा भाई चार कप चाय के लिए अंदर रसोई में गया और थोड़ी देर में चाय आ गई,,चाय पीकर कुछ राहत मिली,, हमने जरा भी बिलम्ब न करते हुए बाहर आकर एक ऑटो चालक से बात कर अयोध्या के विशेष स्थलों को घुमाने के लिए भाड़ा तय किया और वापस यहीं छोड़ने का अनुरोध भी,,वह मान गया,वह एक हंसमुख और विनम्र युवक था,राम भक्त भी था,यह बाद में उसकी बातों से पता चला, उसके साथ बातचीत करते हुए जब हमने उसका नाम पूछा तो सुनकर हैरानी हुई कि वह मुसलमान था और उसका नाम हामिद था,, लेकिन सभी उसे बबलू बुलाते हैं, रामचरितमानस की चौपाइयां उसे याद थीं और वह बीच बीच में उनका उल्लेख भी करता जा रहा था, उसके साथ बातचीत करते हुए बहुत मज़ा आया, अयोध्या की लंबी तंग गलियों से गुजर कर बबलू हमें सरयू तक ले गया,,, सुखद शीतल हवा ने हमारा स्वागत किया, बूंदों की रिमझिम जारी थी,, सीढ़ियां उतर कर जब हम रामघाट पर पहुंचे तो पवित्र सरयू की धारा से मन अभिभूत हो गया,, नीचे पवित्रता का, ,भगवान राम से जुड़ी गौरव गाथाओं का सुखद प्रवाह था,यही वह पावन सरयू तट है जिसे पार कर राम लक्ष्मण और सीता के साथ वनवास गये होंगे , यहीं पर आखिरी बार जल समाधि ली होगी ,मन के अंदर मानस में पठित और पौराणिक कथाओं का मंथन चल रहा था,, ऊपर मेघों का मल्हार राग अनवरत जारी था, हमने जल को स्पर्श कर प्रणाम किया, और कुछ तस्वीरें भी खींची,,,मेरे पति के चिर प्रतीक्षित आग्रह का ही परिणाम थी यह यात्रा,,मन भाव विभोर था, लेकिन मैं जन्मभूमि के साथ उसके इतिहास और विगत घटनाओं के विषय में भी जानना चाहती थी, लेखकीय मन स्मृतियों के गर्भ से कुछ और चुनना चाहता था, अयोध्या का अर्थ है जिसे कभी भी युद्ध में न जीता जा सके ,उसी अयोध्या में भगवान राम का जन्म लेना, पूरे विश्व की आसुरी शक्तियों का विध्वंश और विनाश कर लोक कल्याणकारी कार्य करने और समाज में शील और मर्यादा की स्थापना भी की थी राम ने,तभी तो उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया,,,इस दुनिया में बस राम है,आस्था हैं, विश्वास है, समरसता है,भले ही यह कुछ लोगों को दिखाई नहीं देती,, लेकिन अयोध्या के बाहर की दुनिया में राम के नाम पर राजनीति है,, बहसें हैं,, आलोचनाओं का गर्म बाजार है, संप्रदाय और जातीय घृणा फैलाती , नित्य नये विवादों को जन्म देती भ्रमित करती रूढ़ियां हैं, मीडिया भी है,, परंतु अयोध्या के अंदर सिर्फ राम है और उनकी प्रजा,,न कोई हिन्दू और न कोई मुसलमान,न सिख न ईसाई,,, कहां हैं यहां धार्मिक विवाद? मुझे तो नहीं दिखाई दिया,,


सुबह के दस बज रहे थे,,भूख लग आई थी,छोटी सुरम्या अधिक परेशान थी,, इसलिए बबलू हमें एक छोटे से सड़क किनारे बने होटल में ले गया,, वहाँ गरम गरम पूरियाँ बन रही थीं,सबने भरपेट नाश्ता किया,वहाँ सभी तरह के लोग, एक साथ बैठकर खा रहे थे,,,हर वर्ग के लोग, एक दूसरे का हालचाल पूछते,,अपनी अपनी यात्रा के अनुभव बांटते हुए कितने खुश थे,, जैसे राम लला की नगरी एक छोटा भारत बन गई हो,, पास ही बने किसी मस्जिद से अजान की आवाज सुनाई दी तो बबलू नमाज पढ़ने बाहर निकल गया और उसके साथ ही लगभग आधे लोग,,, थोड़ी देर बाद बबलू हमें हनुमान गढ़ी की ओर लेकर चला,, हनुमान गढ़ी के विषय में हजारों कल्पनाएँ थीं मन में, बनारस से चलते समय पिताजी ने कहा था कि वहां बंदरों से सावधान रहना,वे हाथ में लिया प्रसाद छीनकर जमीन पर गिरा देते हैं और भक्तों को परेशान भी करते हैं, परंतु वहां पर पहुंचते ही न तो लंबी तकलीफ देह सीढ़ियां दिखाई दीं न बंदरों का‌ आतंक,, आसपास फूलमालाओं और प्रसाद की कई दुकाने थी जहाँ लोग जूते चप्पल उतार कर सुरक्षित रख रहे थे और वहीं से प्रसाद भी खरीद रहे थे,, इलायची दाना, पेड़ा,लड्डू और लाल रंग के छोटे छोटे झंडे भी बिक रहे थे, कुछ लोग वहां अपनी मनौती पूरी होने पर विशेष पूजा अर्चना भी करने आए थे,, हमने भी प्रसाद लिया और कतारबद्ध होकर आगे बढ़ते रहे,, टाइल्स की बनी चिकनी सीढ़ियां अनेक दरवाजों से गुजर कर मुख्य द्वार तक पहुंची, जहां पडो ने हमें घेर लिया था,, लेकिन बड़ी मुश्किल से उनसे बचकर कि हम खुद बनारस के पडे हैं कह कर मुस्कराते हुए पक्तिबद्ध होंगे मूर्ति तक पहुंच गए,, रामभक्त हनुमान जी की मूर्ति, प्राचीन गौरव की अनुभूति करवा रही थी, हमारी आंखें श्रद्धा से बंद थीं और हृदय गुनगुना रहा था मनोजवम् मारूततुल्य वेगम्,जितेन्द्रियम् बुद्धिमताम् वरिष्ठम्,,वातात्मज वानरयूथमुख्यं श्री राम दूतम् शरणम् प्रपद्ये शायद हनुमान जी ने हमारी प्रार्थना सुनी और अपने पवित्र दर्शनों से हमारी यात्रा को सार्थक कर दिया था,,भारी भीड़, लगभग हजारों लोग,, राजस्थान और मध्यप्रदेश से करीब सौ लोगों का समूह आया था और उनकी वजह से ही वहां पर आपाधापी मची हुई थी, सभी बिछड़ जाने पर एक दूसरे को बदहवास हो खोज रहे थे, परंतु हम शांति पूर्वक दर्शन कर वापस दुकान तक लौटे ,अपनी चप्पलें लीं और वापस हो लिए,,अगला पड़ाव रामदरबार और मणिदास की छावनी था जहाँ राम सीता लक्ष्मण की मूर्तियां भव्य हाल में विराजमान थीं,हम लोग सीढ़ियां चढ़कर वहाँ तक पहुंचे और दर्शन किए, सुना था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय यहाँ हजारों कारसेवकों ने यहीं पर शरण ली थी,उनकी आस्था और संकल्पों का एक गवाह यह मंदिर भी है, वहां कुछ साधू संत भी नजर आए,आपस में बातचीत करते,,पूरा वातावरण बेहद शांत था,,हम लोग भी चुपचाप बाहर निकल आए,,, बारिश लगातार हों रही थी, सड़कें गीली थी, फिर भी दर्शनार्थियो की भीड़ कम नहीं थी,इसी बीच शायद रामदरबार मंदिर के करीब किसी मंदिर में,,अभी नाम बिल्कुल स्मरण नहीं है,, एक विचित्र घटना घटी,उस समय वहां पूजा आरती हो रही थी,हम लोग भी उसमें शामिल हो गए,, आरती समाप्त हो जाने के बाद एक व्यक्ति ने आकर कहा कि चलिए प्रसाद ग्रहण कर लीजिए।हमें लगा कि शायद मथुरा वृन्दावन की तरह यहाँ भी भोग प्रसाद मिलता होगा,, लेकिन आश्चर्य हुआ जब हमारे साथ कोई और श्रद्धालु नहीं आया,,हम लोग नये‌ थे,उन सज्जन ने हमें कई गलियारों को पार कर एक तंग कमरे में किन्हीं साधु महत के सामने बैठा दिया और वही‌ व्यक्ति लगातार हमें महंत जी के बारे में बताता रहा कि इन्होंने मंदिर निर्माण के लिए दस वर्षों से मौन धारण किया है,अथक परिश्रम किया है,बाबरी विध्वंस के समय से ये केवल जल पीकर रहते हैं, इनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य मंदिर बनाना ही है।
वहां पर ढेर सारी शिला-पट्टिकाए‌ पड़ी हुई थी जिन पर कुछ नाम लिखे हुए थे, जिन्हें दिखाते हुए उस व्यक्ति ने मंदिर निर्माण के नाम पर कुछ दान देने के लिए कहा, और यह भी बताया कि आपका नाम भी इन शिलाओं पर लिखा जाएगा, हम मानसिक रूप से तैयार नहीं थे, अतः विनम्रता से मना कर दिया, बार बार विनती की गई कि हम कुछ भी दान जरुर करें।बात जब हजारों से लेकर सौ पचास तक आ गई तब हम समझ गए कि यह सब सत्य नहीं है,, अतः प्रणाम कर जल्दी से बाहर निकल आए,,, हमारी आस्था कुछ विचलित जरुर हुईं थीं पर मैं धार्मिक नगरी की रहनेवाली थी,धर्म के नाम पर ऐसे छद्मों से अच्छी तरह परिचित थी, चाहे पुरी हो या बनारस और अब यहाँ पर,,, कुछ लोगों की रोजी-रोटी ही इनसे चलती है,,यह कोई नई बात नहीं थी,,, लेकिन धर्म और राम के नाम पर ऐसी ऐसी धर्मांधता,लूट खसोट की प्रवृत्ति ने हमें परेशान तो किया ही था,,,

अयोध्या हमारी आस्था का केन्द्र बिन्दु थी, हम भगवान राम की मर्यादा, अयोध्या की ऐतिहासिकता और उसकी वर्तमान सच्चाई को जानने आए थे,,राम लला के दर्शन करने की इच्छा तीव्र थी,,, बारिश थम गई थी, लेकिन हवा में शीतलता थी, ठंड भी लग रही थी, ऐसे ही मौसम में बबलू हमें रामजन्म भूमि लेकर गया,जिसकी हम सुबह से ही प्रतीक्षा कर रहे थे,,उसी ने बताया कि लगभग दो तीन किलोमीटर पैदल चलना होगा, वहां वाहन नहीं जा सकते,, वहां पर बने चेकिंग स्थलों पर हमने अपना मोबाइल,पर्स,, और कैमरे जमा करवा दिया,उनका एक कापी में लिखित उल्लेख करके हमने हस्ताक्षर किए और फिर जन्मभूमि और राम लला के दर्शन के लिए प्रस्थान किया,,लोहे की जालियों से घिरे संकरे रास्ते पर चलते हुए अद्भुत सुरक्षा घेरे में कैद राम लला के‌ दर्शन करने थे,लोहे की जालिया चारो तरफ थीं,छत पर भी,, हमें सिर्फ चलते जाना था, सहयात्रियों ने जोरदार जयकारा लगाया।जय श्रीराम,राम लला की जय!!!!, वातावरण गूंज उठा,चारो तरफ सुरक्षा प्रहरियों और कमांडोज की उपस्थिति भय भी उत्पन्न कर रही थी,,साथ ही हमारी सुरक्षा का अहसास भी करा रही थी कि जब तक भारतीय सेना है,हम पूर्णतः सुरक्षित हैं,चप्पे चप्पे पर तैनात पुलिस कर्मी हमें रास्ता भी बता रहे थे और हमारी बातें भी सुन रहे थे ताकि कोई अप्रिय प्रसंग न हो और कोई तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाए,, लगभग सात या आठ स्थानों पर महिला सैनिकों और सुरक्षा बलों द्वारा हमारी जांच की गई थी,,हम बस रास्ते पर बढ़े जा रहे थे, कहां मंज़िल है,, कुछ भी नहीं पता था ,, हमारे साथ एक बेहद वृद्ध महिला व्हील चेयर पर बैठ कर जा रही थी अपने बेटे के साथ, और एक अत्यंत बीमार और अशक्त चाचा जी भी अपने परिवार के साथ चल रहे थे जो बार बार थक जा रहे थे और उनका बेटा उनके साथ रुक कर इंतजार कर के फिर चल रहे थे,,सबने मना किया कि इस अवस्था में आप क्यों आएं? बेटे ने बताया कि इनको राम लला के दर्शन करने ही थे,ये मान नहीं रहे थे,,आगे जाकर व्हील चेयर ले लूंगा,,,अंततः एक स्थान पर यह कारवां रुका, , थोड़ी देर के लिए, हमें पक्तिबद्ध होकर आराम से राम लला के दर्शन के लिए कहा गया,,लोहे की जालियों के पार, एक बड़े से मैदान के बीचों-बीच खुले आसमान के नीचे छोटे से पीले रंग के टेंट में, एक चबूतरे पर विराजमान अपने आराध्य रामलला को देख कर जहां अपार हर्ष की अनुभूति हुई वहीं पर मन भी व्यथित हो उठा,,साथ में राम लक्ष्मण और सीता की मूर्तियां थी, और हमारे आतुर नैनों ने भरपूर निहारा था इस विहंगम दृश्य को,,यही पर कभी बाबरी मस्जिद हुआ करती थी, और जिसे मुगल बादशाह बाबर ने एक हिन्दू मंदिर तोड़ कर बनाया था,, (ऐसा इतिहास कहता है)परंतु अब उसका नामोनिशान नहीं था, सिर्फ बचे हुए मलबे पर ही ढांचा गिराने पर गर्भगृह और खुदाई में मिले अवशेषों को सहेजकर सजाकर रखा गया था, जिनमें कमल,छोटे चरण चिह्न, शंख और कलाकृतियाँ ,तथा कुछ लिखित सामग्री भी थी,इतनी दूर से हम केवल दर्शन ही कर सकते थे और उस पर ही संतोष करना पड़ा, लेकिन अवशेषों के विषय में वहां जालियों के समीप बैठे पंडित जी ने बताया था और बाद में इलाइची दाने का प्रसाद भी दिया, लेकिन मन में विक्षोभ भी जन्मा कि यही वह भूमि है जहां धर्म के पागल उन्माद ने हजारों कारसेवकों की बलि चढ़ा दी थी,, दंगे हुए, इंसानियत जिंदा मार दी गई थी,,,,अब जब यह विवाद राजनीतिक रूप ले चुका है, मैं कुछ कहना नहीं चाहती,,देश की न्यायपालिका उचित न्याय करेगी पर अयोध्या की गलियों में घूमते, सड़कों चौराहे पर अपने अपने व्यवसायों में लगे लोगों के बीच मुझे कहीं भी वैमनस्य नहीं दिखाई दिया, संप्रदायवाद, भेदभाव, छुआछूत, कहीं भी नजर नहीं आया,,, फिर इतनी मारकाट क्यों?,,,,क्या प्रभु राम या उनकी प्रजा ऐसा ही चाहती होंगी? हरगिज़ नहीं,,, मेरे हाथ प्रार्थना में जुट गए हे‌ प्रभु!, मेरे देश की शान्ति कभी धर्मान्धता के नाम पर भंग मत होने देना,सभी समभाव एकता के साथ जिएं।

राम लला से विदा लेकर हम वापस लौटने के लिए चल पड़े,,, सुरक्षा चौकी से अपने पर्स और मोबाइल लिए और वहीं पर बनी एक छोटी सी चाय की दुकान पर हम सब बैठ गए,,चाय जब तक बनती मेरी भाभी अनीता गरम गरम पकौड़ियां लेकर आ गई सबके लिए, जोरदार भूख में उनका स्वाद अमृतोपम लगा,,चाय पी कर उठ ही रहे थे कि बबलू का फोन आ गया,वह बाहरी सड़क पर हमारी प्रतीक्षा कर रहा था,, उसके पास पहुंचते ही उसने पहला प्रश्न किया राम लला के दर्शन हो गए सर? हम सब बहुत खुश थे,वह भी,,आगे बबलू हमें उस जगह ले गया जहां मंदिर निर्माण के लिए शिलापट्ट, खंभे, गुंबज आदि बनाये जा रहे थे,पूरे देश से आई हुई ईंटें भी वहां सजाकर रखी गईं थीं,,साथ ही बनने वाले मंदिर की अनुकृति भी देखी थी हमने,, बहुत ही भव्य, सुंदर विशाल मंदिर की परिकल्पना थी,,दिल से प्रार्थना करती रही कि मंदिर तो जरूर बने,पर मस्जिद भी बने अयोध्या में ही,, ताकि किसी की भावना आहत न हो,हम लोग जब पुनः अपनी धर्मशाला में वापस लौटे,तो हमारे पड़ोसी मेजबान प्रतीक्षा कर रहे थे, और भी सहयात्री थे, दोपहर के तीन बज रहे थे, भूख लगी थी, अतः हम सब भोजन करने बैठे,गरम दाल चावल और दो सब्जियां,, बहुत अच्छा लगा,, बदलें में हृदय से शुभकामनाएं दी हमने उनकी इच्छित मनौती पूरी होने के लिए,, और अपनी और से हुंडी में सहयोग राशि डाल दी थी,,बबलू भी खाना खाने चला गया था, थोड़ी देर बाद वापस लौटा,,अब उसके साथ विदाई की बारी थी, एक हंसमुख और अच्छी सोच वाला युवक हमें भा गया था, उसके साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगा था,,उसने नियत भाड़े के पैसे लिए और नमस्कार किया, मेरे पति ने उसे कुछ पैसे अतिरिक्त दिए ताकि वह बच्चों को मिठाई खिला सके,, बबलू जैसे युवाओं की सोच से ही असली भारत बनता है,,यही है हमारे राम की अयोध्या,,उनका रामराज्य जिसकी कल्पना कभी बापू ने भी की थी,,, फिर हम क्या चाहते हैं? और किसके लिए? यहां तो सलमा को राम लला के लिए फूल मालाएं बेचने में ऐतराज नहीं,, रमेश को मुहर्रम के जुलूस में ताजिया बनाने से इंकार नहीं, बबलू को रामकथा और मानस की चौपाइयों को याद रखने और व्यवहार में लाने में आपत्ति नहीं है,, मैं अयोध्या के कण कण में राम को देख रही थी,,, महसूस कर रही थी,,, हृदय बार बार दोहरा रहा था जय राम रमा रमनम् शमनम् , भव ताप भयाकुल पाहि जनम् शाम हो गई थी, हमारी ट्रेन लेट थी,दो बजे की बजाय पांच बजे आएंगी,,,हमने थोड़ी दूर स्थित प्रसाद की छोटी सी दुकान से कुछ मौलि, एवं इलाइची दाने के पैकेट खरीदें,, वापस लौट कर विश्राम किया,,ट्रेन चल पड़ी थी,स्टेशन पर हजारों दर्शनार्थियों की भीड़ अपनी अपनी गाड़ियों की प्रतीक्षा में थी,,हम अयोध्या को छोड़ कर अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर रहे थे,मन भावुक था,, और मन शांत,,,,ट्रेन के अंदर हलचल थी, और विचारों में भी,,, अलविदा अयोध्या!!! शत-शत प्रणाम!!

पद्मा मिश्रा
साहित्यकार
जमशेदपुर

0
0 0 votes
Article Rating
442 Comments
Inline Feedbacks
View all comments