अयोध्या:इतिहास के आईने में

अयोध्या:इतिहास के आईने में

हे राम,

जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !

तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.

इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य!

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है !

हे राम, कहांँ यह समय
कहांँ तुम्हारा त्रेता युग,
कहांँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहांँ यह नेता-युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान – किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !

ये पंक्तियाँ हिंदी साहित्य के बीसवीं शताब्दी के अग्रणी लेखक और नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर श्री कुंवर नारायण की लेखनी से नि:सृत है, जिसकी पृष्ठभूमि एक विशिष्ट स्थल का नाम पुकार रही है- निश्चय ही,अयोध्या। हांँ, वही अयोध्या, उत्तर प्रदेश का एक जिला,जो 28 राज्य और 9 केंद्र शासित प्रदेश वाले, दुनिया के सातवें सबसे बड़े क्षेत्रफल वाले देश भारत, के कुल 726 जिलों की उपस्थिति में राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अंतरराष्ट्रीय राजनीति का आकर्षण केंद्र बन जाता है आखिर क्यों और कैसे?

भारत, जो कि विभिन्न धर्मावलंबियों का देश है और जिसके संविधान ने धर्मनिरपेक्षता की नीति अपना रखी है, ऐसे देश में अयोध्या एक धर्म विशेष की आस्था के सम्मुख एक प्रश्न बन कर खड़ा हो जाता है। लेकिन भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका लगभग 492 साल पुराने इस प्रश्न का हल 9 अगस्त ,2019 को भारतीय जनता के समक्ष रख देती है, जिसके परिणाम स्वरूप 5 अगस्त ,2020 को भारत के तात्कालिक प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के हाथों राम जन्मभूमि स्थल पर एक विशाल मंदिर के नव निर्माण हेतु भूमि पूजन औरशिलान्यास संपन्न होता है। यह विजय है भारतीय इतिहास की, भारतीय न्यायपालिका की, भारत की धर्मनिरपेक्षता की और जिसका गवाह बन खड़ा है – -सरयू तट पर बसा उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला अयोध्या,जो स्वयं अपना मुख्यालय भी है।

” सोया हुआ इतिहास हिला है,
न्याय मंच से मंदिर मिला है,
हारा बाबर, जीता भारत,
मर्यादा पुरुषोत्तम राम मिला है।
लो राम भव्य मंदिर का सपना, हो रहा साकार।
वर्षों की तपस्या के बाद मिला यह अनुपम उपहार।।

भारत की प्राचीन नगरियों में से एक अयोध्या को हिंदू पौराणिक इतिहास में पवित्र सप्त पुरियों में शामिल किया गया है।

” अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवंतिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका:।।”

अर्थात् अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम, उज्जैन और द्वारिका- यह सात पुरियांँ मोक्षदायिनी हैं। अथर्ववेद में अयोध्या को “ईश्वर का नगर ” वर्णित किया गया है।

” अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पुरयोध्या।
तस्यां हिरण्यमय कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।”

अथर्ववेद में यौगिक प्रतीक के रूप में उल्लेखित अयोध्या हिंदू मंदिरों और घाटों का शहर है, जिसका महत्व इसके गौरवपूर्ण एवं समृद्ध प्राचीन इतिहास में निहित है। इस अति प्राचीन धार्मिक नगर के इतिहास का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षको के अंतर्गत किया जा सकता है-

1. प्रागैतिहासिक काल एवं वैदिक काल— इस काल में अयोध्या की जानकारी का मुख्य स्रोत आदि महाकवि वाल्मीकि द्वारा लगभग 600 ईस्वी पूर्व में संस्कृत भाषा में रचित अनुपम महाकाव्य “रामायण” है, जिसमें 6 अध्याय और 24000 श्लोक हैं और जो हिंदू रघुवंश के राजा राम की गाथा है। नंदूलाल डे, द जियोग्राफिकल डिक्शनरी ऑफ ऐश्येंट एंड मिडिवल इंडिया के पृष्ठ 14 के अनुसार श्रीराम के समय इस नगर का नाम अवध था। अनेक विद्वानों के अनुसार अयोध्या कोसल क्षेत्र के एक विशेष भाग अवध की राजधानी थी, जिस कारण इसे अवधपुरी भी कहा जाता था। अवध का अर्थ–” जहांँ किसी का वध न होता हो।”

रामायण के अनुसार मान्यता है कि इस नगर को विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु महाराज द्वारा सरयू नदी के तट पर बसाया गया और इसे अयोध्या नाम दिया गया, जिसका यह भी अर्थ निकाला गया ,अ- युध्य अर्थात “जहांँ कभी युद्ध नहीं होता।” इसे कौशल देश भी कहा जाता था।पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा से जब मनु ने अपने लिए एक नगर के निर्माण की बात कही तो वे उन्हें विष्णुजी के पास ले गए। विष्णुजी ने उन्हें साकेतधाम में एक उपयुक्त स्थान बताया। विष्णुजी ने इस नगरी को बसाने के लिए ब्रह्मा तथा मनु के साथ देवशिल्‍पी विश्‍वकर्मा को भेज दिया। इसके अलावा अपने रामावतार के लिए उपयुक्‍त स्‍थान ढूंँढने के लिए महर्षि वशिष्‍ठ को भी उनके साथ भेजा। मान्‍यता है कि वशिष्‍ठ द्वारा सरयू नदी के तट पर लीलाभूमि का चयन किया गया, जहांँ विश्‍वकर्मा ने नगर का निर्माण किया। स्‍कंदपुराण के अनुसार अयोध्‍या भगवान विष्‍णु के चक्र पर विराजमान है।

माथुर के इतिहास के अनुसार वैवस्वत मनु लगभग 6673 ईसा पूर्व हुए थे। ब्रह्माजी के पुत्र मरीचि से कश्यप का जन्म हुआ। कश्यप से विवस्वान और विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु थे।वैवस्वत मनु के 10 पुत्र- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध थे। इसमें इक्ष्वाकु कुल का ही ज्यादा विस्तार हुआ। इक्ष्वाकु कुल में कई महान प्रतापी राजा, ऋषि, अरिहंत और भगवान हुए हैं। इक्ष्वाकु कुल में ही आगे चलकर प्रभु श्रीराम हुए। शोधानुसार पता चलता है कि भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व चैत्र मास की नवमी को हुआ था।कहते हैं कि भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार पुन: राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया था। इसके बाद सूर्यवंश की अगली 44 पीढ़ियों तक इसका अस्तित्व बरकरार रहा। इस वंश का वृहद्रथ, अभिमन्यु के हाथों महाभारत युद्ध में मारा गया था। महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड़ सी गई लेकिन उस दौर में भी राम जन्मभूमि का अस्तित्व सुरक्षित रहा जो लगभग चौदहवीं सदी तक बना रहा।

बेंटली एवं पार्जिटर जैसे विद्वानों ने ‘ग्रह मंजरी’ आदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों के आधार पर इसकी स्थापना का काल ई.पू. 2200 के आसपास माना है। इस वंश में राजा रामचंद्रजी के पिता दशरथ 63वें शासक हैं।
इनकी राजधानी अयोध्या थी।

प्राचीन उल्लेखों के अनुसार तब इसका क्षेत्रफल 96 वर्ग मील था। वाल्‍मीकि रामायण के 5वें सर्ग में अयोध्‍या पुरी का वर्णन विस्‍तार से किया गया है।
वाल्मीकि कृत रामायण के बालकाण्ड में उल्लेख मिलता है कि अयोध्या 12 योजन-लम्बी और 3 योजन चौड़ी थी।

‘कोसल नाम मुदित: स्फीतो जनपदो महान।
निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान्।।’

अर्थात : ‘सरयू नदी के तट पर संतुष्ट जनों से पूर्ण धनधान्य से भरा-पूरा, उत्तरोत्तर उन्नति को प्राप्त कोसल (अयोध्या)नामक एक बड़ा देश था। नगर की लंबाई, चौड़ाई और सड़कों के बारे में महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं- ‘यह महापुरी बारह योजन (96 मील) चौड़ी थी। इस नगरी में सुंदर, लंबी और चौड़ी सड़कें थीं।’
वाल्‍मीकिजी अयोध्या की सड़कों की सफाई और सुंदरता के बारे में लिखते हैं, ‘वह पुरी चारों ओर फैली हुई बड़ी-बड़ी सड़कों से सुशोभित थी। सड़कों पर नित्‍य जल छिड़का जाता था और फूल बिछाए जाते थे। इन्द्र की अमरावती की तरह महाराज दशरथ ने उस पुरी को सजाया था। इस पुरी में राज्‍य को खूब बढ़ाने वाले महाराज दशरथ उसी प्रकार रहते थे जिस प्रकार स्‍वर्ग में इन्‍द्र वास करते हैं। महर्षि आगे लिखते हैं, इस पुरी में बड़े-बड़े तोरण द्वार, सुंदर बाजार और नगरी की रक्षा के लिए चतुर शिल्‍पियों द्वारा बनाए हुए सब प्रकार के यंत्र और शस्‍त्र रखे हुए थे। वहांँ के निवासी अतुल धन संपन्‍न थे, उसमें बड़ी-बड़ी ऊंँची अटारियों वाले मकान जो ध्‍वजा-पताकाओं से शोभित थे और परकोटे की दीवालों पर सैकड़ों तोपें चढ़ी हुई थीं। महर्षि वाल्‍मीकि लिखते हैं, ‘ सर्वत्र जगह-जगह उद्यान निर्मित थे। आम के बाग नगरी की शोभा बढ़ाते थे। नगर के चारों ओर साखुओं के लंबे-लंबे वृक्ष लगे हुए ऐसे जान पड़ते थे, मानो अयोध्‍यारूपिणी स्‍त्री करधनी पहने हो। यह नगरी दुर्गम किले और खाई से युक्‍त थी तथा उसे किसी प्रकार भी शत्रुजन अपने हाथ नहीं लगा सकते थे। हाथी, घोड़े, बैल, ऊंँट, खच्‍चर सभी जगह-जगह दिखाई पड़ते थे। राजभवनों का रंग सुनहला था। उसमें चौरस भूमि पर बड़े मजबूत और सघन मकान अर्थात बड़ी सघन बस्‍ती थी। कुओं में गन्‍ने के रस जैसा मीठा जल भरा हुआ था। नगाड़े, मृदंग, वीणा, पनस आदि बाजों की ध्‍वनि से नगरी सदा प्रतिध्‍वनित हुआ करती थी। पृथ्‍वी तल पर तो इसकी टक्‍कर की दूसरी नगरी थी ही नहीं। उस उत्‍तम पुरी में गरीब यानी धनहीन तो कोई था ही नहीं, बल्‍कि कम धन वाला भी कोई न था। वहांँ जितने कुटुम्‍ब बसते थे, उन सबके पास धन-धान्‍य, गाय, बैल और घोड़े थे।”इस प्रकार अयोध्या का इतिहास अत्यंत गौरवपूर्ण एवं समृद्ध है।

अब प्रश्न उठता है कि हिंदूओं के प्राचीनतम और सर्वप्रिय महाकाव्य रामायण का ऐतिहासिक महत्व क्या है? कुछ विद्वानों का मत है कि रामायण में बहुत कम ऐतिहासिक सामग्री विद्यमान है। जैकोबी और मैकडानैल का विचार था कि यह काव्य परम्परागत कथाओं पर आधारित है और उनके नायक एवं नायिकाएंँ ऐतिहासिक पात्र नहीं हैं। डॉक्टर वी.
ए. स्मिथ का कथन है,” मुझे तो यहकविता( रामायण) कल्पना की उत्पत्ति प्रतीत होती है और यह संभवतः कोशल और उसकी राजधानी अयोध्या से संबंधित किसी धुंधली सी पारंपरिक कहानियों पर आधारित थी।” परंतु अब इन विचारों को स्वीकार नहीं किया जाता। डॉ आर. सी. मजूमदार का मत है कि अपने ऐतिहासिक परिवेश में रामायण दक्षिण के पठार और दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति के विस्तार को बताती है।

2 बौद्ध एवं जैन काल—- सातवीं शताब्दी पूर्व के अंत से उत्तर प्रदेश का व्यवस्थित इतिहास आरंभ होता है। चूँकि बुद्ध ने अपना पहला उपदेश बनारस के निकट सारनाथ में दिया और उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिला देवरिया के कुशीनगर में ही परिर्निवाण प्राप्त किया, इसलिए अयोध्या भी बौद्ध धर्म के व्यापक प्रभाव में रहा। बौद्ध धर्म के अनुसार बुद्धदेव ने अयोध्या अथवा साकेत में 16 वर्षों तक निवास किया। यह नगर मगध के मौर्यों से लेकर गुप्तों और कन्नौज के शासकों के अधीन रहा।  सम्राट चंद्रगुप्त (शासन काल-लगभग330से 380ईस्वी), अशोक(शासन काल-लगभग235 ईस्वी से265 ईस्वी),समुद्रगुप्त ,चंद्रगुप्त द्वितीय(शासन काल-लगभग380से415ईस्वी), हर्षवर्धन(शासन काल-लगभग 606 से647 ईस्वी) आदि शासकों के शासनकाल में अयोध्या में बौद्ध संस्कृति का अधिकतम विकास हुआ। यहाँ पर सातवीं शाताब्दी में चीनी यात्री हेव्नसांग आया था और उसने इस नगर को ‘पिकोसिया’ संबोधित किया है।उसके अनुसार इसकी परिधि 16ली (एक चीनी ‘ली’ बराबर है 1/6 मील के) थी। उसके अनुसार यहाँ 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3000 भिक्षु रहते थे। 647 ईस्वी में हर्ष की मृत्यु के बाद हिंदूवाद के पुनरुत्थान के साथ ही बौद्ध धर्म का धीरे-धीरे पतन हो गया।
गौतम बुद्ध के समय कोसल के दो भाग हो गए थे- उत्तरी कोसल और दक्षिणी कोसल। अयोध्या या साकेत उत्तर भाग की और श्रावस्ती दक्षिणी भाग की राजधानी थी। कुछ विद्वानों के अनुसार श्रावस्ती श्री राम के पुत्र लव द्वारा बसाई गई थी और इसका स्वतंत्र उल्लेख मिलता है।
कुछ विद्वानों का मत है कि बौद्धकाल में ही अयोध्या के निकट नई बस्ती बन गई थी, जिसका नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में साकेत और अयोध्या- दोनों का नाम साथ-साथ भी मिलता है, जिससे दोनों के भिन्न अस्तित्व के बारे में जानकारी मिलती है। लेकिन कई विद्वानों ने अयोध्या और साकेत को एक माना है। कालिदास ने भी रघुवंशम में दोनों को एक ही माना है। कनिघंम ने भी अयोध्या और साकेत को एक ही नगर में समीकृत किया है। एक विवरण यह भी है कि अयोध्या के रानोपाली मंदिर में पाली भाषा में लिखे गए एक शिलालेख के अनुसार मौर्यों के उदय के बाद उनके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने अपने ही शासक वृहद्रथ की हत्या कर स्वयं को शासक घोषित कर दिया और साकेत नगर को अयोध्या में बदल दिया एवं स्वयं को चक्रवर्ती राजा घोषित कर अश्वमेध यज्ञ किया।

जैन मत के अनुसार, अयोध्या में 24 तीर्थंकरों में से 5 तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। क्रम से, पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ जी, दूसरे तीर्थंकर अजीत नाथ जी, चौथे तीर्थंकर अभिनंदन नाथ जी, पांँचवें तीर्थंकर सुमतिनाथजी और 14 वे तीर्थंकर अनंतनाथ जी। उक्त सभी तीर्थंकर इक्ष्वाकु वंश के थे। हिन्दुओं के मंदिरों के अलावा अयोध्या जैन मंदिरों के लिए भी खासा लोकप्रिय है। जैन धर्म के अनेक अनुयायी नियमित रूप से अयोध्या आते रहते हैं। जहांँ जिस र्तीथकर का जन्म हुआ था, वहीं उस र्तीथकर का मंदिर बना हुआ है। इन मंदिरों को फैजाबाद के नवाब के खजांची केसरी सिंह ने बनवाया था। इस तरह अयोध्या हिंदू धर्म के साथ-साथ जैन और बौद्धों का भी धार्मिक स्थान बना रहा।

3. मध्यकाल —- संपूर्ण उत्तर प्रदेश में ही हालांँकि 1000 से 1030 ईस्वी तक मुसलमानों का आगमन हो चुका था। यहांँ महमूद गजनी के भांँजे सैयद सालार ने तुर्क शासन की स्थापना की। वो बहराइच में 1033 ई. में मारा गया था। उसके बाद तैमूर के पश्चात जब जौनपुर में शकों का राज्य स्थापित हुआ तो अयोध्या शर्कियों के अधीन हो गया,विशेषरूप से शक शासक महमूद शाह के शासन काल में 1440 ई. में। 1526 ईस्वी में बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर मुगल वंश की नींव रखी। कहा जाता है कि मुगल राजा बाबर के सेनापति मीर बाकी ने 1528-29 ईस्वी में अयोध्या में ऐसे स्थल पर मस्जिद बनवाई थी, जिसे हिंदू अपने आराध्य देव भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं, जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था। 1528 ईस्वी तक बाबर का साम्राज्य वर्तमान अयोध्या तक पहुंँच गया था।अकबर ने जब 1580 ई. में अपने साम्राज्य को 12 सूबों में विभक्त किया, तब उसने ‘अवध’का सूबा बनाया था और अयोध्या ही उसकी राजधानी थी।

1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्योपरांत जब मुग़ल साम्राज्य विघटित होने लगा, तब अनेक क्षेत्रीय स्वतंत्र राज्य उभरने लगे थे। उसी दौर में अवध के स्वतंत्र राज्य की स्थापना भी हुई। 1731 ई. में मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह ने इस क्षेत्र को नियंत्रित करने के लिए अवध का सूबा अपने शिया दीवान-वज़ीर सआदत खां को प्रदान किया था और उसने अपने सूबे के दीवान दयाशंकर के माध्यम से यहाँ का प्रबंधन संभाला। इसके बाद उसका दामाद मंसूर अली ‘सफदरजंग’ की उपाधि के साथ अवध का शासक बना।उसका प्रधानमंत्री या प्रांतीय दीवान इटावा का कायस्थ नवल राय था। इसी सफदरजंग के समय में अयोध्या के निवासियों को धार्मिक स्वतंत्रता मिली। इसके बाद उसका पुत्र शुजा-उद्दौलाह अवध का नवाब-वज़ीर हुआ (1754-1775 ई.) और उसने अयोध्या से 3 मील पश्चिम में फैज़ाबाद नगर बसाया। शुजाउद्दौलाह ने नदी के तट पर एक दुर्ग का निर्माण करवाया था। उनका और उनकी पत्नी का मकबरा इसी शहर में स्थित है।कहीं-कहीं यह भी पढ़ने को मिलता है कि फैजाबाद को ईरानी वजीर सआदत अली खान के द्वारा 1722 ईस्वी में ही बसाया गया और इसे अवध की पहली राजधानी बनाया गया।

यह नगर अयोध्या से अलग और लखनऊ की पूर्व छाया बना। वस्तुतः इसी शुजा-उद्दौलाह के मरणोपरांत (1775 ई.) फैज़ाबाद उनकी विधवा बहू बेगम (इनकी मृत्यु 1816 ई में हुई) की जागीर के रूप में रही और उनके पुत्र आसफ-उद्दौल्लाह ने नया नगर लखनऊ बसाकर अपनी राजधानी वहाँ स्थानांतरित कर ली।

अयोध्या, फैज़ाबाद और लखनऊ तीन पृथक नगर हैं ,जो अवध के नवाब-वजीरों की राजधानी रही। इस राज्य का संस्थापक चूंँकि मुगलों का दीवान-वजीर था, अतः अपने शासन की वैधता के लिए वे अपने-आप को “नवाब-वजीर ” कहते रहें। फैजाबाद शहर के बसने के बाद भी अयोध्या अपने धार्मिक स्वरूप और धार्मिक पराकाष्ठा के कारण आम हिंदू जनमानस के बीच आस्था के केंद्र के रूप में विख्यात रहा।

वाजिद अली शाह अवध का अंतिम नवाब-वज़ीर था।उसके बाद उनकी बेगम हजरत महल और उनका पुत्र बिलकिस बद्र सिर्फ़ आंग्ल सत्ताधीशों से साल 1857-58 के दौरान लड़ते रहे। लेकिन 1856 के आंग्ल प्रभुत्व से अवध को मुक्त कराने में असफल रहे।

इसी वाजिद अली शाह के समय ‘सांप्रदायिक विवाद’ सर्वप्रथम हनुमानगढ़ी में उठा था और नवाब वाजिद अली शाह ने अंततः हिन्दुओं के हक़ में निर्णय देते हुए लिखा था:

“हम इश्क़ के बन्दे हैं, मज़हब से नहीं वाकिफ़।
गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या।”

हिंदुत्व और इस्लाम के टकराव ने कई नए मतों का विकास किया,जो इन दोनों और भारत की विभिन्न जातियों के बीच आम सहमति कायम करना चाहते थे। भक्ति आंदोलन के संस्थापक रामानंद( 1400 -1470 ईस्वी) और कबीर का प्रभाव अयोध्या की हवा में दिखता है। रामानंद जी का जन्म भले ही प्रयाग क्षेत्र में हुआ हो, रामानंदी संप्रदाय का मुख्य केंद्र अयोध्या ही बना रहा18वीं शताब्दी में मुगलों के पतन के साथ ही मिश्रित संस्कृति का केंद्र अवध( वर्तमान अयोध्या) में ही फला -फूला।

4. ब्रिटिश काल- 1856 ईस्वी में कंपनी ने अवध पर अधिकार कर लिया और आगरा एवं अवध संयुक्त प्रांत( वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे 1877 ईस्वी में पश्चिमोत्तर प्रांत से मिला दिया। भारत सरकार अधिनियम,1935 द्वारा इसका नाम छोटा कर केवल संयुक्त प्रांत कर दिया गया। 1880 ईस्वी के उत्तरार्ध से ही यह संयुक्त प्रांत स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी रहा, जिसने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। यह मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केंद्र रहा। इस संयुक्त प्रांत के अंतर्गत अंग्रेजों ने फैजाबाद शहर को एक जिला का दर्जा दिया और राम नगरी अयोध्या को इस जिले के अंतर्गत कर दिया।

5. स्वतंत्रता के पश्चात का काल— 1950 ईस्वी में नए संविधान के लागू होने के ठीक 2 दिन पहले सरदार पटेल ने 24 जनवरी,1950 को इस संयुक्त प्रांत का नाम उत्तर प्रदेश रखा दिया। तब से नवंबर ,2018 ईस्वी तक अयोध्या उत्तर प्रदेश प्रांत के अंतर्गत फैजाबाद जिले का हिस्सा बना रहा। मई ,2017 तक फैजाबाद की अलग नगरपालिका थी और अयोध्या शहर की अलग नगरपालिका थी, जिसका बाद में सूबे की भाजपा सरकार ने विलय करअयोध्या नगर निगम नाम से एक नए नगर निकाय को गठित कर दिया। 6 नवंबर, 2018 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या के राम कथा पार्क में चल रहे दीपोत्सव के मौके पर फैजाबाद जिले का नाम बदलकर श्री अयोध्या रख दिया।

” अपराजेय तुम्हारा गौरव, कीर्ति है सदा -सदा अमर”

अयोध्या को समर्पित इन पंक्तियों की सार्थकता वर्तमान अयोध्या जिला की माटी से जुड़े कुछ व्यक्तित्व का नाम लिए बिना साबित न होगी। बेगम हजरत महल( अवध के बेगम के नाम से प्रसिद्ध, वाजिद अली शाह की दूसरी पत्नी, 1857 ईस्वी के विद्रोह में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह )का जन्म फैजाबाद ,उत्तर प्रदेश में ही हुआ था। ” फैजाबाद के मौलवी ” के रूप में प्रसिद्ध अहमदुल्ला शाह ने 1857 के विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसका बार-बार उल्लेख जी.बी.मॉलसन ने भारतीय विद्रोह के इतिहास में किया है।23 मार्च ,1910 ईस्वी को अयोध्या जनपद में जन्मे( वर्तमान अंबेडकर जनपद) प्रखर चिंतक, समाजवादी राजनेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी श्री राम मनोहर लोहिया जी को कौन नहीं जानता। भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार, शिक्षाविद आचार्य नरेंद्र देव ने 1915 ईस्वी से 1920 ईस्वी तक फैजाबाद में ही वकालत की। वे बाद में असहयोग आंदोलन से जुड़ गए। अवध मे क्रांतिकारी वामचेतना के अग्रदूत राजबली यादव का जन्म 7 नवंबर ,1906 ईस्वी को अविभाजित फैजाबाद जिला( अब अंबेडकर नगर जिला) में हुआ था। ये वहीं राजबली यादव हैं, जिन्होंने सेनानी वसुधा सिंह के साथ मिलकर सुल्तानपुर थाने पर लगा अंग्रेजी सत्ता का प्रतीक यूनियन जैक उतारकर फाड़ा और उसकी जगह पर तिरंगा लहरा दिया। राजबली यादव जी की वामपंथी सोच 15 अगस्त, 1947 को मिली आजादी को केवल सत्ता हस्तांतरण मानती रही, असली आजादी नहीं और ताउम्र वे गरीबों, किसानों और मजदूरों की वर्गीय एकता को मजबूत करने के लिए जुझारू संघर्ष के परिचायक बने रहें।

कला और साहित्य की दुनिया से भी अयोध्या का गहरा संबंध रहा। अयोध्या राजवंश परिवार के सदस्य , प्रसिद्ध साहित्यकार, एक अच्छे सिनेमा संपादक और संगीत के बेहतर जानकार यतींद्र मिश्र ,जिन्हें उनकी “लता सूरगाथा” के लिए 65वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया। “लता : सुर-गाथा’ भारत-रत्न लता मंगेशकर और युवा अध्येता, कला मर्मज्ञ यतीन्द्र मिश्र के बीच 6 वर्षों तक चले लंबे सतत संवाद पर आधारित है। 1998 ईस्वी के साहित्य अकादमी पुरस्कार और 2005 ईस्वी के ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित कुंवर नारायण भी अयोध्या की वाटिका के ही पुष्प हैं। इतिहासकार लाला सीता राम भूप, जो अयोध्या के ही हैं ,जिनकी पुस्तक “अयोध्या का इतिहास”, राम जन्मभूमि प्रकरण में माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय में सर्वाधिक उद्धृत है।
वर्तमान अयोध्या जिले के इतिहास से भारत की स्वतंत्रता के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय जुड़ा हुआ है। वह है-19 दिसंबर 1927  को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अशफाकउल्ला खां को फैजाबाद जेल में फांँसी दी गई थी।अयोध्या में उनके शहादत स्थल पर हर साल श्रद्धांजलि कार्यक्रमों व समारोहों को आयोजित किया जाता है, हालाँकि नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर प्रदर्शन की आशंका के चलते  वर्ष 2019 में इसे स्थगित कर दिया गया था।

अब यह कहना गलत ना होगा कि अयोध्या की चर्चा तुलसीदास की चर्चा के बिना अपूर्ण रहेगी क्योंकि वे ऐसी हिंदू संत और कवि हैं जिन्होंने राम जन्मभूमि आंदोलन के लिए मुख्य उत्प्रेरक की भूमिका निभाई है।उन्होंने अपनी युगांतकारी रचना रामचरितमानस के द्वारा उत्तर और मध्य भारत के हर घर में भगवान राम की कहानी पहुंँचाई और भगवान राम एवं औसत हिंदू परिवार के बीच भावनात्मक जुड़ाव भी पैदा किया। एक अमेरिकन इंडोलॉजिस्ट और अमेरिका में हिंदी और आधुनिक भारतीय अध्ययन के प्रोफ़ेसर फिलिप लुटगेनडोर्फ ने,” द लाइफ ऑफ टेक्स्ट” में तुलसीदास की रामचरितमानस के बारे में लिखा है,” कवि तुलसीदास ने 16वीं सदी में भगवान राम की कहानी शुरू की तो वह आधुनिक भारतीय महाकाव्य के रूप में नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति के रूप में कही।” पश्चिम के कई विद्वानों ने इसे “उत्तर भारत का बाइबिल” कहा है और इसे अपने लोगों के बीच जीवंत दुनिया में सबसे अच्छी और सबसे भरोसेमंद मार्गदर्शक भी कहा। लुटगेनडोर्फ ने यह भी लिखा है – “तुलसीदास वास्तव में मध्यकालीन भारत में हिंदू पुनर्जागरण के सबसे अधिक समझे जाने वाले अग्रदूतों में एक हैं।”

अयोध्या सिर्फ भारत में ही मूर्त रूप में उपस्थित नहीं है, वह दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों में भी है, जहांँ 9 दिनों तक चलने वाली रामलीला का मंचन किया जाता है। अयोध्या के धार्मिक महत्व के बारे में यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य कहा जाता है कि भगवान श्री राम की लीला के अतिरिक्त अयोध्या में श्री हरि के अन्य सात प्रकाट्य हुए हैं, जिन्हें सप्त हरि के नाम से पुकारा जाता है। अलग-अलग समय देवताओं और मुनियों की तपस्या से प्रकट हुए इनके नाम हैं- गुप्तहरि, विष्णुहरि, चक्रहरि, पुण्यहरि, चंद्रहरि, धर्महरि , और बिल्वहरि। वर्तमान में अयोध्या की आध्यात्मिकता और धार्मिकता का मूर्त रूप राम जन्म स्थली पर निर्माणाधीन भव्य 161 फीट ऊंँचा,तीन मंजिला, 318स्तंभों से युक्त, लगभग 300 करोड़ रुपए की खर्च राशि से आगामी लगभग 3 से 3 1/2 साल में स्वरूप ग्रहण करने वाला राम मंदिर है, जो राष्ट्रीय -अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र होगा।

अंततः निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि अयोध्या प्रतीक है- निर्गुण और सगुण परंपराओं के बीच एक समान रूप से प्रभाव डालने का, एक निराकार ईश्वर की पूजा और गुणों के साथ एक ईश्वर को माना जाना । अयोध्या नगरी प्रतीक है– जीवनादर्श का,त्याग का, सही जीवन मूल्यों का, सुशासन का, आस्था की पराकाष्ठा का। अयोध्या का इतिहास इस संदेश को प्रसारित करता है कि अगर आक्रांताओं को देश की सीमा में घुसने देंगे तो वह केवल धरती का ही जय नहीं करेगी, केवल संसाधनों को ही नहीं लूटेगी अपितु हमारी अमूल्य संस्कृति और गौरवशाली धरोहर के चिन्हों को भी मटियामेट कर देने की कोशिश करेगी। आवश्यकता है इस सीख से सबक लेने की।

हरिओम पवार की यह पंक्तियांँ इस संदर्भ में बहुत कुछ कह जाती हैं-
” मैं भी इक सौगंध राम की खाता हूंँ,
मैं भी गंगाजल की कसम उठाता हूंँ,
मेरी भारत मांँ मुझको वरदान है,
मेरी पूजा है, मेरा अरमान है,
मेरा पूरा भारत धर्म स्थान है,
मेरा राम तो मेरा हिंदुस्तान है।”

रीता रानी
शिक्षिका
जमशेदपुर, झारखंड

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