साक्षात्कार

वरिष्ठ कवि एवं शिक्षाविद डा.अरुण सज्जन की षष्ठी पूर्ति के अवसर पर लिया गया साक्षात्कार

भगवती चरण वर्मा की काव्य चेतना शोध ग्रंथ, नीड़ से क्षितिज तक, संस्पर्श, उजास जैसे काव्य संग्रह, अक्षरों के इंद्रधनुष निबंध संग्रह जैसी कई पुस्तकों के रचयिता और कला संस्कृति, काव्य पीयूष, रामवृक्ष बेनीपुरी साहित्य अलंकरण सम्मान, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना शताब्दी साहित्य सम्मान, सेवक साहित्य श्री सम्मान वाराणसी जैसे अनेक सम्मानों से सम्मानित डॉ अरुण सज्जन 60 वसंत पूरा कर चुके हैं. उनकी लेखनी से हिंदी साहित्य समृद्ध होता रहा है. आज भी लेखनी उसी गति से चल रही है. इस पड़ाव में उन्होंने अपने साहित्यिक और वैयक्तिक जीवन की कई परतों को उजागर किया. थोड़ी पारिवारिक उलझन के बीच साहित्य सृजन करते रहे. पेश है उनसे बातचीत के मुख्य अंश :

सवाल : आप साहित्य सृजन में कब से जुड़े? सृजन के लिए किसे श्रेय देना चाहेंगे?
जवाब : बात वर्ष 1966-67 की है. मेरे पिता जी स्व. रामवृक्ष महाराज स्कूल में प्राध्यापक थे. उनके पास प्रेमचंद का कहानी संग्रह पांच फूल था. उस समय मैं पांचवीं-छठी में रहा हूँगा. मैंने यह पुस्तक पढ़ी. मुझे लगा काश ऐसा होता कि किसी पुस्तक में नीचे लेखक की जगह मेरा नाम भी होता अरुण कुमार सज्जन. तब मैंने चार चांद नाम से 4 कहानियों का संग्रह लिखा और नीचे लिख दिया अरुण कुमार सज्जन. इस तरह मेरा सृजन शुरू हुआ. इसका श्रेय प्रेमचंद को ही जाता है. वर्ष 1971 में बांग्लादेश बना. इसको लेकर इंदिरा गांधी काफी चर्चा में थीं. मैं आठवीं-नवमी का छात्र था. उस समय मैंने इंदिरा गांधी पर कविता लिखी, नारी में इंदिरा. जिसकी मूर्त रूप में पिताजी ने तारीफ की.

सवाल : साहित्य में आपके आदर्श कौन हैं और क्यों?
जवाब : आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री मेरे आदर्श हैं. वे मुजफ्फरपुर में रहते थे. मैं गया का रहने वाला हूँ. वर्ष 1984 में उनसे संपर्क हुआ. तब से जीवन भर जुड़ा रहा. ज्यों-ज्यों मैं निकट आता गया, रिश्ता पारिवारिक होता गया. शास्त्री जी एक निधि के रुप में हमेशा मेरे पास रहेंगे. उनकी पंक्ति मैं हमेशा गुनगुनाता रहता हूँ. उनमें कोई लाग-लगाव नहीं था. वे जमीनी व्यक्ति थे.

सवाल : आप साठ के मुकाम पर कैसा अनुभव कर रहे हैं?
जवाब : साठ की उम्र रिटायरमेंट की होती है. व्यक्ति बूढ़ा हो गया होता है. मतलब अनुभव से बूढ़ा. यहाँ पहुँचकर अच्छा लग रहा है. अपने पराए से जो अच्छे-कड़वे अनुभव मिले, वह मेरे पास है. मुझे लगता है कि अपनी नीयत और नीति अच्छा रखें तो आप कभी भी डगमगाएंगे नहीं. अपने उसूल पर रहा. इसलिए अकेलापन से कभी घबराहट नहीं हुई. जहाँ राम वहीं अयोध्या. अपने स्वभाव से आप किसी भी जगह को अयोध्या बना सकते हैं. नहीं तो घर में भी बेगाने हो जाएँगे.

सवाल : आपकी कितनी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, आगे क्या योजना है?
जवाब : मेरी प्रकाशित पुस्तकें 10 हैं. जिनमें तीन काव्य संग्रह, तीन आलोचना, दो पाठ्यपुस्तक और दो संपादित पुस्तकें हैं. इसके अलावा नौ पुस्तकें प्रेस में हैं. जो लॉकडाउन के बाद आ जाएँगी. वर्तमान में “मानस के स्त्री पात्र “का संपादन कर रहा हूं. यह अगस्त में ही आ जाएगी. आगे दशरथ मांझी पर कथा काव्य लिख रहा हूँ. यह भी इसी साल आ जाएगा. आधा काम हो चुका है. पिताजी के साहित्य जो पांडुलिपि में है, उसे रामवृक्ष महाराज : साहित्य सागर नाम से प्रकाशित करना है.

सवाल : आज के साहित्य और साहित्यकारों पर आपके क्या विचार हैं?
जवाब : आज लिखने की होड़ है. आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री कहते थे कोई बेसुरा राग में गाता जा रहा है, उसे गीत कहोगे? साहित्य वह है जो हमें जगाए, सुलाए नहीं. इस दृष्टिकोण से देखें तो आज कौन साहित्य लिख रहा है! साहित्यकारों में विखंडन आया है. खेमे में बट गए हैं सभी. साहित्य माने हित के साथ. हम अपने लोगों (साहित्य बिरादरी) के साथ ही हित नहीं कर रहे. यह साहित्य नहीं हो रहा है. साहित्यकारों ने साहित्य को बांटने की कोशिश की. प्रगतिवाद तक सब ठीक रहा. 1950 के बाद का काल, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श का हो गया. यहीं से साहित्य का भला नहीं हो रहा है.

सवाल : साहित्य में सम्मान का क्या महत्व है? आप साहित्यिक सम्मान पाकर कैसा महसूस करते हैं?
जवाब : मुझे लगता है सम्मान का अर्थ है संतोष. साहित्यिक पारितोषिक है यह. जो विश्वास जगाता है कि आपका काम सही दिशा में जा रहा है. इससे ज्यादा कोई बनाता है, योजनाबद्ध तरीके से सम्मान लेता है, इसे नियोजित करवाता है, तो दुख होता है. “सम्मान की वैशाखी से साहित्य नहीं चल सकता”. कबीर, तुलसी को कितना सम्मान मिला. सम्मान में बाजार में नहीं आना चाहिए. कोई ऐसा कर रहा है तो गलत करता है.

सवाल : आपके रचनाकर्म में पारिवारिक साथ कैसा है?
जवाब : मेरा समय पारिवारिक त्रासदी में बीता. पुत्री अर्चना मेरा संबल है. पत्नी किरण का उत्साह हमेशा मिला. अभी भी पारिवारिक स्थिति प्रतिकूल ही है. इससे मुंह मोड़ नहीं सकता. पंत जी की पंक्ति “वियोगी होगा पहला कवि” मैं इस वाक्य को नहीं भूल सकता. वियोग में ही कविता का स्फुटन होता है. “फिर अकेला मैं खड़ा हूँ”में मेरे दर्द हैं. जहाँ तक पत्नी की बात है तो मेरी किसी भी रचना की प्रथम श्रोता वही होती हैं. वह बढ़िया समीक्षक हैं. रचना को पास-फेल करना उन्हीं के हाथ में है.

सवाल : आपको किस चीज से लगाव है?
जवाब : मुझे प्रकृति से बेहद लगाव है. नदी, पहाड़ के सामने खड़ा होता हूंँ तो लगता है कि मैं इसमें साकार हो गया हूँ। प्रकृति में खुद को देखता हूँ। मेरी विधा कविता है. जेहन में सबसे पहले कविता ही आती है.

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