मानवाधिकारों का संरक्षण – बड़ी चुनौती
मानव, मानवता और मानव अधिकारों का संरक्षण आधुनिक समय में ऐसे विषय हैं ,जिन परबुद्धिजीवियों , विचारकों , समाज सेवियों का एक बड़ा समूह बड़े गर्व के भाव के साथ ही अपनी गहरी चिंता व्यक्त करता हुआ दिखाई देता है । विश्व में विभिन्न अवसरों पर होने वाले शिखर सम्मेलनों में राष्ट्राध्यक्ष और राज्याध्यक्ष इन विषयों पर विचार मंथन कर रहे हैं , ऐसे समाचार भी विभिन्न माध्यमों से हमें मिलते रहते हैं । इस चिंता के पीछे कारण यही है कि विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर समाज में उन मानव अधिकारों के हनन की दुर्घटनाएं भी बढ़ रही हैं , जो मानव को मानव परिवार का सदस्य होने के नाते मिल जाते हैं और जिन के विषय में प्रोफ़ैसर हैराल्ड लास्की ने कहा है – कि अधिकार मानव जीवन की वे परिस्थितियां हैं , जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता ।
मानवाधिकार वे सार्वभौम अधिकार है , जो व्यक्ति को उसके जन्म के साथ ही मिल जाते हैं और समाज तथा शासन पर इनके समुचित संरक्षण का दायित्व होता है ।
इन अधिकारों के संरक्षण के संदर्भ में व्यक्ति के द्वारा अपने बचपन से ही अधिकारों के उपभोग की बात की जाए तो नोबेल पुरस्कार विजेता श्री कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफ का योगदान अविस्मरणीय है , जो बाल श्रम -शोषण -दासता मुक्त विश्व की स्थापना के उद्देश्य के लिए बचपन बचाओ आंदोलन के माध्यम से निरंतर काम कर रहे हैं और दुनिया भर में भीख मांगने , अन्य लोगों के घरों, दुकानों , कारखानों में काम करने को विवश बच्चों को उनके मूलभूत अधिकार दिलाने के अभूतपूर्व सफल प्रयासों के लिए इस पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं।
बाल श्रम के विषय में चौंकाने वाली बात यह है कि पूरे संसार के बाल श्रमिकों में से 30% अर्थात 80 करोड़ बाल श्रमिक केवल दक्षिण एशियाई देशों से हैं।बात अविश्वसनीय सी लगती है किंतु विभिन्न संचार माध्यमों से प्रसारित आंकड़े बताते हैं कि भारत में भी लगभग 75 लाख बच्चे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गुलामी का जीवन बिता रहे हैं , जिनके मूलभूत अधिकारों के संरक्षण के लिए संघर्ष जारी है ।*श्री कैलाश सत्यार्थी द्वारा सुझाए गए “बाल दासता निरोधक अंतरराष्ट्रीय कानून” को 178 देशों की संसद पारित कर चुकी है , जिससे दुनिया के एक करोड़ों बच्चों को लाभ मिला है। दुनिया भर में बच्चों को जीने के अधिकार के साथ ही अन्य अधिकारों के उपभोग का समान अवसर मिले इस हेतु अनेक सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं कार्यरत है।
इस तथ्य से भला कौन असहमत होगा कि विश्व समुदाय में स्वतंत्रता और विकास को बढ़ावा देने हेतु हिंसक संघर्षों की रोकथाम , लड़कियों और महिलाओं के लिए समानता सुनिश्चित करने , टिकाऊ विकास को बढ़ाने , मानव पीड़ा को कम करने और न्याय संगत दुनिया के निर्माण के लिए सार्वभौम मानवाधिकार सशक्त माध्यम है , जिन के संरक्षण के लिए निरंतर प्रयास आवश्यक है।
स्मरणीय है कि 10 दिसंबर 1948 को मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा स्वीकार की गई , जिसके अंतर्गत प्रस्तावना के कुल 30 अनुच्छेद हैं , जिसमें सार्वभौम अधिकारों में जीवन जीने के अधिकार के साथ व्यक्तिगत सुरक्षा , स्वतंत्रता , शिक्षा , स्वास्थ्य , विवाह परिवार , राष्ट्रीयता और इसे बदलने , निष्पक्ष सुनवाई , कानूनी सहायता , आदि का विशेष उल्लेख है ।यह सार्वभौम घोषणा सभी राष्ट्रों और सभी लोगों के लिएमानवाधिकारों के स्तर को बनाए रखने के लिए एक मानक के रूप में समझी जाती है और यह मानव परिवार के सभी सदस्यों के जन्मजात गौरव और सम्मान तथा अहस्तांतरणीय अधिकार की स्वीकृति ही तो विश्व में शांति , न्याय और स्वतंत्रता की बुनियाद है , किंतु खेद का विषय है कि इतनी सशक्त व्यवस्था के होते हुए भी विश्व भर में प्रतिवर्ष हजारों निर्दोष लोगों को जीने के अधिकार से वंचित होना पड़ता है ।
वर्तमान समय में विश्व के प्रत्येक भाग में मानव अधिकारों के संरक्षण को एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है । युद्ध भूमि में बमबारी , भुखमरी से जूझ रहे आम नागरिक, मानव तस्करों के चंगुल में फंसे पीड़ित , शोषण और दासता की शिकार लड़कियां व महिलाएं , हताश मजदूर और किसान, सामाजिक कार्यकर्ताओं , पत्रकारों के अधिकारों का हनन , अल्पसंख्यक, प्रवासियों , शरणार्थियों , एलजीबीटी समुदाय के विरुद्ध बढ़ती घृणा आदि कानून के राज की बेबसी को बेपर्दा करते हैं । इन सभी बिंदुओं पर बहुत गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है ताकि समन्वित प्रयासों के माध्यम से सभी के लिए मानव अधिकारों को सुनिश्चित किया जा सके और मानवता का पोषण हो ।
मानवाधिकारों पर कुठाराघात रोकने के लिए प्रत्येक स्तर पर निष्ठा पूर्वक काम करने की आवश्यकता है।मानव अधिकारों के संरक्षण के संदर्भ में जीने के अधिकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती वैश्विक आतंकवाद को माना जा रहा है है । पिछले 15 वर्षों में वैश्विक स्तर पर आतंकवादी घटनाओं से होने वाली मौतों की घटना में दुगनी वृद्धि हुई है । सन 2000 में आतंकवाद से होने वाली मौतों की संख्या 329 थी जबकि सन् 2017 में बढ़कर यह 33658 दर्ज की गई । सिडनी ऑस्ट्रेलिया के इंस्टीट्यूट फॉर इकनोमिक एंड पीस द्वारा 2015 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार आतंकवाद पर पिछले 15 वर्षों में वैश्विक स्तर 283 बिलियन डॉलर का व्यय किया गया ।वर्ष 2019 के समापन पर आंकड़ों में जो वृद्धि हुई उसका अनुमान भी दुखदायी है ।.
वैश्विक आतंकवाद से सर्वाधिक नुकसान जिन देशों को हुआ उनमें इराक , अफगानिस्तान , नाइजीरिया , पाकिस्तान , सीरिया , भारत , यमन सोमालिया , लिबिया , थाईलैंड है ।इनके अतिरिक्त अन्य देशों में भी आतंकवादी घटनाओं , बम हमले , आत्मघाती हमले और युद्ध के मैदान में , आतंकवाद के द्वारा लाखों निर्दोष लोगों से जीने का अधिकार छीनकर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया ।ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि ऐसे आंकड़ों की चर्चा भी नहीं हो पाती , जो किन्हीं कारणों से दर्ज़ भी नहीं हो पाते ।
जीने के अधिकार को दूसरी बड़ी चुनौती विभिन्न कारणों से विभिन्न स्तरों पर होने वाला विभिन्न प्रकार का प्रदूषण है । संचार माध्यम से प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रदूषण के कारण वर्ष 2017 – 2019 में भारत में लाखों लोग मारे गए और दुनिया भर में यह आंकड़ा 85 लाख तक पहुंच गया । इस मामले में विभिन्न प्रकार के प्रदूषण से मरने वालों की संख्या मैं बढ़ोतरी की दृष्टि से भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है।
मानवाधिकारों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती भूख – गरीबी भी है ।बताया जाता है कि विश्व भर में हर 8 में से एक व्यक्ति भूख के साथ जी रहा है ।विश्व में 24 हजार व्यक्ति प्रतिदिन भुखमरी के शिकार होते हैं ।ऐसे समय में जब सभी तरफ मानव अधिकार विषय पर बढ़-चढ़कर बातें हो रही है, तो ये आंकड़े विश्व भर के नेताओं के लिये शर्मनाक हैं ।
स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता के कारण , बेरोजगारी और भूख के कारण हजारों लोग जीने के अधिकार से वंचित होते हैं । अकेले भारत में ही प्रतिवर्ष लगभग 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं । बड़ी शर्मनाक स्थिति है कि वर्ष 2014 – 16 तक के 3 वर्षों में ही लगभग 36 हजार किसानों और कृषि श्रमिकों ने बेबस होकर आत्महत्या कर ली । बाद के वर्षों में इन आंकड़ों में हुई वृद्धि और अधिक पीड़ादायक है ।
विश्व की लगभग आधी आबादी अर्थात महिलाओं के अधिकारों के हनन की बात की जाए तो स्थिति बेहद भयावह है। पिछले 2 वर्षों में भारत में ही महिलाओं पर विभिन्न प्रकार के अत्याचारों का आंकड़ा 125% बढ़ गया है । पिछले 3 वर्षों में दहेज , दुष्कर्म , घरेलू -हिंसा के कारण 3000 से अधिक महिलाओं की हत्या हुई बताई जाती है और हजारों मामले ऐसे भी हैं जो विभिन्न कारणों से कहीं दर्ज़ ही नहीं हो सके।
ऑनलाइन मध्यमों और तकनीक के विकास ने एक ओर सभी क्षेत्रों में कार्य – व्यवहार को अत्यंत सरल एवं सुगम बनाया है तो दूसरी ओर ऑनलाइन उत्पीड़न ,निगरानी , दमन और नफरत से अधिकारों के व निजता के हनन का खतरा भी बढ़ता ही जा रहा है ।
समाज में दलितों , पिछड़ों पर होने वाले अत्याचारों के कारण एक बड़ी संख्या उन लोगोंकी है ,जिन्हें स्वतंत्रता , समानता , निष्पक्ष न्याय प्राप्ति के अधिकार के साथ ही जीने के अधिकार से वंचित होना पड़ता है । इस संदर्भ में प्राप्त अनुमानित आंकड़े कम त्रासद नहीं है । ऐसी स्थितियां प्रगतिशील समाज की प्रगति में रुकावट का काम करती हैं , क्योंकि जो धनराशि और संसाधन लोक कल्याणकारी योजनाओं के लिए आरक्षित होते हैं , उन्हें इन परिस्थितियों से निपटने के लिए लगाना पड़ता है । परिणाम स्वरूप लोक कल्याणकारी समाज की स्थापना के लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग अधिक कठिन हो जाता है । किंतु उम्मीद की किरणें फिर भी हैं । मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ ही विभिन्न देशों की सरकारी एवं स्वयंसेवी संस्थाएं काम पर लगी हुई है ।
समाचार माध्यमों के अनुसार जिनेवा में 24 फरवरी 2020 को मानव अधिकार परिषद के 43 वें सत्र का उद्घाटन करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव श्री एंटोनियो गुटेरेश ने मानव अधिकार परिषद को संवाद और सहयोग का आधार बताते हुए कहा कि- “मानवाधिकार लोगों की गरिमा और मूल्य से जुड़े हैं और मानवता की सर्वोच्च अभिलाषा हैं ।”उन्होंने सभी के लिए मानवाधिकारों को भली-भांति सुनिश्चित करने हेतु; सात प्रमुख क्षेत्रों में ठोस कार्रवाई के लिए आह्वान किया । उस अवसर पर सात सूत्रीय कार्ययोजना में टिकाऊ विकास के मूल अधिकार, संकट के समय अधिकार , लैंगिक समानता और महिलाओं के लिए समान अधिकार, जनकल्याण के कार्यक्रमों में सार्वजनिक भागीदारी , भावी पीढ़ियों के लिए अधिकार, को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया ।
विश्व भर में मानवाधिकारों के लिए संघर्ष और सफलताएं अत्यंत प्रेरणादायक रहे है , जिनके कारण ओपनिवेशिक शासन और रंगभेद की नीतियां पराजित हुई तानाशाही शासन का अंत हुआ है और लोकतंत्र का प्रसार देखा जा रहा है।
सर्वत्र अपना वर्चस्व स्थापित करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाली और तथाकथित विकास एवं सभ्यता की अंधी दौड़ में बिना सोचे समझे सम्मिलित होने के लिए उकसाने वाली परिस्थितियों से जन – समाज को बचाने के लिए विश्व के सभी देशों की सरकारें अन्य उपायों के साथ जो कुछ बड़ी सरलता से कर सकती हैं, वो यह कि शिक्षा व्यवस्था में ऐसे सुधार किये जाएं , जिन से प्रत्येक व्यक्ति बचपन से ही मानवता और मानव अधिकारों का सम्मान और संरक्षण करने के लिए सुसंस्कारित हो सके ।
उर्मिला देवी उर्मी
साहित्यकार , समाज सेवी , शिक्षाविद
रायपुर, छत्तीसगढ़, भारत