बचपन के चंद लम्हे

बचपन के चंद लम्हे

पचास वर्ष से अधिक की जिंदगी को मात्र एक पन्ने में पिरोना नामुमकिन सा लग रहा है, क्या लिखे क्या छोड़े। बहुत सुखद यादों में से २ बाते मां को समर्पित है।
जिनको कभी व्यक्त नहीं कर पाई। मेरा जीवन उनके योगदान से पूर्ण है ____

भरा पूरा आंगन ,दादी-बाबा ,चाचा-बुआ सबको आना है ,मेरी गुड़िया (सोनी) की शादी “इला” के गुड्डे से होनी है।बारात में सभी दोस्तों को बुलाया है। उनके घर भी सारी रस्में शुरू हो गई है। सभी सहेलियों के भाई , बहन भी शामिल हुए।मां ने मेरी गुड़िया की साड़ियां और स्वेटर सुंदर से बना लिए है।खाने में गोलगप्पे, टिक्की , छोले पूरी सब होगा….गुड़िया की शादी कुछ ऐसे होती थी ।
हां! एक बात नहीं भूलती जब लड़के वालों की तरफ से सुनने में आया – अरे सोफ़ा भी माचिस की डिब्बी का लाई गुड़िया के दहेज में” ( उस वक़्त स्कूल में crafts में सिखाया जाता था, कुछ ऐसी थी ” गुड्डा गुडिया की शादी”।

बेटी के ये नाज़ुक ख्वाब जो उसने बचपन से संजोए होते है, छोटी छोटी सी खुशियां उसकी, दूसरे के आंगन को संवारती है।अक्सर मेरे अड़ोस पड़ोस में जब किसी की शादी होती तो सारा मोहल्ला एकजुट हो तैयारी में लग जाता। हमारी भी नई फ्रॉक मां हम दोनों बहनों के लिए फटाफट अपनी मशीन पर जल्दी से बना कर नापने लगती थी , वो अहसास आज तक नहीं भूलता और सच पूछो तो उसके कुछ मां के हाथ के काढ़े , लेस लगे कुछ टुकड़े मेरे ” बटुए” की शोभा बढ़ा रहे है।

हां ! पड़ोस की बुआओ की शादियां मेरे घर से ही हुई है ।सुबह से कमरे बारातियों के लिए खाली कर चादर और टेबल से सजा दिए जाते थे, उनके अपने घर में तो सिर्फ गीत संगीत होते , मेरे घर का आंगन , कमरे ,और बाग भी सजा सवार दिया जाता था। हलवाई के पास पड़ोस के ताऊ रामपुरिया जी की ही ड्यूटी रखी जाती थी क्योकि उनको ही सभी व्यंजनों के खूब परख थी।
अक्सर हमने बंगाली, ब्राह्मण ,कायस्थ परिवार की शादियां होते देखी ,जिसमे मेरी मां को आगे बढ़ चढ़ कर बेटियों को सजाते देखा ,अक्सर उनको विपरीत पक्ष वाले घर की भाभी ही समझते थे , मटर ,सब्जियां भगौनो में लेकर छील ने कि ड्यूटी बंधी होती थी, बारात बिदा होने के बाद भी सफाई की जिम्मेदारी हम सबकी होती थी, कैसे भूल जाएं ये सब बातें? कितना भेद आ गया समाज में ,बेटी की शादी एक मात्र दिखावा बन गया है सब चीजें फिल्मी अंदाज में तब्दील हो गई , कोई बिन बुलाए जाना तो दूर , जाकर भी बारातियों से कम नहीं होते। उनकी सेवा – पानी में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।

मेरी मां को हमेशा से समाज सेवा करते देखा । घर के कैंपस में दो घर थे। दूसरे पुराने घर को उन्होंने ” बाल विहार” अनाथ आश्रम के रूप में कर दिया था , जिसमें रिक्शे वाले, असहायों , अनाथ बच्चों को रखा जाता था। ऐसा नहीं कि मां के पास कोई अतिरिक्त इनकम थी, बाल विकास सुधार गृह की मदद से चलता था और बहुत सुंदर रुचि पूर्ण ढंग से कार्य होता था।उन १००-१५० बच्चो की दिनचर्या हम दोनों बहनों को बेहद भाती थी।
उनके साथ प्यार वश हम खाना, प्रार्थना, सभी प्रकार के कार्य जो उनको सिखाए जाते उसमे मां और संस्था कर्मचारियों का साथ देने के लिए हम भी उत्सुक रहते थे ,मेरी उम्र भी मात्र दस – बारह वर्ष की होगी। इससे उनका उत्साह भी दोगुना होता था।

कुछ वर्ष पहले तक वो बच्चे जो अब परिपक्व हो गए मिलने आते रहते हैं। आत्मनिर्भर होकर संतुष्ट क्योंकि संस्कार अच्छे मिले । मां के संस्कार के कारण ही समाज-सेवा मेरा स्वाभाविक स्वभाव में शामिल हैं और ईश्वर की कृपा से डिस्ट्रिक्ट 321A-2 लायनेस क्लब में सेक्रेटरी पद पर आयुक्त हूँ। जिससे मुझे आत्मसंतुष्टि का अनुभव हो रहा है। दिल को सुकून मिलता है जब आप करीब से निम्न वर्गीय परिवारों के काम आ सके।यदि हम किसी के काम आ सके तो इससे अच्छा ईश्वर की सेवा शायद ही होगी।
और अंत में सबसे बड़ी उपलब्धि मेरा गृहस्वामिनी से जुड़ना और उनके माध्यम से कुछ नया लिखने का प्रयास करना।

विनी भटनागर
नई दिल्ली

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