हस्त-रेखा को चुनौती
आज से साठ-सत्तर साल पहले एक मध्यम वर्ग परिवार में एक बेटी होने के बाद, मात्र ग्यारह महीने के अंतराल में दूसरी बेटी के रूप में जन्म लेना कोई खुशखबरी नहीं थी… परिवार के सारे प्यार, दुलार, और देखभाल की एक मात्र अधिकारिणी मैं कभी न बन सकी… पालने में ही शायद मुझे अहसास हो गया था कि मुझे अपना रास्ता खुद बनाना होगा… बड़ी बहन की उतरन पहनते, उन्हीं की पसंद का खाना खाते-पीते कब तेरह सावन बीत गए पता ही न चला…. एक दिन मेरे ताऊ जी ने, जो मेरी बड़ी बहन को बहुत प्यार करते थे, मेरी बहन का मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से मुझसे कहा, “ज़रा अपना हाथ तो दिखाना..(ताऊ जी को हस्त-रेखा का ज्ञान था.)” उन्होंने मेरी हथेली अपने हाथ में ली फिर क्षण भर भी न देखा होगा कि बोले, “मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह खिलंदड़ी लड़की सिर्फ मौज-मस्ती करेगी ….फिर मेरी बहन की पीठ थपथपाते हुए बोले, और मेरी प्यारी पढ़ाकू बिटिया….. विजयलक्ष्मी पंडित बनेगी …खूब पढ़ेगी ..नाम कमाएगी….”
उस दिन हँसी-मज़ाक में कही गई बात मेरे दिल की गहराइयों में उतर मुझे आहत कर गई … पहले तो मैं खूब रोई… माँ से ताऊ जी की शिकायत की…मन किया कि चाकू की नोंक से हाथ की रेखाएं बदल दूं … फिर माँ के बहुत समझाने पर एक फैसला ले लिया कि ताऊ जी को झूठा साबित करके रहूँगी ..मैंने संकल्प लिया कि जीजी से आगे बढ़ कर रहूँगी … वही हुआ……
इंटर करने के बाद जीजी की शादी हो गई.. मैं आगे पढ़ने और शीघ्र शादी न करने की जिद पर अड़ गई… उन दिनों सोलह साल पार करते न करते बेटियों की शादी कर दी जाती थी .. मेरी जिद के सामने किसी की न चली….बाबू जी ने कहा कि कक्षा में प्रथम आती रहोगी तो जब तक चाहोगी पढ़ सकती हो…रास्ता आसान हो गया… मैं अव्वल नंबरों से पास होती गई … हिन्दी विषय से मास्टर्स की डिग्री ली ….इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में टॉप किया … वजीफा हासिल किया…. शादी के बाद एक और चुनौती का सामना करना पडा.. अंग्रेजी और अंग्रेजियत पसंद माहौल में अपना वर्चस्व बनाए रखने की चुनौती …
बच्चों को अँग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाने के लिए अंग्रेजी का सिर्फ ज्ञान काफ़ी न था. उन दिनों स्कूलों में बच्चों को सिर्फ और सिर्फ अँग्रेजी में बोलना पड़ता था. हिन्दी बोलते हुए पकड़े जाने पर सज़ा मिलती थी. अतः घर पर भी बच्चों को अंग्रेज़ी बोलने का अभ्यास आवश्यक था.. मैं निःसंकोच गलत-सही बोलती रही…… मेरे पति व बच्चे सुधारते रहे, नतीज़ा अच्छा निकला … जब मेरे बड़े बेटे ने ऑल इंडिया जेईई परीक्षा में टॉप किया, तो लोग उसके साथ-साथ मुझे बधाई दे रहे थे…
एक बार की घटना है कि किसी सम्मेलन में मुझे भाषण देने के लिए इसलिए बुलाया गया था क्योंकि लोग देखना चाहते थे कि जेईई टॉपर की माँ कैसी होती है..
कैसी दिखती है, कैसे बच्चों को पालती है… यह सब सोच कर आज मुझे हँसी आती है। कानपुर आई आई टी से कंप्यूटर इंजीनियरिंग, अमरीका में पीएचडी करके बड़ा बेटा टोरंटो यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर है। छोटे बेटे ने आर्किटेक्चर किया सफलतम यूनिवर्सिटी से….
बच्चों को एक मकाम तक पहुँचाने के बाद मैं अपनी दुनिया में लौट आई. हिंदी की दुनिया में …..
मुझे पेंटिंग का शौक था बचपन से, ऑइलपेंटिंग के दस-बारह कैनवास डाले. …गाने-नाचने का शौक था, तो अलग-अलग संस्थाओं के साथ जुड़ी और शौक पूरे किये…. लिखना-पढ़ना जारी रहा, पूरी तन्मयता से…..
मिसेस नीलकंठन ने, जिन्हें आज शिक्षा के क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान मिला है, उस समय यानी 1981में मुझसे कहा था कि घर में बैठकर मुझे अपनी प्रतिभा का अनादर नहीं करना चाहिए… डी.बी.एम.एस.स्कूल में ग्यारहवीं-बारहवी कक्षा में हिन्दी विषय की शुरुआत हो रही है आप से अच्छी टीचर भला और कौन होगी …
आज मैं उनकी आभारी हूँ ..लगता है उन्होंने मुझे नया जीवन दिया ..अब परिवार में मेरे सम्मान के साथ-साथ हिन्दी का भी सम्मान होने लगा….फिर अध्यापन क्षेत्र में भी खूब प्रसिद्धि मिली …पति का ट्रांसफर कलकत्ते हुआ तो वहाँ जी.डी.बिड़ला में अध्यापन किया ..दोबारा जमशेदपुर आई तो सेक्रेट हार्ट कोंवेन्ट में +2 को हिंदी पढ़ाने के लिए सिस्टर फ्लेवियन ने घर संदेशा भिजवाया. वहाँ भी बहुत आदर-सम्मान मिला…
परिवार व उसकी जिम्मेदारियां मेरे लिये सदा शीर्ष पर रहीं …हमेशा परिस्थियों से समझौता करते हुए अपने लिए नए रास्ते तलाशती रही .. जब अध्यापन छोड़ना मज़बूरी बना तो लिखना शुरू कर दिया .. लेखिका बनने का बीज तो बचपन में ही पड़ चुका था … छोटी-छोटी कविता और कहानी स्कूल की मैगज़ीन में छप चुकी थी….
सही समय, अनुभव और किसी भी मसले पर गंभीर सोच ने प्रेरित किया लिखने के लिए … फिर एक बार जो लेखनी चल पड़ी तो फिर विराम कहाँ….
इन्हीं दिनों बहुभाषीय साहित्यिक संस्था ‘सहयोग’ की सदस्य जूही समर्पिता, जो आज संस्था की अध्यक्ष और मेरी छोटी बहन सदृश हैं, ने मेरा परिचय संस्था की गतिविधियों से कराया और सदस्य बनने का आग्रह किया …उस क्षण को मैं जितना भी धन्यवाद दूं कम होगा ….उस समय की अध्यक्ष स्वर्णा सिन्हा दी’ थी, परिपक्व लेखिका के साथ-साथ स्वर्णा दी’ कुशल नेतृत्व के गुण रखतीं थीं .उनके सानिध्य में बहुत कुछ सीखा…आज वो हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी कमी हम सदा महसूस करते हैं …
सहयोग से जुड़कर मुझे साहित्यिक गतिविधियों का एक माहौल मिला, साहित्योन्मुख सखियों के साथ विचार-विमर्श, साहित्यिक विधाओं के आदान-प्रदान ने जैसे किसी सुप्त चिंगारी को हवा दे दी और वह धू-धू कर जल उठी… ठीक वैसे ही मेरी साहित्यिक चेतना जागृत हो किसी मुकाम पर पहुँचने को उद्धत हो गई… मैंने नियमित रूप से लिखना शुरू किया ..पत्र-पत्रिकाओं ने मेरे लेखन को सहर्ष स्वीकृति दी और रचनाएँ छपने लगीं … आकाशवाणी से कहानियों का प्रसारण भी होने लगा…
राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका जैसे हँस, वनिता, सखी, में रचनाएँ प्रकाशित हुई … दैनिक भास्कर, जागरण,प्रभात-खबर आदि समाचार पत्रों के साहित्यिक पृष्ठ पर भी कविताएं , लघु कथा प्रकाशित हुई
जमशेदपुर का एंथम लिखा ….. इस प्रतियोगिता को जीतना आसान न था…. दैनिक जागरण ने शहर का एंथम लिखने की प्रतियोगिता रखी तो अनगिनत लोगों ने भाग लिया… फिर जागरण कार्यालय स्तर पर काट-छांट कर चार सौ का चुनाव हुआ जिसमें से दस कविताओं का चुनाव तीन प्रतिष्ठित कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्षों ने किया.. फिर वो दस चुनी हुई कवितायें फिल्म-जगत के प्रसिद्ध कवि-लेखक प्रसून जोशी जी को भेजी गई और उन्होंने जमशेदपुर पर लिखी मेरी कविता को सर्वश्रेष्ठ चुना … इस एंथम को स्वरों में ढाला एवं गाया फिल्म-जगत के ही अति लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध संगीतकार -गायक आदेश श्रीवास्तव जी ने… उसके बाद कैसेट्स बने …उसपर नुक्कड़-नाटक हुए ….सांसद अजय कुमार ने विमोचन किया …खूब वाहवाही हुई …
दो कहानी संग्रह .. “और बादल छंट गए” तथा “चूड़ी वाले हाथ” प्रकाशित हुए…. अनेक संस्थाओं ने पुरस्कृत किया….राष्ट्रीय स्तर पर मेरठ तक ख्याति पहुंची ..उनके निमंत्रण पर वहाँ जाकर पुरस्कार ग्रहण किया …
देश की अति वरिष्ठ जानी-मानी लेखिका निर्मला ठाकुर जी के शब्द रखना चाहूंगी उन्होंने ‘और बादल छंट गए’ की भूमिका में लिखा है ..“सुधा गोयल ‘नवीन’ की कहानियां एक पारदर्शी तरीके से जिन्दगी से जुड़ी हैं. कुछ इस तरह कि आप जिन्दगी के कंधे पर अपना गर्म और अपनापन भरा हाथ रखें और वह पलट कर बिल्कुल बेबाक नज़रों से आपको देखे… जीवन के सुख..दुःख…उसकी त्रासदी …उसकी न ख़त्म होने वाली समस्याएं…उसकी मज़बूत जिजीविषा सब कुछ साफ़ शफ्फाक ढंग से आपके सामने है ..इनमें न तो चौंकाने वाले विषय हैं और न उलझाने वाली दुःखद शैली.. सीधी..सच्ची…और सरल ये कहानियां हमारे आस-पास को बहुत पास-पास ला देती हैं ..”
डॉ. जूही समर्पिता जैसी शिक्षाविद की माँ वीणा जी, जिन्हें हम सभी प्यार और आदर से माँ बुलाते है, जो स्वयं में शिक्षा, साहित्य और संस्कार की उपमा हैं, प्रेरणा हैं, पटना विश्वविद्यालय की पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं, ने मेरी रचनाओं के विषय में लिखा है,.“सुधा जी जैसी संवेदनशील लेखिका ने केवल नारी जीवन की त्रासदी को देखकर अन्तरंग, आत्मीय चित्रण ही नहीं किया वरन दलित, शोषित, प्रताड़ित, कुंठित समाज के हर वर्ग की पीड़ा और छटपटाहट को चित्रित किया है ..हमारे संक्रमणशील समाज के बुनियादी प्रश्न सामने खड़े किये हैं ..इसमें केवल समस्याओं की पहचान ही नहीं है,समाधान भी है …”
शिक्षाविद, प्राचार्या, साहित्य मर्मग्य, अद्वितीय वक्ता डॉ. मुदिता चंद्रा ने कहा,“सुधा गोयल उन सशक्त कथाकारों में से एक हैं जिनकी कहानियों के पात्र काल्पनिक होते हुए भी सत्य प्रतीत होते हैं, परोक्ष होते हुए भी अपरोक्ष के सदृश प्रभाव डालते हैं ..इनकी कलम की यह सार्थकता है कि उनकी कहानियों के पात्र देशकाल का अतिक्रमण करके व्यष्टि और समिष्टि के जीवन में चेतना उत्पन्न करते हैं..”
डॉ. जूही समर्पिता शिक्षाविद, प्राचार्या, ‘सहयोग’ संस्था की अध्यक्ष, अति संवेदनशील बहन ने कहा, “सुधा गोयल ‘नवीन’ ने अपने इर्द-गिर्द बिखरी टूटी-फूटी जिंदगियों को संवार कर सजा कर उसके सकारात्मक पक्ष को पाठकों के सामने रखा है ..सुधा जी ने समाज की नब्ज़ पर अपने अनुभवी हाथ रख कर उसके दर्द को सकारात्मक सन्देश देने की साहित्यिक जिम्मेवारी बखूबी निभाई है .”साहित्यिक सफ़र की कोई मंजिल नहीं होती..आप आगे बढ़ते जाते हैं और नया आकाश छूने की लालसा बढ़ती जाती है ..
अंत में मैं गृहस्वामिनी और अर्पणा संत सिंह को धन्यवाद देना चाहूँगीं जिनकी प्रेरणा से मैंने अपने अतीत के गलियारे का सफ़र आपके साथ पूरा किया…आज के लिए बस इतना ही …फिर मुलाक़ात होगी..फिर बातें होंगी..
सुधा गोयल ‘नवीन’
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड