पहला झरोखा (मैं और नानी)
मैं शायद पाँच साल की… खड़ी हूँ नानी के साथ। चेन्नई का मैलापुर इलाक़ा। स्त्री, पुरुष, युवा सभी कीमती रेशमी कपड़ों में सजे, मैं और नानी सामान्य पर पारम्परिक वस्त्रों में…नानी नौ गज की साड़ी में, मैं सूती पावाड़ा में। सामने मंच पर सुर बद्ध चार संगीतकारों के समूह में कर्नाटक संगीत की अद्भुत अभ्याससिक्त, पूर्वनिश्चित क्रम की पद्धति में सर्प सी घूमती स्वरलहरी। सबको अपने इस मंत्र पाश में बांध रही आवाज़ डी के पट्टम्माल् की है जो हमारी रिश्तेदार हैं और नानी उनकी महत प्रशंसिका। नानी का संगीत प्रेम ऐसा कि हम वहीं जगह न होने के कारण लगभग डेढ़ घंटे खड़े रहे… नानी और मैं सुनते रहे, एक होकर, उनके व्यक्तित्व का अव्यक्त रसमय हिस्सा मेरे भीतर, पोर-पोर से प्रवेश कर गया। मौन रसास्वादन का वह क्षण…जिसमें बिना विटामिन के नानी ने मुझे पुष्ट कर दिया और जीवन में एक आयाम अनजाने ही जुड़ गया। कचेरी(संगीत सभा) खतम हुई। नानी पट्टम्माल से मिलकर बधाई दिये बिना नहीं जाना चाहती थीं। पर मेरी भूख और गहराती रात का तकाजा था कि लौट चलें। मंच से उतरीं पट्टम्माल की नज़र हम पर पड़ती इसके पहले हमने घर की ओर अपनी पदयात्रा शुरू की। हाँ, सब जगह पैदल ही चल कर जाना होता। नानी नौ गज की तमिल शैली की साड़ी में लंबे डग भरतीं, मैं उनकी हथेली में उँगली सुरक्षित कर कुछ पीछे सही पर उत्साहपूर्वक कदम मिलाने की कोशिश करती चलती। नानी में हमेशा किसी मंज़िल तक पहुँचने का जोश रहता था। बहुत सी चुनौतियाँ थीं उनके सामने। क्या था उस पीढ़ी के लालन-पालन में! आर्थिक तंगी होती थी, उससे जुड़ी समस्याएँ भी किंतु न जीने का उत्साह मरता था, न मारा जाता था। हाँ,सभ्य समाज के तौर-तरीक़े न निभाये तो डाँट पड़ती, कला कौशल या घर-बाहर के काज कौशल सीखने में आलस दिखाया तो डाँट पड़ती थी, जीवन मूल्यों की मर्यादा निभाने में कोताही की तो मार भी पड़ती थी।
ये थी नानी कि शख़्सियत। मज़िलें बनाना और उस तक पहुँचने की शिद्दत उन्हीं से सीखी शायद। रास्ते में मुझे चुप करने के लिये नुक्कड़ की पान दुकान से एक ओरेंज मिठाई ख़रीदी जाती। ज़्यादा नहीं बस दो या एक… जिसे चूसते हुए मेरी राह कट जाती। रास्ते का अंत होता बड़ी नानी के घर । समय होने पर खाने के लिये कहा जाता। नानी अपने लिये मना करतीं, मुझे बिठा देतीं खाने के लिए। नानी के शब्द या उनका बोलना मुझे इतना याद नहीं बस किया याद है। क्यों मुझे खाने पर बिठाया ये याद है पर खुद क्यों नहीं बैठीं इसकी समझ न थी। रिश्तेदारों के घर, समुंदर किनारे, मंदिर, सब्ज़ी मंडी कौन सी ऐसी जगह थी जहाँ हम चलकर नहीं गए! बाद के सालों में जब महात्मा गांधी को पढ़ने का अवसर मिला तो ज्ञात हुआ कि उनकी ये बात कि किसी शहर को या लोगों को जानना हो तो पैदल चलकर ही जाना जा सकता है कितनी सच । अक्सर इस सलाह की सच्चाई अलग-अलग मौक़ों में भभक कर मेरे सामने आई है। अब भी पास की दूरियाँ चल कर तय करना अच्छा लगता है यदि हो पाया तो!
नानी का आज़ादी की लड़ाई और प्रणेता महात्मा गांधी जी से भी अपना भावनात्मक रिश्ता था। इसी जोश में उन्होंने हिंदी सीखी थी और घर में या अन्यत्र स्त्रियों को हिंदी पढ़ाने का कार्य करतीं थीं ऐसा सुना उनके छात्रों से! मेरा जन्म तो बाद में हुआ पर शायद बड़ों की संगति से मिले कुछ संस्कार आनुवंशिकता को जन्म दे सकते हैं! सब कुछ मन और माहौल का खेला है।आगे अच्छा लगे तो और सुनाऊँ?
नानी उत्तम आधुनिक ब्राह्मण कुल जन्मी मद्रासन। यानी पारम्परिक मूल्य, रहन-सहन, खान-पान और भाषा ज्ञान और साथ ही आत्मविश्वासी। ऐसी नानी जब हम चार बच्चों को सम्भालने में हाथ बँटाने हमारे घर आयीं तब उन्हें महत् चुनौती का सामना करना पड़ा ! वह ये कि हमारे घर का बहुत अहम् सदस्य जिमी था जिससे निभाना उनकी समझ के बाहर की चीज़ थी। चार बच्चे और एक कुत्ता जो बाद में छः बच्चों की माता निकली। पिताजी का फ़ितूर कि हर कुत्ते का नाम जिमी ही रखा जा सकता था। भले जिमी नाम कुतिया का नहीं हो सकता ! छः-सात साल की उम्र में ये सोचने की बुद्धि न थी कि घर में जो कुत्ता है वह कुत्ता है या कुतिया! ख़ैर, हम बच्चों और पिता के क्रीड़ा-कौतुक में फँसे जिमी को कभी पेड़ पर चढ़ाया जाता, कभी पाइप से गंगा स्नान कराया जाता, बचा दूध चुपके से पिला दिया जाता, चिल्लाती आवाज़ों के कोरस के साथ खूब दौड़ाया जाता । बेचारा-री ख़ुश था या तंग था ज्ञात नहीं। यहाँ तक तो ठीक था किंतु जब जिमियानी के बच्चे हुए तो हमें सम्भालना नानी के लिये असंभव हो गया। हम बच्चों की पिल्लों के लिये बेक़ाबू मोहब्बत और भाग-दौड़ ने नौ गजी साड़ी वाली नानी गरिमा को कम्पित कर दिया। ऊपर से अनुशासन प्रिय दामाद के बच्चों से सम्बद्ध तक़ाज़े जिसकी ज़िम्मेदारी उन पर! नानी अपने कड़क दामाद के सामने अपना आत्मविश्वास दबाकर ही प्रकट करती थीं। हमारी भी शायद यही सोच थी कि हमारी हर माँग को पूरा करना नानी का कर्तव्य है। इन छः पिल्लों में एक था बड़ा कमजोर! इस भाग-दौड़ में हमेशा पीछे। एक दिन नानी ने सख़्ती से हमें पीछे के बरामदे में खेलने से मना कर दिया। उस तरफ़ रसोई घर था और त्योहार होने की वजह से शायद प्रसाद बन रहा था। जो हो पूरी मनाही थी वहाँ जाने की पर बाहर धूप थी। पिल्ले वहाँ गलती से घुसे ये नानी के लिए अकल्पनीय था! वे खाना छोड़ देतीं ऐसा होने पर! हम तो दूर ही रहे पर कमजोर पिल्ला जब पानी पीने आया तो शायद वहीं कहीं रह गया। जब नानी ने उसे देखा तो पाप की भयंकर कल्पना से भयभीत चिल्लाईं और जो हाथ में मिला उसे उस पर फेंका और हमारी अदालत की सबसे बड़ी मुजरिम बन गयीं।
उन्हें पता था कि हमारी कानाफूसी में उनके अन्याय और क्रूरता का रामायण पढ़ा जा रहा है। दुखद बात ये कि उस शाम को वह पिल्ला मर गया। कई दिनों तक हमने इतनी ज़िम्मेदारी के साथ हमें सम्भालनेवाली नानी की खूब कठोर टीका-टिप्पणी की। बच्चों भी निर्दयी हो सकते है!
अब याद आता है कि कड़ी धूप में पानी खतम हो जाने के कारण वह कमजोर पिल्ला मरा होगा। नानी ने तो उस पर वहाँ रखा अख़बार ही दे मारा था। हम बच्चों ने बड़े मिट्टी के बर्तन में पिल्लों के लिये पानी रखने की क्यों न सोची! जब तक वह पिल्ला। पहुँचा पानी शायद खतम हो चुका था।
जब कोई हादसा होता है तो उसका ज़िम्मेदार कोई अकेला नहीं होता….!
राधा जनार्धन
साहित्यकार
त्रिवेंद्रम