मेरी कहानी
आत्मकथा ! कैसा विचित्र सा शब्द है ? आत्मा तो शाश्वत है, अनादि है अनंत है। स्वयं पूर्ण ब्रह्म है । उसकी क्या कथा हो सकती है? मेरी, तेरी, सारे जीव-जंतु की यहाँ तक कि पेड़ पौधों की भी आत्मा तो एक ही है । संभवतः बात हो रही है इस नीरजा नामक जीव की जिसे इस आत्मा ने फिलहाल ओढ़ रखा है ।
पहले तो यह लगा कि ऐसा क्या विशिष्ठ है नीरजा की कथा में कि सारे जग को बताया जाए । फिर पीछे मुड़ कर देखा तो इन्द्रधनुषी रंगों में सरोबार कुछ ऐसे दॄश्य नज़र आये कि लिखे बग़ैर रहा भी न गया । कुछ छह से ऊपर दशकों की यह गाथा तत्कालीन भारत के, उत्तर प्रदेश के और थोड़ी देर पश्चात् दक्षिण में कर्नाटक और सुदूर पूर्व में मणिपुर के इतिहास से ऐसी घुली मिली है जैसे कि कपडे में ताना और बाना ।
मेरा जन्म स्वतंत्र भारत में हुआ । विभाजन का गहरा सदमा और रोष अभी भी स्पन्दित था।अंग्रेज़ों ने एक लहू लुहान और पूर्णतः विभाजित भारत पीछे छोड़ा था। भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री और तत्कालीन गृह मंत्री लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने विलक्षण दूर दृष्टि और कूटनीति का प्रदर्शन करते हुए पांच सौ से भी अधिक रियासतों को स्वतंत्रता मिलने के समय ही भारत मे सम्मलित करवा लिया था। हैदराबाद के निज़ाम के लिए तो फ़ौज तक भेजनी पड़ी पर उसे भी पटरी पर आना ही पड़ा।
पर इन सब बड़े बड़े खिलाडियों से दूर पूर्व में एक छोटी सी रियासत थी मणिपुर की ।उसे भी जबरदस्ती १९४९ में, जब कि तत्कालीन महाराजा बुद्ध चंद्र जी शिलॉन्ग की राजबाड़ी में थे, ज़ब्त कर लिया गया । बाद में जब मेरा सम्बन्ध इस राजघराने से जुड़ा तो मैंने पाया की वह मणिपुर के सम्मान पर एक ऐसा कुठाराघात था जिसे वहां के लोग विशेषतहः राजपरिवार अब तक नहीं भुला पाया है। महाराजा बुद्धचंद्र एकांत वासी हो गये और कुछ समय पश्चात् उनकी मृत्यु भी हो गई । कभी कभी निर्णायक, देश के लिए उचित और समयानुसार कदम भी व्यक्तिगत या एक समुदाय विशेष के लिए क्षोभ का कारण बन जाते हैं।
महात्मा गाँधी की निर्मम हत्या हो चुकी थी।भारत गणतंत्र भी बन चुका था । पिता नवल किशोर जी अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद एक अच्छी नौकरी पर थे पर बापू के अव्वाहन पर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे । १९५२ में भारतीय संविधान के अंतर्गत हुए पहले चुनाव को जीत कर उत्तर प्रदेश की पहली विधान सभा में विधायक थे । माँ कौशल्या देवी, विवाह के समय इंटरमीडिएट पास थीं और फिर उन्होंने मेरे जन्म के बाद बी ए और फिर पोलिटिकल साइंस और हिन्दी साहित्य में डबल एम ए किया । उन्हें गीता, उपनिषद और वेदान्त के अध्ययन में हमेशा बड़ी निष्ठा रही । मेरी बड़ी बुआ गिरिजा देवी ‘निर्लिप्त’ जी, जिनका मेरे ऊपर बहुत प्रभाव रहा है, स्वयं परदे से बाहर निकल स्वतंत्रता सेनानी रहीं थीं, कवियत्री थीं संस्कृत में एम ए और दर्शनाचार्य थीं ।
मेरा जन्म यू.पी के एक छोटे से शहर रामपुर में हुआ पर ६ महीने की उम्र में माँ के साथ लखनऊ में बड़ी बुआ जी के घर आ गई। पापा अधिकतर अपने चुनाव क्षेत्र आंवला (जिला बरेली) में रहते थे। पत्नी और एक छोटी सी बच्ची को न साथ रख सकते थे और न ही अकेले छोड़ सकते थे। उनकी बड़ी बहन लगभग १२- १३ साल बड़ी थीं और हमारी दादी के असामयिक निधन पर अबोध छोटे भाई को माँ के समान संभाला था। उनके अपनी कोई संतान नहीं हुई। पापा ही उनके छोटे भाई और पुत्र दोनों रहे ।
मेरा बचपन का माहौल देशभक्ति और साहित्य से ओतप्रोत था । पिता जी को राम प्रसाद बिस्मिल के देश भक्ति के गीत और उर्दू साहित्य के शेरो शायरी पसंद थे और बुआ जी के यहां कवि गोष्ठियाँ हुआ करती थीं जिसमें नामी गिरामी साहित्यकार आते थें। ग्यारह साल तक इकलौती संतान रही । बाद में गुड़िया जैसी एक बहन मिली ।तो हमउम्र भाई बहन के साथ खेलना संभव न था । पापा भी कभी कभार मिलते थे।
एक बार पापा गोविन्द बल्लभ पंत जी से मिलने जा रहे थे । मैं यह कोई ढाई तीन साल की थी । ज़िद कर के पापा के साथ हो ली। पंत जी उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे। मैंने उन्हें बाबाजी कह कर सम्बोधित किया ।उन्होंने जब मुझे गोदी लिया तो मुझे उनकी लम्बी सफ़ेद मूछें खींचने का मन हुआ। उनका हिलता हुआ सिर भी काफी रोचक था । मुझे आज भी याद है सबसे अच्छी बात थी कि उन्होंने मुझे रसगुल्ले खिलाये थे । काफी वर्षों बाद जब पापा मंत्री बने तो हम उसी घर में रहे जहाँ मैं पंत बाबा जी से मिली थी। मैंने बाबा जी को बोला था कि आपका घर तो बहुत अच्छा है ।उन्होंने पूछा तुम यहाँ रहोगी ? हमने कहा हाँ पर अपने पापा के साथ । जब वह सच हो गया तो पापा के राजनैतिक दायरे में काफी हंसी मज़ाक का विषय रहा ।
जब मैं लखनऊ के मॉडल मोन्टेसरी स्कूल में पढ़ती थी, पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे।हम सब बच्चे उनका जन्मदिन १४ नवम्बर को स्कूल में मनाते।एक बार जब वह लखनऊ आये तो कुछ बच्चे हमारे स्कूल से भी उनके स्वागत के लिए गए ।नेहरू जी को फूलमाला देने का काम मुझे सौंपा गया । चाचा नेहरू, दमकता हुआ गौर वर्ण, किसी ने लाल तिलक भी मस्तक पर लगा दिया था । मैं ने बड़े उत्साह और प्रसन्नता से उन्हें फूल दिए और उन्होंने झुक कर वह फूल मुझे ही पहना दिए ।बड़ा अच्छा लगा । बाद में मुझे भी अपने कार्यकाल में बहुत फूल मालायें मिली । मैंने भी कभी उन्हें बच्चों में बांटना नहीं भूला ।
मैं स्कूल में ही थी जब लखनऊ से फूलपुर (नैनीताल के पास ) के लिए डकोटा विमान की उड़ान का उद्घाटन हुआ । मेरी उसमे जाने की तीव्र इच्छा थी । उसके पहले कभी विमान में सफर भी नहीं किया था । पापा ठहरे पक्के गांधीवादी । वह तो मेरी कुछ भी मदद नहीं करते । तो मैंने स्वयं तत्कालीन शिक्षा मंत्री जी, जिन्हे मैं ताऊ जी कहती थी, से कह कर अपना मामला फिट करा लिया । पापा ने जब मुझे एयरपोर्ट पर देखा तो बहुत अचंभित हुए ।उस समय तो कुछ नहीं बोले पर बाद में मुझे समझाया कि मैंने अपने संपर्क का दुरूपयोग किया । मुझे बुरा लगा ।ठीक से समझ भी नहीं आया ।क्या गलत था ? बाद में पापा के प्रति और श्रद्धा जगी जब उनकी बात का पूरा अर्थ आत्मसात हुआ ।उसके बाद तो जीवन में मैंने भी पूरा प्रयत्न किया कि अपने बच्चों को भी यह फर्क और ज़िम्मेदारी अच्छे से सिखा सकूं ।
उस बार की नैनीताल यात्रा में लाल बहादुर शास्त्री जी नेहरू जी की सरकार में मंत्री थे ।पापा और शास्त्री जी नैनीताल की मल्ली ताल की सड़क पर किसी विषय में चर्चा करते हुए घूम रहे थे और शास्त्री जी की काली एम्बेसडर गाड़ी (केवल एक) उनके पीछे जा रही थी | उन दिनों यह सब सिक्योरिटी और सुरक्षा की इतनी कड़ी व्यवस्थिता नहीं होती थी । मैं भी साथ थी ,थक गयी तो उसी गाड़ी में सो गयी, उठी तो नैनीताल क्लब जहाँ हम ठहरे थे वहीँ नींद खुली।आज कल छोटे मोटे नेता के लिए भी साईरन बजाती अनगिनत गाड़ियां और बन्दूक ताने विशिष्ठ सुरक्षा दल आस पास घूमते रहते हैं | इन कुछ दशकों में ही हम कहाँ से कहाँ आ गए ?
नेहरू जी के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी ने देश की बागडोर संभाली।भारत पाकिस्तान के १९६५ के युद्ध के पश्चात् संधि प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने शास्त्री जी ताशकंद गए । उसी रात ताशकंद में शास्त्री जी का बड़ी रहस्यात्मक परिस्थितियों में देहांत हो गया। यह गुत्थी आज तक नहीं सुलझी है पर वह नैनीताल वाली धुंधली सी याद आज तक मेरे साथ है।
बचपन से वयस्क होने तक मैंने बहुत बदलाव देखे ।समाज में छुआछूत को कम होते देखा । पापा के मंत्री होने के बावज़ूद हमारा जीवन स्तर एकदम मध्यमवर्गीय था । माँ इतनी अधिक शिक्षित होने पर भी खुद ही खाना बनाती थीं । ऑफिस के चपरासी सिर्फ ऑफिस का ही काम करते थे। ईमानदारी की पराकाष्ठा थी । लखनऊ के दसहरी आम प्रख्यात हैं। गलती से कोई एक टोकरी अपने बाग़ से लेकर आ गया और किसी नए आदमी ने वह टोकरी अंदर रखवा ली । पापा को पता चला तो कहर मच गया| उस समय लगा कि यह तो कुछ ज़्यादा ही हो रहा है । पर बाद में समझा कि आरम्भ इन्ही छोटी छोटी बातों से ही होता है।
आज के कनेक्टिविटी के इस युग में अजीब सा लगे पर मेरे बचपन में टेलीफोन इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं था । काले रंग का बड़ा सा यंत्र जिसमें गोल गोल घूमने वाला डायल होता था । महीनों की लंबी क़तार होती थी कनेक्शन लेने के लिए । रेडियो भी सिर्फ फिलिप्स का एक डब्बे की तरह होता था और हाथ से घुमाने वाला ग्रामाफोन । हमारे यहाँ वह भी नहीं था । काला सफ़ेद टीवी काफी बाद में आया जब हम दिल्ली आ गए पापा के राज्य सभा के सांसद होने के बाद ।मैं स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय रिक्शे या बस से ही जाती थी।
हमारा परिवार प्रगतिशील और आधुनिक समझा जाता था पर अधिकांश लड़कियों का विवाह उनके बी ए पास करने पर कर दिया जाता था । अधिक से अधिक एम ए कर के अध्यापिका बन जाओ ।बहुत महत्वाकांक्षी हो तो डॉक्टर बन जाओ ।मेरे लखनऊ विश्वविद्यालय से साइकोलॉजी में एम ए करने के बाद रिसर्च करने का और लेक्चरर बनने का प्रस्ताव आया क्योंकि यह ऑफर हर प्रथम स्थान पाने वाले को दिया जाता था । मुझे प्रथम डिवीज़न, प्रथम रैंक और स्वर्ण पदक सभी मिले थे । सबको लगा की मैं यह स्वर्णिम अवसर हाथ से जाने नहीं दूँगी | पर मुझे तब तक आईएएस की परीक्षा में बैठने का कीड़ा काट चुका था । पर कम उम्र होने के कारण एक वर्ष तक मैं लिखित परीक्षा नहीं दे सकती थी ।
डी. सी. एम्. ग्रुप ऑफ़ इंडस्ट्रीज़ उन दिनों अपने मैनेजमेंट ट्रैनीस (management trainees) का चुनाव करने के लिए एक बेहद प्रतिष्ठित प्रतियोगिता का आयोजन करते थे ।उसमे लिखित परीक्षा और दो इंटरव्यूज होते थे । यह परीक्षा लगभग आईएएस की भांति कठिन मानी जाती थी ।चूंकि मेरे पास एक साल था, मैंने उसमे भी भाग लिया और सफल भी हो गयी । मुझे श्री भरत राम जी की अध्यक्षता में श्रीराम केमिकल इंडस्ट्रीज (SCI) के कोटा (राजस्थान) के फ़र्टिलाइज़र प्लांट के लिए चुना गया । प्रशिक्षण के लिए मैं उनके दिल्ली में झंडेवालान वाले ऑफिस में नियुक्त की गई । श्री एम एल सेठ एमडी (MD) थे ।
उस समय मेरी तनख्वाह पांच हज़ार रूपए प्रति माह थी । मैं वहां क़रीबन डेढ़ साल रही । मेरे लिए भारत के निजी क्षेत्र के बड़े कॉर्पोरेट वर्ल्ड का यह अनुभव बहुत मूल्यवान रहा । आईएएस में सफल होने के बाद श्री एम एल सेठ स्वयं बधाई देने मेरे केबिन में आये थे ।पांच हज़ार की नौकरी छोड़ कर ४०० रूपए की बेसिक तनख्वाह वाले आईएएस को चुनने में थोड़ा सा दुःख भी हुआ । यही नहीं मैं SBI की प्रोबेशनरी प्रतियोगिता में भी उत्तीर्ण हो गई थी | वहां भी बेसिक वेतन (आईएएस से अधिक) १२०० रूपए प्रति माह था । मगर आईएएस के सामने इन सबका कोई मुकाबला भी तो नहीं था ।
जनवरी १९६६ में इंदिरा प्रियदर्शिनी गाँधी भारत की प्रधान मंत्री बन गईं थीं ।उनके कार्यकाल की कितनी भी आलोचना क्यों न कर ली जाये, उन्होंने १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान के विभाजन में और एक नए राष्ट्र बांग्लादेश के स्वाधीनता संग्राम में जो भूमिका निभाई उसकी सराहना तो उनके कटु आलोचक भी करने पर विवश हो जाते हैं । मैं आईएएस की परीक्षा की तैयारी कर रही थी जब भारत का पाकिस्तान से १९७१ में बांग्ला देश को स्वाधीन करने के लिए युद्ध हुआ।
हम सब दिल्ली में नार्थ एवेन्यू में रहते थे ।घर के सारे कांच के शीशे वाले दरवाज़े और खिड़कियां मोटे भूरे रंग के काग़ज़ से ढक दी गई थीं । साईरन के बजने पर घर की बिजली गुल करके हम सब बाहर एक बंकर में आ जाते थे । शुरू में जब साईरन बजता और लड़ाकू विमान रात के अँधेरे आसमान में उड़ान लगाते तो डर भी लगता था । पर कुछ दिनों में आदत सी हो गई ।१६ दिसम्बर १९७१ का वह ऐतिहासिक क्षण था जब लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा के समक्ष नब्बे हज़ार से ऊपर पाकिस्तानी सैनिकों के साथ लेफटिनेंट जनरल नियाज़ी ने ढाका में आत्मसमर्पण कर दिया ।
आईएएस की लिखित परीक्षा पास करने के बाद, इंटरव्यू में पहले कुछ सवालों के बाद बोर्ड के एक माननीय सदस्य ने अचानक कहा कि अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन और उनके विदेश मंत्री किसिंजर ने इंदिरा जी को कोल्ड ब्लडेड वुमन (cold blooded woman) कहा । आपकी क्या प्रतिक्रिया है ? सामान्यतः थोड़ा सोच समझ कर जवाब देना होता है पर बिना सोचे और बिना झिझके मेरे मुँह से निकल पड़ा, यह तो प्रशंसा है (it’s a compliment sir)|
बोर्ड के सदस्यों ने अचंभित होकर कई प्रश्न कर डाले । एक क्षण के लिए तो मैंने भी सोचा कि यह क्या कह दिया ।पर तीर तो निकल चुका था । अपनी घबराहट पर काबू पाकर मैं भारत की विदेश नीति पर आ गई । मैंने उस दौरान के कोल्ड वॉर वाले वातावरण में जहाँ अमेरिका और रूस दो सुपर पावर्स थे, अमेरिका पाकिस्तान के बेहद क़रीब था तथा भारत अपनी गुट निरपेक्ष नीति के बावजूद रूस के निकट समझा जाता था, के बारे में विस्तार से चर्चा की ।इंदिरा जी ने एक तरह से अमेरिका को उसकी औकात दिखा दी थी । ऐसे में प्रतिस्पर्धी का यह कहना प्रशंसा ही कहलायेगा । यहाँ से इंटरव्यू बेहद रोचक हो गया । सामान्यतः २० या २५ मिनट चलने वाला इंटरव्यू ४५ मिनट चला ।
यहाँ तक तो फिर भी ठीक था पर मसूरी में प्रशासनिक अकादमी में प्रशिक्षण के समय मैंने जब सुदूर पूर्व के मणिपुर के राजकुमार, जो मेरी ही बैच में मेरे साथ आईएएस थे , से विवाह की इच्छा जताई तो बवाल खड़ा हो गया । मेरी जन्म पत्री में कहीं लिखा था कि पूर्व से विवाह का प्रस्ताव आयेगा । सब ने सोचा कि शायद बिहार में शादी होगी । मगर यहां बात हो रही थी कलकत्ता से भी दूर मणिपुर में इम्फाल की । पापा को पता था पर माँ और बुआ जी ने भारत का नक्शा निकाला । कहाँ है यह जगह ? वहां तो केवल जन जातियां ही होती हैं । फिर पता चला कि घाटी के मैतेयी तो पक्के वैष्णव हैं । चैतन्य महाप्रभु से प्रभावित हो कर मणिपुर के राजा ने जो कि मैतेयी थे वैष्णव धर्म को अपना लिया था । उनके साथ सारी घाटी में रहने वाली मैतेयी प्रजा भी हिन्दू हो गई | पहाड़ों पर अभी भी नागा, कूकी और अन्य जन जातियां रहती हैं |
मेरे पति, जो शिलॉंग और दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़े, को हिंदी काम चलाऊ ही आती थी | उनके और मेरी माँ और बुआ जी के बीच का वार्तालाप अभी भी काफी हंसी का विषय बना हुआ है | एक दिन बुआ जी को आसपास न पाकर उन्होनें बड़ी शिष्टता और गम्भीरता से पूछा, “बुआ जी भाग गई क्या ?” माँ सकते में आ गई। कुछ देर बाद पता चला कि प्रश्न यह था कि बुआ जी क्या कहीं चली गई हैं? मेरे विवाह ने तहलका सा मचा दिया था पर अब रिश्तेदारों के दायरे में कश्मीरी, अमेरिकन (श्वेत और श्याम दोनों वर्ण) हर जगह के लोग हैं । परन्तु पहल मुझे ही करनी पड़ी थी।
मुझे अपने ३८ वर्षों के कार्यकाल में कर्नाटक और केंद्र सरकार के कई प्रमुख पदों पर नियुक्त होकर देश और समाज की सेवा का दुर्लभ अवसर मिला । बहुत अनुभव हुए । साथ साथ में दो बच्चे भी बड़े हुए जो आजकल विदेश में हैं | मैं कर्नाटक राज्य के प्रमुख सचिव के पद से सेवानिवृत्त हो कर अपने पति के साथ गुडगाँव में निवास करती हूँ ।
पापा केवल ५६ वर्ष की अल्पायु में चले गये थे । बुआ जी तीन दशक पहले गुज़र गईं। माँ पिछले २० सालों से मेरे साथ थीं । ईश्वर ने उनकी सेवा का अवसर दिया । इस साल ८ जनवरी को ९५ वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया । पापा, बुआ जी और माँ तीनों ही चले गये । बस उन सब की बातें , उनकी हँसी और उनकी यादें स्मृति के किसी कोने में एकाएक गूँज उठती है।
अभी तो सिर्फ जीवन के ढाई दशकों के बारे में ही बताया है और शब्दों की सीमा लक्मण रेखा बन कर आड़े आ गई ।पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त । पर वह कहानी कभी और सही कहीं और सही।
नीरजा राजकुमार
सेवानिवृत्त मुख्य सचिव, कर्नाटक
गुडगांव