मेरा परिचय
मेरा नाम आशा मुखारया है।मैंने राजनीति शास्त्र से एम. ए. किया है।मेरे पति डा. पी. एस. मुखारया है।वो हिस्ट्री के प्रोफ़ेसर थे।मेरा बेटा विवेक कम्प्यूटर इंजीनियर है,यहाँ अमेरिका में सिटी बैंक में काम करता है और
मेरी बहू निधि भी कम्प्यूटर इंजीनियर है।वो भी जॉब करती है।दो पोते हैं,बड़ा पोता इंजीनियर होकर अटलांटा में जॉब करता है और छोटा पोता इंजीनियरिंग के चौथे साल में है।
मैं इंडिया में मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर की रहने वाली हूँ ।मेरा ससुराल सागर का है और बहू भोपाल की हूँ।मेरे पिताजी बी. एस. चौकसे अंग्रेजों के ज़माने में डिप्टी कलेक्टर थे माँ पार्वती चौकसे केवल चौथी हिंदी तक पढ़ी थीं।पर वो पिताजी के साथ क्लब जाती थीं ।सीधा पल्ला वो भी सिर पर बराबर रहता था ।अपने संस्कारों को बिल्कुल नहीं छोड़ा था।अंग्रेज मेम के साथ बैडमिंटन खेलती थी।उन्हीं से हम लोगों ने भी बैडमिंटन खेलना सीखा था।
हम लोग सात बहनें चार भाई थे।उस ज़माने में ज़्यादा बच्चे होते थे और बड़ी आसानी से पल जाते थे।पिताजी की नौकरी में ट्रांसफ़र बहुत होते थे।बाद में हम लोगों की पढ़ाई की वजह से पिताजी अकेले जाते थे और माँ हम लोगों को लेकर जबलपुर में रहती थीं। उस समय भोपाल की राजधानी नागपुर थी।१ नवम्बर १९५६ को नया मध्यप्रदेश बना और उसकी राजधानी भोपाल बना।मेरे पिताजी सेक्रेटरी बन गये थे।वो नागपुर से ही रिटायर हुये थे।फिर धीरे-धीरे हम सब भाई बहनों की पढ़ाई पूरी हुई और धीरे-धीरे सबकी शादी हो गई ।
मैं सागर आ गई ।वो ज़माना बिल्कुल अलग था।औरतों का बाहर निकलना घूमना नही हुआ करता था ।मुझे पढ़ने लिखने का बहुत शौक़ था।लगा यहीं रहूँगी तो मेरे तो पंख ही कट जायेगें।पतिदेव के साथ विदिशा जहां उनकी नौकरी थी।सोचा ,यहाँ शायद मेरे पंखों को उड़ान मिल जाये।बहुत छोटा शहर था ।पुराने विचारों के लोग थे।
फिर मेरा बेटा हो गया तो उसको पालने में समय चला जाता था।इनका ट्रांसफ़र छोटे-छोटे शहरों में होता रहा।आख़िर में हम लोग पन्ना शहर में आये ।फिर वहाँ की महिला समिति की मैं सदस्य बनी।मुझे सोशल वर्क करने का भी बहुत शौक़ था।यहाँ आकर मुझे मौक़ा मिला।धीरे-धीरे कुछ सालों के बाद मैं पन्ना ज़िले की महिला समिति की प्रेसिडेंट बन गई ।लगातार दस सालों तक मैं वहाँ की प्रेसिडेंट रही।मैंने पन्ना की जनता के लिये बहुत काम किया।
फिर ट्रांसफ़र होकर जबलपुर आ गये ।तब तक बेटा जापान चला गया और वहीं से अमेरिका आ गया।फिर ये जबलपुर से ही रिटायर हो गए ।बेटे ने अमेरिका बुलाया ।१९९० में पहली बार हम लोग अमेरिका घूमने आये ।तब लगता था कि वाक़ई हम स्वर्ग में आ गये हैं।
मेरा लेखन शुरू हो चुका था।मेरी अब तक पाँच किताबें छप चुकी हैं।१९९२ में बेटे की शादी हुई।हम लोग अमेरिका आते जाते रहे।फिर बेटे ने कहा कि अब आप लोग यहीं हमारे पास सेटिल हो जाओ।इस उम्र में यहाँ अकेले कब तक रहेंगे ।पर तब तक हम लोगों ने कुछ सोचा ही नहीं था।बाद में सोचा कि ठीक है अब बेटे के पास ही रहेंगे ।पहले ग्रीन कार्ड लिया ,उसके पाँच साल बाद सिटीज़न शिप मिली।
२००६ में हम लोग पूरी तरह से अमेरिका में सेटिल हो गये।यहाँ पर और अच्छी तरह से लिखने को काफ़ी समय मिला।बची खुची कसर फ़ेसबुक ने पूरी कर दी।यहाँ रहने का निर्णय हम लोगों का बिल्कुल सही था।बेटे बहू पोते सब बहुत अच्छी तरह से रखते हैं।मेरे बेटे ने हम लोगों को क़रीब- क़रीब पूरा अमेरिका घुमा दिया।तीन बार क्रूज़ पर भी हो आये।इटली,फ़्रांस व लंदन भी घुमा दिया।
२००६ में मेरे पति नहीं रहे।यहाँ बहुत बीमार हो गये थे।बच्चों ने बहुत सेवा की ।तबसे अकेलापन लगता है,पर बच्चे बहुत ख़्याल रखते हैं।फ़ेसबुक,लिखने पढ़ने में समय पास हो जाता है।यही मेरा परिचय है।
आशा मुखारया
साहित्यकार
अमेरिका