जब आप जंग पे निकली थीं, अस्पताल को
मेरे बाग़ में फलों से
भरा एक दिव्य वृक्ष है,
वृक्ष यह वृक्ष
मेरे बाग़ की
मुस्कुराहट है;
मुस्कुराहट यह मुस्कुराहट
जा रही है कल अवकाश पर!
अवकाश उस अवकाश पर
जहाँ सँवारा जाएगा
मेरे पसंद की मुस्कुराहट की शाख़ को,
शाख़ उस शाख़ को
जिसे घायल किया है
प्रकृति के किसी सांप ने!
सांप यह सांप
नहीं जानते,
इनके डंक डरा ही सकते है
कुछ शाख़ों, कुछ फलों को
कुछ कलियों कुछ फूलों को
पर ऐसे मुस्कुराते पेड़ों की
जड़े होती हैं
जड़े वह जड़ें,
जो पालती है साँपो के समूह को
ओढ़ कर अक्सर चंदन का दामन!
फल, फूल, कलियाँ, ख़ुशबू
जिस वृक्ष का स्वभाव हो,
स्वभाव उस स्वभाव
में रहती है बहती है
ताक़त,
ताक़त वह ताक़त
अंतर्मन की ताक़त
हराएगी यह ताक़त
हर उस ज़हर को
जिसकी नज़र में
मेरे बाग़ के वृक्ष की
मुस्कुराहट है!
मुस्कुराहट यह मुस्कुराहट
जल्द ही लौटेगी
अवकाश से;
मेरी, आपकी, हम सबकी मुस्कुराहट;
मुस्कुराती है जिससे
हमारी लेखनी
मुस्कुराती है जिससे
हमारी कृतियाँ
हाँ….
मुस्कुराता है जिससे
वातायन परिवार!
(दिव्या जी को समर्पित जब आप जंग पे निकली थीं, अस्पताल को)
पद्मेश गुप्त
लन्दन
साहित्यकार, डायरेक्टर ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड बिसनेस कॉलेज.