दिव्या माथुर का ‘आक्रोश’
नेहरु केन्द्र के एक दूसरे कार्यक्रम के दौरान दिव्या ने मुझसे पूछा कि तुम्हें मेरी किताब पढ़ने का मौक़ा अभी मिला है कि नहीं? अट्ठारहवीं शताब्दी के अंग्रेज़ लेखक रेवरेंड सिडनी स्मिथ के एक प्रसिद्ध कथन के अनुसार, किसी पुस्तक की समीक्षा बड़ा घातक हो सकता है। मेरे दिव्या के आक्रोश से जूझने का परिणाम यह हुआ कि मुझे अहसास हुआ कि दिव्या की दृष्टि में–उसे हम ‘दिव्य-दृष्टि’ ही क्यों न कहें?–सन्तुलन और समंवय की कोई कमी नहीं है, और जब वे पुरुषों की गतिविधियों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से टिप्पणी करती हैं तो उनके मन में समझदारी और सहिष्णुता है, बदला लेने की आकांक्षा नहीं।
दिव्या जी को मैं बरसों से जानता हूं। नेहरु केन्द्र की भव्य इमारत में हिन्दी की गूंज भी कभी कभी सुनाई देती है तो इसका श्रेय किसी हद तक दिव्या जी को ही जाता है।अनेक रूपों में, अनेक संस्थाओं से जुड़कर, दिव्या की सक्रियता प्रशंसनीय है। दिव्या की यथार्थवादी प्रवृति से स्पष्ट है कि किसी हद तक इन घटनाओं में से कुछ तो निजी अनुभव पर अवश्य आधारित होंगी।किप्लिंग साहब को ग़लत सिद्ध करने वाला पूर्व और पश्चिम का सहज मिलन यहां इन्हीं पृष्ठों में हो ही जाता है।इन कहानियों में वे पाएंगे पति-पत्नी के रिश्तों की दुखप्रद समस्याएं, यौन-सम्बन्धी झंझटों का खुला अंवेषण, गर्भ-पात जैसे भयंकर कांडों का यथार्थवादी वर्णन।लेखिका किसी चीज़ या भावना या विचार से मुकरती नहीं; किसी चीज़ या भावना या विचार से डरती नहीं। कहानियों में एक विशेष सम्प्रेषणीयता है; आपको ऐसा प्रतीत होगा कि आप एक वास्तविक दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं।
आक्रोश में केवल आक्रोश ही नहीं है, इसमें भावों और भावनाओं और संभावनाओं की एक विविधता है, इनके लेखन में वज़न है, पर भारीपन नहीं। यहाँ ‘सांप-सीढ़ी’ कोई बच्चों का खेल नहीं है, एक बड़ी ही मार्मिक और हृदय-स्पर्शी कहानी है।
मैं दिव्याजी से, जो दो मायनों में अपनी एक विश्ष्ट शैली की जननी हैं, अपना आभार व्यक्त करना चाहूंगा – मुझे आपने अपने आक्रोश को दिल से महसूस करने का मौक़ा दिया।
रूपर्ट स्नैल
ऑस्टिन-टेक्सास विश्वविद्यालय के हिंदी उर्दू फ्लैगशिप के निदेशक, 35 वर्षों से हिंदी पढ़ा रहे हैं।