कर्मयोगिनी दिव्या माथुर

कर्मयोगिनी दिव्या माथुर

कार्यक्रम का आयोजन हो या हिन्दी का प्रचार-प्रसार अथवा लेखन, दिव्या माथुर की सजग आँखों और कर्तव्यपरायण मन से कुछ नहीं छूटता। कई बार तो मुझे लगता है कि दिव्या जी के एक दिन में कई-कई दिन समाए रहते हैं अन्यथा कैसे वे नेहरू सेंटर के प्रति माह के दस-बारह कार्यक्रमों के आयोजनों के बीच भी अपने लेखन की पतवार थामे आगे बढ़ती गईं और अब सेवानिवृत होने पर प्रतिष्ठित साप्ताहिक संगोष्ठियों के बीच भी निरंतर लेखन और प्रकाशन का काम करती हुई समकालीन लेखकों के लिए प्रकाश-स्तम्भ बनी हुई हैं? उनके अनगिनत मित्र उनकी मीठी मुस्कान और उनके निरंतर काम करते रहने की प्रवृति के प्रशंसक हैं।दिन रात घड़ी की सुइयों से आगे उनका मस्तिष्क और हाथ भागते हैं, चेहरे की मीठी मुस्कान पर वे थकान को हावी नहीं होने देतीं।

पिछले ढाई वर्ष में लगभग हर शनिवार और रविवार,वातायन और वैश्विक हिन्दी परिवार के कार्यक्रमों में उनके साथ ही बीते हैं।उनकी उत्सुक और सजग दृष्टि, ज़ूम पर जुड़ने वाले हर व्यक्ति का स्वागत करती हुई कार्यक्रम के विषय की तहों और जड़ों को टटोलने लगती है। चैट पर चल रहे संवादों से संवाद करती हुई वे वक्तव्यों पर अपनी राय भी लिखती चलती हैं और अंत में उनके चेहरे पर संतुष्टि की मुस्कान और आँखों में सफ़लता की चमक श्रोताओं और दर्शकों के मन भी हरे-भरे कर देती है।

ऐसा नहीं कि उनका अपना व्यक्तिगत जीवन नहीं किंतु समय का मूल्य जैसे उनके भीतर बिंध गया हो। हर दिन को एक उपहार की तरह पूरा-पूरा जीना और अनेक काम कर लेना, हर दुख और परेशानी को धाकड़ अंदाज़ में धता बता देना उनकी सहज प्रकृति है पर इसके चलते अपने विचारों को दृढ़ता से रखने में भी वे कोई कोताही नहीं करतीं। आत्मीयता और दृढ़ता का यह अनोखा संगम उनके व्यक्तित्व की ईमानदारी को दिखाता है।

दिव्या जी के साथ ‘दो देश-दो कहानियाँ’ की श्रृंखला का आयोजन करते हुए मैंने उनके इस व्यवस्थित तरीके को बहुत पास से देखा। कई सप्ताह पहले ही कार्यक्रम को अंतिम रूप देकर वे उसके प्रसार कार्य में लग जाती हैं; हिंदी को उनसे अच्छा प्रवासी जन सम्पर्क अधिकारी नहीं मिल सकता। सभी को साथ लेकर चलती, लिखने और प्रकाशित होने के लिए प्रोत्साहित करती, वे वैश्विक स्तर पर रचनात्मकता की एक जुलूस के समान दिखाई देती हैं। अभिव्यक्ति उनकी श्वास है,अत:निरंतर विचार और भाव का मंथन चलता है और वे निरंतर लिखती हैं। प्राय: कहा जाता है कि ‘जीवन कहानी से भी अधिक विचित्र होता है’। दिव्या जी जीवन की इन विचित्र स्थितियों को पूरी निर्भीकता से लिखती हैं और कहानी को फ़िल्म की तरह आँखों के सामने जीवंत खड़ा कर देती हैं। विदेशी संस्कृति के कितने ही कुंठित, काले पक्ष और प्रवासी भारतीयों के स्वार्थी स्वभाव को वो खुल कर दिखाती हैं; उनकी कहानियाँ जैसे ’मेड इन इंडिया’, ’बचाव’ आदि लेखकीय स्पष्टता और निर्भीकता का ज्वलंत उदाहरण हैं। वे बताती हैं कि भारत जाकर प्रवासी अपनी शान बघारते हैं: “काक्के, औत्थे दी साफ़-सुथरी हवा, वदिया खाना-पीना, लाइफ़ विच कोई वरी-शरी नहीं” (मेड इन इंडिया) पर इस कहानी में वे विदेश में बसे जसबीर लांबा के परिवार की असलियत दिखाती हैं; जो इतनी कुरूप है कि जुगुप्सा के कारण रौंगटे खड़े हो जाते हैं। ‘बचाव’ कहानी में निंदिया के माध्यम से विदेश के जीवन में पैसों की कमी और नौकरी में होने वाले यौन शोषण आदि के बारे में खुल कर लिखा गया है, यह स्पष्टता दिव्या जी को अन्य प्रवासी लेखकों से बिल्कुल अलग स्तर पर ले जाकर खड़ा कर देती है; सच को शुगर-कोट करने की न उनकी इच्छा है न आदत! उनकी अनेक कहानियाँ विदेशी जीवन की दुर्गंध भरी गलियों का गूगल मैप है। कहानियों में तो वे पात्रों के अनुरूप अंग्रेज़ी, पंजाबी, गुजराती का धारा-प्रवाह उपयोग करते हुए दृश्य को फिल्म की तरह उपस्थित करती हैं। हिंदी साहित्य प्रवासी कहानियों से जिस विदेशी जीवन के यथार्थ की अपेक्षा रखता है, उस यथार्थ को भरपूर दिखा कर दिव्या जी अपने कहानीकार होने के कर्तव्य को पूरी तरह निबाह रहीं हैं।

ऐसे ही कविताओं में ’ग्राउंड ज़ीरो’ जैसे समसामायिक ज्वलंत विषयों से लेकर वे स्त्रियों की स्थिति, संबंधों की टूटन, मध्यवर्गीय इच्छाओं आदि अनेक विषयों पर सहजता से लिखती हैं। अपनी कविता ’चंदन-पानी’ में वे लिखती हैं: चंदन पानी न हो पाए / सरकारी चक्की में पिसे/अफ़सर बनने की चाह लिए
बच्चों का अपने पेट काट / घूस में लाखों रुपये दिए / आँखों से अपनी अलग गिरे/ चंदन पानी न हो पाए।” ’दर्द का रिश्ता’ के ये सरल शब्द देखिए: जब तक मुझ से निभा, निबाहा / दर्द का रिश्ता/ टूटे हाथ सा / सदा साथ रहता है लटका / दर्द, दर्द और दर्द करता है।”

दिव्या जी की भाषा की विशेषता है कि उसमें कठोर सत्य की पैनी धार, सरल शब्दों में है; वे कम शब्दों में भी मारक चित्र उपस्थित करने में सक्षम हैं। यह सटीकता, कई बार सटाक से दिल पर प्रहार करती है। कह सकते हैं कि दिव्या जी ईमानदारी से अपने परिवेश का सत्य, स्पष्ट भाषा में लिख रही हैं। वे भाषा और साहित्य के लिए जितना कर सकती हैं, उससे कहीं आगे बढ़ कर काम कर रहीं हैं।उनका बहुआयामी व्यक्तित्व कर्मयोगिनी का व्यक्तित्व है जो साहित्य और संस्कृति को बचाए रखने और आगे बढ़ाने का संकल्प लिए है।वे अपने कामों को इसी ऊर्जा से करती हुई, हम सबको प्रेरित करती रहें, यही कामना है।

शैलजा सक्सेना

(हिन्दी राइटर्स गिल्ड-कनाडा की सह-संस्थापिका/निदेशिका हैं और अभिनय में भी सक्रिय हैं। संपादन, प्रकाशन में संलग्न, वे बहु पुरस्कृत लेखिका हैं।)

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