संपादकीय-दिव्या माथुर

संपादकीय 

“दिव्या”

जिजीविषा – यदि इस शब्द की व्याख्या करने के लिए मुझसे कहा जाए तो मैं एक शब्द में कर सकती हूँ “दिव्या”।

मैं जब पहली बार उनसे मिली थी, एक दुबली-पतली नाज़ुक सी दिखने वाली काया पर जो चेहरा था उस पर साफ़ साफ़ शब्दों में यही लिखा हुआ था ‘जिजीविषा’ और आज लगभग 15 साल बाद भी जब  मैं उस चेहरे को देखती हूँ, मुझे यही शब्द लिखा हुआ दिखाई पड़ता है। यूँ संघर्ष हर एक के जीवन में होते हैं और उनसे गुजर कर अपना जीवन भी हर कोई अपनी क्षमता और स्वभाव के अनुसार जीता है। परन्तु संघर्षों को घोल कर अपनी प्रतिभा, मेहनत और नीयत से सार्थक, मुस्कुराते हुए जीवन में बदल देने का नाम दिव्या माथुर है।

मुझे याद है उनसे मेरी पहली मुलाकात लन्दन के नेहरू सेंटर में हुई थी। जहाँ वे प्रोग्राम डायरेक्टर के पद पर आसीन थीं। उस दिन मेरा लन्दन में होने वाली साहित्यिक गतिविधियों से भी प्रथम परिचय था और उस स्थान से भी। कार्यक्रम की व्यस्तताओं के वावजूद इधर से उधर भागती, व्यवस्था करती एक मनोहर स्मित से सबका अभिवादन और स्वागत करती इस चलती-फिरती ऊर्जा ने मुझ अनजान कनिष्ठ को तत्काल उस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रण दे डाला था।

हर छोटे–बड़े के साथ मिलकर काम करने का और नवांकुरों को प्रोत्साहित करके उन्हें अवसर प्रदान करने की उनकी आदत – शायद यही वजह रही कि जब उन पर आधारित गृहस्वामिनी के विशेषांक के संपादन का भार मुझे सौंपा गया और मैंने दिव्या माथुर पर आधारित सामग्री के लिए लोगों से संपर्क करना शुरू किया तो हर वरिष्ठ, कनिष्ठ, स्थापित, युवा, लेखक, साहित्यकार और नामचीन व्यक्ति ने न सिर्फ तुरंत प्रसन्नता से हामी भरी बल्कि शीघ्र ही उचित सामग्री प्रेषित कर आभार भी जताया।अपने भाषा-साहित्य सर्कल और अपनी मित्र मंडली में दिव्या माथुर एक ऐसी शख्सियत के रूप में पहचानी जाती हैं जो ऊर्जा का साक्षात ध्रुव तारा है। लेखन, संपादन, कला आदि न जाने कितनी असाधारण और बहुमुखी प्रतिभा का भण्डार हैं। असंख्य शीर्ष उपलब्धियों और पुरस्कारों के अलंकारों से सुसज्जित होकर भी उनके सरल स्वभाव में विनम्रता और चेहरे पर दिव्य मुस्कान खिली रहती है।

दिव्या माथुर के रचना संसार पर टिप्पणी करने के लिए मेरा कद काफ़ी छोटा है पर फिर भी इतना जरूर कहूँगी कि उनकी कविताएँ हों या कहनियाँ, यथार्थ के ठोस धरातल से निकलती जरूर हैं पर सीधा पाठक के हृदय तल पर उतर जाती हैं। बिना किसी भी “वाद”, अतिशयोक्ति या अवांछित शब्द प्रयोग किये वे अपनी रचनाओं में बेहद ज़रुरी मुद्दे उठाती हैं और बेहद शालीनता एवं भावात्मक तरीके से शब्दों में ढालकर उसे पाठकों के समक्ष परोस देती हैं। उनकी रचनाएँ पाठकों के दिल और दिमाग पर गहरा असर करती हैं।

मैंने हाल में ही दिव्या माथुर का नवीनतम कहानी संग्रह ‘करोना चिल्ला” पढ़ा। संग्रह की अधिकांश कहानियाँ ऐसी हैं, जिनसे कोई भी अपने आपको रिलेट कर सकता है। एक के बाद एक कहानियाँ पढ़ते चले जाते हैं और उनका शिल्प, भाव आपको अपनी जकड़ में लेता जाता है। किताब तब तक उठाकर नहीं रख सकते जब तक वह समाप्त न हो जाये।कहानियाँ पढ़ने के बाद पाठक काफी समय तक उनमें व्याप्त विषयों के बारे में सोचता रहता है।

पत्रिका के इस अंक में मैंने दिव्या माथुर के इसी बहुआयामी व्यक्तित्व को समेटने की चेष्टा की है। इस यज्ञ में अपनी रचनाओं के द्वारा सहयोग करने वाले सभी गुणीजनों, साहित्यकारों, लेखकों, शिक्षकों की मैं तहे दिल से आभारी हूँ।

बहुत बहुत आभार – पुष्पा बाल कृष्ण, बैरोनेस फ्लैदर, ब्रिटिश एम.पी. वीरेंद्र शर्मा, एडवर्ड क्रास्क, डॉ कमल किशोर गोयनका, डॉ. पद्मेश गुप्त, तेजेंद्र शर्मा, एम.बी.ई., प्रो ल्युदमिला खाख्लोवा, योगेश पटेल, फ्रांसेस्का ओर्सिनी, डॉ रुपर्ट स्नेल, ज़रबानू गिफ्फोर्ड,डॉ बीना शर्मा, डॉ अरुणा अजितसरिया, एम.बी.ई., डॉ राजेश कुमार, तितिक्षा दंड-शाह, डॉ शैलजा सक्सेना, डॉ संध्या सिंह, डॉ विजय शर्मा, कल्पना मनोरमा, डॉ आरजूमंद आरा, मोहिनी नून-कैंट, डॉ. मनोज मोक्षेंद्र, आस्था देव आदि सभी रचनकारों की जिन्होंने अपने रचनात्मक सहयोग से इस अंक को समृद्ध किया और दिव्या माथुर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विविध आयाम हमारे पाठकों के समक्ष रखे।

गृहस्वामिनी पत्रिका का यह विशेष अंक पाठकों को समर्पित करते हुए मुझे अपार हर्ष और गर्व की अनुभूति हो रही है। आशा है आप सभी को दिव्या माथुर पर आधारित यह विशेषांक पसंद आएगा। समस्त शुभकामनाओं सहित।

 

शिखा वार्ष्णेय

 

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