भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की- दयानंद सरस्वती

महर्षि दयानंद सरस्वती-वेदों की ओर लौटो

महर्षि दयानंद सरस्वती जी आधुनिक भारत के चिंतक, निर्माता एवं आर्य समाज के संस्थापक थे। वह एक धार्मिक महापुरुष एवं समाज सुधारक के रूप में जाने जाते हैं। बहुत कम व्यक्ति यह जानते हैं कि वह प्रथम स्वाधीनता संग्राम के अग्रदूत रहे हैं। राष्ट्र की स्वतंत्रता में उनके योगदान अविस्मरणीय है। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वराज के लिए 1876 में नारा दिया “भारत भारतीयों के लिए है” जिसे बाद में लोकमान्य तिलक जी द्वारा अपनाया गया। “वेदों की ओर लौटो” उनका प्रमुख नारा था। वे एक स्वतंत्र विचारक थे किसी परंपरा और पूर्वाग्रह से बंधे रहना उन्हें स्वीकार ना था। वेद मानव की स्वतंत्र चिंतन शक्ति के द्वारा को खोलकर एक अनंत आकाश प्रदान करते हैं इसलिए वेदों के प्रति उनकी अपार निष्ठा और भक्ति थी।
12 फरवरी 1824 को उनका जन्म टंकारा, काठियावाड़ क्षेत्र के जिला राजकोट, गुजरात में एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिताजी का नाम से कृष्ण जी लाल तिवारी था जो कि एक कर-कलेक्टर थे। उनकी माता यशोदा बाई एक धार्मिक महिला थी। इनका जन्म धनु राशि और मूल नक्षत्र में हुआ था इसलिए बचपन का नाम मूलशंकर रखा गया “मूल शंकर तिवारी”। संपन्न और धार्मिक परिवार में जन्म लेने के कारण मूलशंकर का प्रारंभिक जीवन बहुत आराम से बीता और वह आगे चलकर एक पंडित बनने के लिए संस्कृत, वेद, शास्त्र और अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए। 14 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने रुद्री आदि के साथ-साथ यजुर्वेद और अन्य वेदों के भी कुछ अंश कंठस्थ कर लिए थे। वे संस्कृत के प्रकांड पंडित एवं व्याकरण के अच्छे ज्ञाता थे। मेधावी और होनहार मूलशंकर जन्म से भगवान शंकर के भक्त थे। शिवभक्त पिता के कहने पर बचपन में मूलशंकर ने एक बार शिवरात्रि का व्रत रखा लेकिन जब उन्होंने देखा कि एक चुहिया शिवलिंग पर बैठकर नैवेद्य खा रही है,तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और धक्का भी लगा। उसी क्षण उनका विश्वास मूर्ति पूजा से उठ गया। फिर छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई अकाल मृत्यु से बालक मूलशंकर जीवन मरण के अर्थ पर बहुत गहराई से सोचने लगे। माता पिता उनके प्रश्नों से उनके भविष्य के प्रति चिंतित रहने लगे और किशोरावस्था की प्रारंभ में ही उनके विवाह करने का निर्णय ले लिया। उस समय भारत में कम उम्र में विवाह एक प्रथा थी लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि वे विवाह के लिए नहीं बने हैं। 21 वर्ष की आयु में वह सत्य की खोज में घर से निकल पड़े। बहुत से स्थानों का भ्रमण करते हुए उन्होंने कई आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। सर्वप्रथम वे वेदांत के प्रभाव में आए और आत्मा और ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। वह अद्वैत मत में दीक्षित हुए और ‘शुद्ध चैतन्य’ नाम पड़ा । पाश्चात्य सन्यासियों के चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए और वहां इनकी प्रचलित उपाधि ‘दयानंद सरस्वती’ हुई। स्वामी दयानंद ने वेदों का भाष्य किया इसलिए उन्हें ‘ऋषि’ भी कहा जाता है। वह मात्र 24 साल की उम्र में एक औपचारिक सन्यासी बन चुके थे। बाद में उन्होंने योग को भी अपनाया एवं प्राणायाम पर विशेष बल दिया।


सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमते और यात्रा करते हुए दयानंद सरस्वती मथुरा में वेदों के प्रकांड पंडित गुरु विरजानंद के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पतंजलि योग सूत्र और वेद वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल करदिखाओ, परोपकार करो, मत मतांतर का भेद मिटाओ, अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो और वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकिरित करो।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महर्षि दयानंद ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने सन् 1855 में हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड-खंडनी पताका फैहराई और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि यदि गंगा नहाने, सिर मुंडवाने और बभुत मलने से स्वर्ग मिलता तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते। बुजुर्गों का अपमान करके मृत्यु के पश्चात उनका श्राद्ध करना, वे निरा ढोंग मानते थे। मिथ्या आडंबर और असमानता के समर्थकों को पराजित करने के लिए उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए और जीते।
हरिद्वार के कुंभ मेले में शामिल होने के लिए जब स्वामी जी ने आबू पर्वत से हरिद्वार तक पैदल यात्रा की तब उन्होंने स्थान-स्थान पर प्रवचन दिए और अनुभव किया कि लोग अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके हैं, तब वह देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने को आतुर हो उठे। हमारे प्रथम स्वतंत्रता समर सन् 1857 की क्रांति के संपूर्ण योजना भी स्वामी जी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी थे। हरिद्वार में एक एकांत पहाड़ी पर जहां उन्होंने डेरा जमा रखा था वहीं ऐसे पांच व्यक्तियों से मुलाकात की जो आगे चलकर 1857 की क्रांति के कर्णधार बने। यह पांच व्यक्ति थे- नानासाहेब, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब, तात्या टोपे और बाबू कुंवर सिंह। बातचीत काफी लंबी चली, यह तय किया गया कि फिरंगी सरकार के विरुद्ध संपूर्ण देश में सशस्त्र क्रांति के लिए आधार भूमि तैयार की जाए और एक निश्चित दिन संपूर्ण देश में एक साथ क्रांति का बिगुल बजा दिया जाए। जनसाधारण और भारतीय सैनिकों में इस क्रांति की आवाज को पहुंचाने के लिए ‘रोटी तथा कमल’ की भी योजना यहीं तैयार की गई थी। विचार विमर्श और योजना निर्धारण के उपरांत स्वामी जी तो हरिद्वार में ही रुक गए लेकिन पांचों राष्ट्रीय नेता योजना को क्रियान्वित करने के लिए अपने-अपने क्षेत्रों में निकल गए। इसके बाद स्वामी जी ने अपने कुछ विश्वासपात्र साधु-सन्यासियों के साथ संपर्क किया और एक गुप्त संगठन बनाया इस संगठन का मुख्यालय इंद्रप्रस्थ दिल्ली में महरौली स्थित योगमाया मंदिर में बनाया गया। इस मुख्यालय ने स्वाधीनता समर में अपनी उल्लेखनीय भूमिका निभाई। स्वामी जी के नेतृत्व में साधुओं ने संपूर्ण देश में क्रांति की अलख जगाई। यह लोग क्रांतिकारियों के संदेश एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते थे और उन्हें प्रोत्साहित करते थे। आवश्यकता पड़ने पर हथियार उठाकर अंग्रेजों से संघर्ष भी करते थे।1857 की क्रांति की संपूर्ण अवधि में राष्ट्रीय नेता स्वामी दयानंद सरस्वती के निरंतर संपर्क में रहे। हालांकि यह स्वतंत्रता संघर्ष असफल रहा लेकिन स्वामी जी निराश नहीं हुए। हरिद्वार में ही 1855 की बैठक में बाबू कुंवर सिंह ने जब इस संघर्ष में सफलता की संभावना के बारे में स्वामी जी से पूछा था तो उन्होंने बेबाक उत्तर दिया था, स्वतंत्रता संघर्ष कभी असफल नहीं होता, भारत धीरे-धीरे 100 वर्षों में परतंत्र बना है अब इसको स्वतंत्र होने में भी 100 वर्ष तो लग ही जाएंगे और इस स्वतंत्रता प्राप्ति में बहुत से अनमोल प्राणों की आहुतियां डाली जाएंगी। स्वामी जी की यह बात कितनी सही निकली इसके बाद की घटनाओं ने प्रमाणित कर दिया।
जीवन के हर क्षेत्र में स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति देने वाले सन्यासी द्वारा देश की स्वतंत्रता का यह शंखनाद भारत के जन जन में गूंजने लगा। अपने प्रवचन में स्वामी जी हमेशा श्रोताओं को प्रायः राष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। गांधीजी के नमक आंदोलन के बीज महर्षि में तभी डाल दिए थे जब गांधीजी मात्र 6 वर्ष के बालक थे। स्वामी जी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि ‘नोंन,(नमक) के बिना दरिद्र का भी निर्वाह नहीं, नोंन सबको आवश्यक है। वह मेहनत और मजदूरी करके जैसे तैसे निर्वाह करते हैं, उसके ऊपर भी “नोंन” का कर दंड तुल्य ही है। इससे दरिद्रों को बडा़ क्लेश पहुंचता है, अतलवण आदि से ऊपर ‘कर’ नहीं रहना चाहिए।’


स्वदेशी आंदोलन के मूल सूत्रधार भी महर्षि दयानंद ही थे। उन्होंने लिखा है-‘जब परदेसी हमारे देश में व्यापार करेंगे तो दारिद्र और दुख के बिना दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।’ स्वदेशी भावना को प्रबलता से जगाते हुए वह बड़े मार्मिक शब्दों में लिखते हैं ‘इतने से ही समझ लो कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं उतना अन्य देश के मनुष्यों का भी नहीं करते।’ महर्षि की स्वदेशी भावना का परिणाम था कि भारत में सबसे 1879 में आर्य समाज लाहौर के सदस्यों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का सामूहिक संकल्प लिया था, जिसका विवरण 14 अगस्त 1979 के स्टेट्समैन अखबार में मिलता है।
1863 से 1875 तक अपने मत के प्रचार के लिए स्वामी जी देश का भ्रमण करते रहे और सन् 1875 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मुंबई मे गिरगांव में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज के नियम और सिद्धांत प्राणी मात्र के कल्याण के लिए हैं। संसार का उपकार करना अर्थात शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक उन्नति करना, इसके मुख्य उद्देश्य हैं। देखते ही देखते देशभर में आर्य समाज की अनेक शाखाएं खुल गई। वेदों को छोड़कर कोई अन्य धर्म ग्रंथ प्रमाणिक नहीं है, इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने पूरे देश का दौरा करना प्रारंभ किया। दक्षिण में मुंबई से लेकर पूरा दक्षिण भारत, उत्तर में कोलकाता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएं घूम घूम कर दी। जहां-जहां वह गए प्राचीन परंपरा के पंडित, विद्वान, मौलवियों एवं पादरियों से शास्त्रार्थ कर पराजित किया। इन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रंथों का भी भली-भांति अध्ययन किया था इसलिए अपने अनुयायियों के साथ मिलकर उन्होंने तीन-तीन मोर्चे पर संघर्ष आरंभ कर दिया, दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे परंतु तीसरा मोर्चा सनातनधर्मी हिंदुओं का था। ज्ञान से ओतप्रोत, धाराप्रवाह भाषा एवं तार्किक व्यक्तित्व के स्वामी होने के कारण शास्त्रार्थ में स्वामी दयानंद जी के सामने कोई टिक ना पाता था।
सन् 1862 में कोलकाता प्रवास के समय वह बाबू केशव चंद्र सेन और देवेंद्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए और यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना, हिंदी में बोलना और लिखना प्रारंभ किया और हिंदी को मातृभाषा बनाने के लिए जमकर प्रचार-प्रसार शुरू किया ताकि पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोया जा सके और भाषा के अपनत्व में बांधा जा सके। देश की सुरक्षा और स्वाधीनता के लिए एक दूसरे तक अपनी बात पहुंचाई जा सके। उनके शब्द थे “मेरी आंखें तो उस दिन को देखने के लिए तरस रहीं हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी भारतीय एक भाषा को बोलने और समझने लग जाएंगें।” उनका मानना था कि भिन्न-भिन्न भाषा, प्रथक-प्रथक शिक्षा और अलग-अलग व्यवहार का छुटना कठिन है और बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा सिद्ध होना कठिन है। हिंदू धर्म में मिलावट के पीछे असली कारण वह ज्ञान की कमी को मानते थे इसीलिए महर्षि दयानंद ने भारतीय छात्रों को अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ वेदों के ज्ञान को पढ़ाने वाले एक पाठ्यक्रम की पेशकश की और एंग्लो वैदिक स्कूलों की शुरुआत करके शिक्षा प्रणाली का पूरा बदलाव किया। उनके ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए बाद में कहीं गुरुकुलों की स्थापना की गई। उनकी मान्यताओं और शिक्षा व्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए उनके शिष्यों ने 1883 में उनकी मृत्यु के पश्चात दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज ट्रस्ट एवं मैनेजमेंट सोसायटी की स्थापना की। पहला डीएवी हाई स्कूल लाहौर में 1 जून,1886 में खोला गया जिस के प्रथम प्रधानाध्यापक लाला हंसराज जी थे। शहीद भगत सिंह की शिक्षा लाहौर के इसी डीएवी स्कूल में हुई थी।
महर्षि दयानंद ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों, रूढ़ियों, बुराइयों और पाखंडों का खंडन और उनका विरोध किया। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो और स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे, उन्होंने छुआछूत सती प्रथा, बाल विवाह, नरबलि जैसे धार्मिक संकीर्णताओं के विरुद्ध जमकर प्रचार किया और विधवा विवाह, धार्मिक उदारता, जाति वर्ण व्यवस्था को भूलकर भाईचारे का खुलकर समर्थन किया। जिसके कारण हिंदू तो एकजुट हुए ही बल्कि दूसरे धर्मों के लोग भी हिंदू धर्म में प्रवेश किए। अंग्रेजी सरकार इनके नेतृत्व से डरने लगी।
महारानी विक्टोरिया ने एक बार कहा था-हम चेतावनी देते हैं कि यदि किसी ने हमारी प्रजा के धार्मिक विश्वासों पर, पूजा पद्धति में हस्तक्षेप किया तो उसे हमारे तीव्र कोप का शिकार होना पड़ेगा। इस लोक लुभावने घोषणा के अंतर्निहित भावों को समझ कर उसका प्रतिकार करते हुए ऋषि दयानंद सत्यार्थ प्रकाश में घोषणा करते हैं कि “मतमतांतरों के आग्रह से रहित, अपने पराए का पक्षपात, प्रजा पर माता पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज पूर्ण सुखदायक नहीं है।”
राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए किए गए कार्य में उनकी उल्लेखनीय भूमिका की जानकारी यद्यपि बहुत कम लोगों को है पर वस्तुस्थिति यह है कि पराधीन भारत में यह कहने का साहस संभवत सर्वप्रथम स्वामी दयानंद सरस्वती ने ही किया था कि “आर्यव्रत, आर्यव्रतियों का है अर्थात भारत, भारतीयों का है।” इस नारे को बाद में लोकमान्य तिलक एवं भीकाजी कामा जैसे क्रांतिकारियों द्वारा अपनाया गया। वास्तव में कभी भी सीधे तौर पर वह राजनीति में शामिल नहीं थे लेकिन फिर भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई राजनीतिक नेताओं के प्रेरणा स्रोत रहे और स्वतंत्रता संग्राम की विभिन्न कड़ियों के मूल में उनके द्वारा पूर्व में कहे हुए वक्तव्य और लिखे हुए ग्रंथ रहे।
प्रारंभ में तो अनेक व्यक्तियों ने स्वामी जी के समाज सुधार कार्यों में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले और उनका विरोध किया लेकिन जैसे-जैसे उनके तर्कों से लोगों को संतुष्टि हुई तो उनका विरोध कम होने लगा और लोकप्रियता बढ़ने लगी। इससे अंग्रेजी अधिकारियों के मन में यह इच्छा हुई कि इन्हें अंग्रेजी सरकार के पक्ष में कर लिया जाए। इससे पूर्व भी अंग्रेजी अधिकारी इस प्रकार कुछ धर्माधिकारियों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अपनी तरफ मिला चुके थे, इसीलिए एक ईसाई पादरी के माध्यम से स्वामी जी की तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड नॉर्थब्रुक से मुलाकात कराई गई यह मुलाकात कलकत्ता में हुई। लॉर्ड नॉर्थब्रुक ने विनम्रता से अपनी बात स्वामी जी के सामने रखी कि आप अपने व्याख्यान के प्रारंभ में ईश्वर की जो प्रार्थना करते हैं, क्या उसके लिए अंग्रेजी सरकार के कल्याण की भी प्रार्थना कर सकेंगे?


गवर्नर जनरल की बात सुनकर स्वामी जी सरलता से सब कुछ समझ गए और उन्होंने निर्भीकता और दृढ़ता से उत्तर दिया “मैं ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि राजनीतिक स्तर पर मेरे देशवासियों की निर्बाध प्रगति के लिए और संसार के सभ्य जातियों के समुदाय में भारत को सम्मान सहित स्थान प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है कि मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो। सर्व शक्तिशाली परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन मैं यही प्रार्थना करता हूं कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के जुए से शीघ्र अतिशीघ्र मुक्त हो।”
गवर्नर जनरल को स्वामी जी से एसे उत्तर की आशा नहीं थी और मुलाकात समाप्त हो गई। इसके उपरांत सरकार का गुप्तचर विभाग स्वामी जी पर और उनकी संस्था आर्य समाज पर गहरी दृष्टि रखने लगा। उनकी प्रत्येक गतिविधि और उनके द्वारा बोले गए प्रत्येक शब्द का रिकॉर्ड रखा जाने लगा। आम जनता पर उनके प्रभाव से सरकार को यह एहसास होने लगा कि यह बागी फकीर और आर्य समाज सरकार के लिए खतरा बन सकते हैं, इसलिए स्वामी जी को समाप्त करने के लिए तरह-तरह के षडयंत्र रचे जाने लगे। उन्हें बदनाम करने का प्रयास किया जाने लगा, उन पर पत्थर मारे गए, विष देने के लिए प्रयत्न हुए, उन्हें नहाते समय पानी में डुबाने की चेष्टा भी की गई, परंतु वे पाखंड के विरोध और वेदों के प्रचार के लिए अपने कार्य पर अडिग रहे।
एक बार जब वह उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में थे तब उन्होंने अपने शिष्य लक्ष्मण से कहा था कि ‘भारतीयों के संबंध में जो मेरी चिंता है उस कारण अब मेरी इच्छा है कि मैं राजा-महाराजाओं को सन्मार्ग पर लाकर उनका सुधार करूं। आर्य जाति को एक उद्देश्य, एक सूत्र में बांधने की मेरी प्रबल इच्छा है।’
उनके शिष्य मोहनलाल विष्णु लाल पांड्या ने भी एक बार उनसे पूछा था कि महाराज! भारत का पूर्णहित कैसे हो सकता है?
स्वामी जी ने कहा-“एक धर्म, एक भाव और एक लक्ष्य बनाए बिना समाज का पूर्ण हित और उन्नति असंभव है।”
उस समय राजस्थान में वेश्यावृत्ति बहुत अधिक थी। इस सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए उन्होंने अजमेर जाने का निश्चय किया, अनुयायियों ने उन्हें बहुत रोकने का प्रयास किया। उनको कहना था कि विरोधी गंदगी के छींटे उनके कपड़ों पर भी डालने की कोशिश करेंगे और ऐसा प्रयास भी किया गया। स्वामी जी के कमरे में एक वैश्या को भेजा गया परंतु स्वामी जी ने उस महिला को देखते ही कहा “कहो मां! कैसे आना हुआ?” उनके यह शब्द सुनते ही वह वैश्या स्वामी जी के पैरों में गिर पड़ी क्योंकि उसने अपने लिए इतने सुंदर शब्द आज तक कभी किसी से नहीं सुने थे।
राजा महाराजाओं से मिलने के क्रम में स्वामी जी जोधपुर नरेश महाराज जसवंत सिंह के निमंत्रण पर जोधपुर गए। वहां उनके नित्य प्रवचन होते और कभी-कभी महाराज जसवंत सिंह भी उनके चरणों में बैठकर उनके प्रवचन सुनते। वहां रहते हुए उन्होंने देखा कि नन्हीं नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप जसवंत सिंह और उनके द्वारा किए गए कार्यों पर है। स्वामी जी ने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से बात स्वीकार कर नन्हीं से अपने संबंध तोड़ लिए, जिससे नन्हीं स्वामी जी के विरुद्ध हो गई और स्वामी जी के रसोइए जगन्नाथ को अपनी तरफ मिलाकर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया। इससे स्वामी जी के पूरे शरीर पर छाले हो गए और जहर का तरह-तरह से असर शरीर पर दिखने लगा। स्वामी जी को समझते देर न लगी उन्होंने एक दिन अपने रसोईये से पूछा ऐसा तुमने क्यों किया? जगन्नाथ रोने और गिड़गिड़ाने लगा। उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया, वह क्षमा याचना करने लगा। उदार हृदय स्वामी जी ने उस समय उसे वहां से निकल जाने की सलाह दी ताकि पुलिस और उनके अनुयाई उसके साथ दुर्व्यवहार ना करें। उन्होंने उसे जीवन यापन के लिए ₹500 देकर तुरंत विदा कर दिया। बाद में जोधपुर के अस्पताल में उन्हें भर्ती करवाया गया तो वहां भी संबंधित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा। उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पीलाता रहा। जब स्वामी जी की तबीयत वहां भी ज्यादा खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया लेकिन तब तक काफी विलंब हो चुका था और 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन संध्या समय 59 वर्ष की आयु में स्वामी जी का देहावसान हो गया। उनके अंतिम शब्द थे-“प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।” यह सब वैश्या नन्हीं के इशारे से नहीं हुआ होगा, एक वैश्या इतनी ताकतवर नहीं हो सकती बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें उनके विरोधियों के साथ-साथ अंग्रेजी सरकार का भी हाथ रहा होगा।
सर्वधर्म, सर्वभाषा, सर्वराष्ट्र व संस्कृति और स्वदेश उन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानंद जी का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया और वह अपने पीछे छोड़ गए एक सिद्धांत- कृण्वंतो विश्वमार्यम्-अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ।
उनका विवादों से भी गहरा नाता रहा है।प्रथम जनगणना सन् 1872 के समय स्वामी जी ने आगरा से देश के सभी आर्य समाज को यह निर्देश भिजवाया कि सब सदस्य अपना धर्म सनातन धर्म लिखवायें। मेरी समझ से शायद इसके पीछे यह कारण रहा होगा कि वह जनगणना के समय अंग्रेजों को हिंदुओं के संख्या बल और हिंदुओं की एकता से परिचित कराना चाहते थे। चूंकि सनातनी हिंदू उनसे नाराज रहते थे अतः उनसे ऐसे संदेश की अपेक्षा महर्षि को नहीं रही होगी। लेकिन उनके इस कार्य से उनकी सूझबूझ और राष्ट्रहित के प्रति उनकी कार्यनीति प्रदर्शित होती है। कुछ लोग महर्षि को विवादों में इसलिए भी घेरते हैं कि वह तंबाकू सुघंते थे, यहां भी मेरे अपने विचार हैं कि महान व्यक्तियों के व्यक्तित्व में मनुष्य होने के कारण भी कुछ कमियां हो सकती हैं जो उनकी अच्छाइयों के सामने नगण्य मानी जा सकती हैं । कुछ लोग माता-पिता का घर छोड़ने पर भी उनकी निंदा करते हैं। मेरे विचार से ग्रहस्थ जीवन में बंध कर पूरे देश और समाज हित के लिए उम्र के इतने छोटे कालखंड में इतना अधिक कार्य करना असंभव है। अपने जीवन काल में उनके द्वारा किए गए कार्य अर्थात उनका जीवन चरित्र सभी के लिए प्रेरणास्रोत रहा है। अनेक व्यक्तियों ने उनके जीवन चरित्र पर लिखा जिसमें पंडित लेखराम, सत्यानंद आदि प्रमुख हैं परंतु श्री देवेंद्र नाथ मुखोपाध्याय के द्वारा लिखे गए ऋषि दयानंद के जीवन चरित्र की विशेषता यह है कि बंगाली बाबू देवेंद्र नाथ मुखोपाध्याय जी स्वयं आर्यसमाजी नहीं थे लेकिन फिर भी 15-16 वर्ष की लगातार मेहनत और हजारों रुपया लगाने के बाद उन्होंने महर्षि का जीवन चरित्र को सबके सामने रखा। उनकी असामयिक मृत्यु होने के कारण पंडित घासीराम ने इस कार्य को पूर्ण किया। पंडित लेखराम के अनुसंधान में जहां महर्षि जी के पंजाब, यूपी और राजस्थान तक के कार्य ही सीमित रहे वहीं देवेंद्र नाथ जी के ग्रंथ में मुंबई और बंगाल का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। उनके बारे में कुछ महापुरुषों के विचार थे-
1.डॉ भगवान दास जी कहते हैं कि स्वामी दयानंद हिंदू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
2.श्रीमती एनी बेसेंट कहती हैं कि स्वामी दयानंद पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने घोषणा की कि आर्यव्रत, आर्यवर्तियों के लिए है।
3.सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतंत्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानंद जी ने ही डाली थी।
4.पट्टाभी सीतारमैय्या जी का विचार था कि गांधीजी ‘राष्ट्रपिता’ है पर स्वामी दयानंद जी ‘राष्ट्रपितामह’ हैं।
5.फ्रेंच लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानंद राष्ट्रीय भावना और जनजागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील व्यक्तित्व थे।
6.फ्रेंच लेखक रिचर्ड का कहना है कि ऋषि दयानंद का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बंधन को तोड़ने के लिए हुआ है।
7.लोकमान्य तिलक ने कहा है कि स्वामीजी स्वराज एवं स्वदेशी का सर्वप्रथम मंत्र प्रदान करने वाले जाज्व्लयमान नक्षत्र थे।
8.नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता माना।
9.अमेरिका की मदाम ब्लेवेट्स्की ने दयानंद जी को भारत में आदिशंकराचार्य के बाद बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक माना।
10.सैयद अहमद ख़ां के शब्दों में स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलंबी भी सम्मान करते थे।
11.वीर सावरकर ने कहा महर्षि दयानंद ही स्वतंत्रता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे।
12.लाला लाजपत राय ने कहा स्वामी दयानंद ने हमें स्वतंत्र विचार के साथ बोलना और कर्तव्य पालन करना सिखाया।
13.सन 1911 की जनगणना के अध्यक्ष मि. ब्लंट लिखते हैं-दयानंद मात्र धार्मिक सुधारक नहीं थे, वह एक महान देशभक्त थे। यह कहना अधिक ठीक होगा कि उनके लिए धार्मिक सुधार राष्ट्रीय सुधार का ही एक उपाय था।
14.एक अंग्रेज मि. शिरोल ने तो सत्यार्थ प्रकाश को ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें खोखली करने वाला लिखा था।
15.अमेरिकी अध्यात्मवादी एंड्रयू जैक्सन डेविस ने महर्षि दयानंद को ‘भगवान का पुत्र’ कहा। यह स्वीकार करते हुए कि उन्होंने अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं पर गहरा प्रभाव डाला और राष्ट्र की स्थिति को बहाल करने के लिए उनकी सराहना की।

स्वामी दयानंद सरस्वती संस्कृत और हिंदी के विद्वान होने के साथ-साथ दोनों ही भाषाओं के एक महान लेखक भी थे। उन्होंने कई धार्मिक और सामाजिक पुस्तके अपने जीवन काल में लिखी। प्रारंभिक पुस्तकें संस्कृत में थी किंतु बाद के समय में उन्होंने कई पुस्तकों को आर्यभाषा (हिंदी) में भी लिखा क्योंकि आर्यभाषा की पहुंच संस्कृत से अधिक थी। हिंदी को उन्होंने आर्यभाषा नाम दिया था। उत्तम लेखन के लिए उस समय आर्यभाषा का प्रयोग करने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती अग्रणी व प्रारंभिक व्यक्ति थे। उनके ग्रंथों में दिए गए उनके विचार केवल उनके व्यक्तिगत होते थे लेकिन फिर भी वह वेदों पर चलने की सलाह देते थे। वह राष्ट्र को पुनः विश्व गुरु, गौरवशाली, वैभवशाली, शक्तिशाली और सामर्थ्यवान बनाना चाहते थे।
स्वामी दयानंद सरस्वती की कुछ मुख्य कृतियां निम्नलिखित हैं-1.सत्यार्थ प्रकाश (1874)
2.ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (1876)
3.ऋग्वेद भाष्य(1877)
4.यजुर्वेद भाष्य
5.चतुर्वेदविषयसूची
6.संस्कारविधि
7.पंचमहायज्ञविधि (1875)
8.आर्यभिविनय
9.गोकरुणानिधि (1881)
10.आर्योंउद्देश्यरत्नमाला (1873)
11.भ्रांतिनिवारण
12.अष्टाध्यायीभाष्य
13.वेदांगप्रकाश
14.संस्कृतवाक्यप्रबोध
15.पाखंड खंडन (1866)
16.अद्वैतमत का खंडन (1873)
17.व्यवहारभानु 1880
18.स्वीकार पत्र (27 फरवरी 1883)
स्वीकार पत्र का प्रकाशन उनके जीवन काल का अंतिम प्रकाशन था। यह एक संयोग ही था कि उदयपुर से प्रकाशित इस पत्र में उन्होंने अपनी मृत्यु उपरांत कुछ गणमान्य व्यक्तियों को ‘परोपकारिणी सभा’ की जिम्मेदारी सौंपी थी जो उनके काम को उनके बाद आगे बढ़ा सके और इसके प्रकाशन के छह महा बाद ही महर्षि स्वर्ग सिधार गए। उनके काम को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी जिनको सौंपी गई उनमें महादेव गोविंद रानाडे का नाम भी शामिल था। इस स्वीकार पत्र पर 13 गणमान्य व्यक्तियों के साक्षी के रूप में हस्ताक्षर हैं।

एक संत के रूप में उनके पास एक शांत आवाज के साथ गहरे कटाक्ष की शक्ति थी। उनके नीडर एवं बेबाक अपनी बात रखने के स्वभाव ने ही देश में सामाजिक कुरीतियों का नाश किया, हिंदू धर्म को पुनर्स्थापित किया, हिंदी भाषा और शिक्षा का उत्थान हुआ एवं देश में स्वराज का संचार हुआ। आज आर्य समाज न केवल भारत में बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी बहुत सक्रिय है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, त्रिनिदाद, मेक्सिको, यूनाइटेड किंगडम, नीदरलैंड, केन्या, तंजानिया, युगांडा, दक्षिण अफ्रीका, मलावी, मॉरीशस, सिंगापुर, हांग कांग, ऑस्ट्रेलिया, बर्मा और पाकिस्तान में भी आर्य समाज की शाखाएं हैं।

संदर्भ-
*विकिपीडिया
*टाइम्स ऑफ इंडिया के कुछ आर्टिकल
*दैनिक जागरण के कुछ आर्टिकल्स
*वेबदुनिया के कुछ आर्टिकल
*अंग्रेजी चैनल एस ए न्यूज़
*(दयानंद सरस्वती जी की जन्म पत्री) रामपाल जी बुक्स
*डॉ मधु संदू का आर्टिकल वे बैक मशीन आदि।

स्मृति चौधरी

भारत

0