भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की- सिद्धू और कान्हू

’संताल-हूल’ के महान सेनानी-सिदो एवं कान्हू 

संथाल परगना के भू-खंड जो ’दामिन-ई-को, के नाम से जाना जाता था, उसी क्षेत्र में भगनाडीह ग्राम के देश परगना चुनका मुर्मू के घर में चार महान सपूतों-सिदो-कान्हू एवं चांद-भैरो ने जन्म लिया। उन्होंने स्वतंत्र संग्राम के उस गौरवमय इतिहास को लिखा ।

उन महान अमर शहीदों के जीवन गाथा को हम संताल-हूल-दिवस के रूप में हर वर्ष 30 जून को याद करते है । संथाल परगना के भगनाडीह ग्राम में जन्म ये चार सपूतों में सिदो सबसे बड़ा था सिदो एवं कान्हू इन दो भाईयों ने 1853 से 1855 जक संताल-हुल के उस महान मुक्ति आंदोलन (क्रांति) का नेतृत्व दिया और फिरंगी साम्राज्य को हिला कर झंझोड़ दिया । कहा जाता है कि अंग्रेजों का यह विशाल साम्राज्य सारे विश्व के कोने तक फैला हुआ था । उनके साम्राज्य में कभी सूर्य का अस्त नहीं होता था, वैसे साम्राज्य को उन महान वीरों ने चुनौती दी । संताल विद्रोह की अग्नि कई कारणों से सुलग उठी । जिनके मुख्य कारण निम्नलिखित है :-

(क)    जमीन की मालगुजारी :- जमीन का मालगुजारी हल-बैंल एवं उनकी संख्या के अनुसार निर्धारित की जाने लगी। लगान की राशि पहले से अधिक लगायी गई।

(ख)    जमीनों पर बलात दखल – अपनी कूटनीति के तहत अंग्रेज सरकार कोलकाता से लोटा पहाड़ (संथाल परगना) तक रेल लाईनों को बिछाने लगें । रेल लाइनों को बिछाये जाने के रास्ते में जो भी जमीन आयी, उन समस्त जमीन को जबरन बिना मुआवजा दिए दखल किए जाने लगे । हजारों संताल अपने बाप-दादों के जमीनों से बेदखल हुए। उनके हजारों से बेदखल हुए । उनके हजारों एकड़ चास-आबाद की जमीन छीन ली गई । रेल लाईनों में मजदूरी करने हेतु गरीब लोगों को बेगारी के लिए कोलकात्ता भेजा गया । महिलाओं की ईज्जत आबरू को सरेआम ठीकेदारी एवं गोरे साहबों ने लूटा। भगनाडीह ग्राम की दो लड़कियाँ-मैनों और मिरू को अंग्रेजों ने वासना का शिकार बनाया और अपहरण कर कोलकात्ता भेज दिया । इस घटना की खबर जंगल की आग की तरह सारे क्षेत्र में फैल गई और लोगों में क्रोध की अग्नि जल उठी ।

अंग्रेजों ने संतालों का जीना हराम कर दिया । जमीन के गैर कानूनी वितरण एवं लगान के संबंध में नये-नये कानून लागू करने लगे । ’दामिन-ई-को’ के क्षेत्र में संताल द्वारा बनाये गये खेतों को अन्य बाहर से आये हुए समुदायों में जबरन वितरण किया गया ।

संथाल परगना के क्षेत्र में बाहर से आकर बसे हुए कई जमींदारों एवं महाजनों ने संतालों पर अत्याचार किया । उनमें से निमाई मजुमदार एवं मानिक चंद जैसे सूद खोरों एवं महाजनों का अत्याचार सीमा लांघ चुका था । निमाई मजुमदार एवं मानिक चंद ने केना राम – बेचा राम अर्थात् अनाज को खरीदने और बेचने के लिए घटिया नाप-तौल की प्रणाली को लागु किया । ये महाजन अनाज के रूप में कर्ज देने के समय कम वजन के बटखरा को व्यवहार करते थे । परन्तु कर्ज वापस करने के समय धर्म कांटा के नाम पर अधिक एवं दो गुणा वजन के बटखरा को व्यवहार में लाते थे । इस तरह संतालों के द्वारा पैदा किए गये अनाज को सरेआम-लूटते थे । कर्ज के एवज् में जमीन एवं अन्य चल सम्पति को बंधक (गिरवी) के रूप में वे रखते थे ।

कहा जाता है कि यदि कोई व्यक्ति एक बार उन महाजनों से कर्ज लेता-यद्यपि कर्ज की राशि चाहे जितनी भी कम हो, वह व्यक्ति जीवन काल में कभी भी वापस नहीं कर पाता । उस कर्ज की सूद एवं मूल राशि की वापसी उनके पुत्र एवं पर-पोते भी अपने जीवन काल तक नहीं कर पाते । वैसे परिवार के सदस्यों को उस महाजन के पास बंधुवा मजदूर के रूप में बेगारी खटनी पड़ती । सूद की राशि के अदा करने के लिए व्यक्ति अपनी माँ-बहनों की ईज्जत आबरू को महाजन के हवाले करना पड़ता । इसी तरह से संतालों पर अविराम अत्याचार होने लगे । संथाल परगना के ग्रामीण क्षेत्रों को देखने के लिए अत्याचारी महेश दरोगा को नियुक्ति किया गया था । वह महिलाओं को अपना काम-वासना का शिकार बनाता था । उसने प्रशासनिक शक्ति को अपने स्वार्थ सिद्धि करने तथा घूस (रिश्वत) उगाहते में लगाया एवं लोगों पर अत्याचार किया।  महेश दरोगा के पास जब भी कोई व्यक्ति निमाई मजूमदार एवं मानिक चन्द के कारनामों के खिलाफ शिकायत करने जाते तो वह उन दोनों का ही पक्ष लेता था और उन्हें शिकायत करने वाले व्यक्तियों को कड़ी सजा भुगतनी पड़ती थी । इस तरह लोग महेश दरोगा से तंग रहा करते थे और उनसे भयभीत रहते थे । उसके अतिरिक्त इन पहाड़ी इलाकों में एक अंग्रेजी कप्तान का कार्यक्षेत्र था, लोग उसे ’ग्रेगरी साहब’ के नाम से जानते थे । वह महिलाओं पर काफी अत्याचार किया करता था । संथाल परगना के क्षेत्रों में जो अत्याचार के कारनामे हो रही थे । इन घटनाओं से सिदो एवं कान्हू अनभिज्ञ नहीं थे । सिदो एवं कान्हू ने अत्याचारों के विभिन्न घटनाओं से संबंधित शिकायतों को सुचीबद्ध किया और उनके खिलाफ विभिन्न सरकारी महकमों के उच्च पदाधिकारियों के समक्ष, शिकायत पत्र भेजे परन्तु उन्होंने देखा कि शिकायत पत्रों पर प्रशासन की ओर से कोई सुनवाई नहीं हुई ।

सन् 1853 से ही विभिन्न अत्याचारों के खिलाफ लगातार शिकायत पत्र एवं ज्ञापन पत्र को अधिकारियों के समक्ष भेजने का कार्यक्रम चलता रहा, परन्तु सरकार की ओर से किस प्रकार की सुनवाई नहीं हो रही थी । इस उपेक्षा पूर्ण रवैये के कारण लोग असंतुष्ट होने लगे । संतालों के बीच धीरे-धीरे विद्रोह की आग सुलगने लगी । उन्होंने अत्याचारों के कारनामों से निदान पाने के लिए प्रत्यक्ष जन-आंदोलन की राहों पर चलना उचित समझा ।

संताल-हूल का जन आंदोलन जिसका निर्णायात्मक फैसला 30 जून 1855 को भगनाडीह ग्राम में रात्रि पहर के समय बुलाई गयी एक आम सभा में लिया गया । 30 जून 1855 के इस आम सभा में 10,000/- (दस हजार) से अधिक लोगों ने भाग लिया। इतिहासकारों का कहना है कि इस आम सभा में सभी समुदाय के लोग उपस्थित थे । उन्होंने एक मत से जमींदारों एवं महाजनों से निदान पाने के लिए अविराम संघर्ष का एलान किया । अविराम संघर्ष हेतु सभी ने सर्वस्व न्यौछावर के लिए तत्पर हो गए।

इस महान संताल-हुल के जन-आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए उपस्थित जन समूहों ने एक मत से सिदो एवं कान्हू इन दो भाईयों को सर्वमान्य नेता चुना । इन दोनों को सहयोग देने के लिए दो अन्य भाई चांद और भैरो भी आगे आए । 30 जून 1855 के रात्रि पहर में संताल-हूल का यह महासमर जिसकी शुरूआत सिदो एवं कान्हू ने क्रमशः परंपरागत रीति से पूजा-अर्चना करने के पश्चात् शंखनाद से किया । और नगाड़ो पे डंके की चोट बजाई । पुनः सिदो एवं कान्हू ने हूल बायार जितकार ! हूल सेंगेल जितकार!!’ के गगन भेदी नारों को बुलंद किया और उन्होंने इस तरह मुक्ति आंदोलन की शुरूआत की । मुक्ति आंदोलन के प्रथम सत्र में उन्होंने अत्याचारी निमाई मजुमदार एवं मानिक चंद को धर दबोचा । दूसरी पारी में उन्होंने अत्याचारी महेश दत्त दरोगा के जीवन लीला समाप्त कर दी । तीसरा पारी में आंदोलनकारियों ने अत्याचारी ठीकेदार टोमस एवं नील ठीकेदारों हेनस पर हमला किया वे घायल होकर घर से भाग निकले ।

संताल विद्रोह ने पाकुड़ की रानी क्षेमा सुंदरी को सावधान किया कि वह अग्रेजों का साथ न दे, परन्तु वह नहीं मानी । संतालों ने पाकुड़ के राजमहल पर धावा बोल दिया और अधीन में लाया । बिहार से सटे हुए हिस्से बांकुड़ा, बीरभूम, मुर्शिदाबाद के विशाल अंचलों पर संतालों ने अपना अधिकार कायम किया । मेजर बारोज पीर-पाड़ती के मैदान में अपने सैनिकों के साथ विद्रोह संतालों पर हमला किया और वह हार कर भाग गए । पुनः उन्होंने 27 जुलाई को बंदावनी और बासकोली पर बारी-बारी से हमला किया, परन्तु वे असफल रहे । इस लड़ाई में लेफ्टिनेंट टोलमिन विद्रोहियों के हाथों मारा गया तथा बिग्रेडियर बाउ भयभीत होकर भाग गए । इसी तरह भागलपुर के कमश्निर मि0 ब्राउन के नेतृत्व में सरकार की ओर से विद्रोह को कुचलने की कोशिशें जारी रही । विद्रोह को कुचलने के लिए बैरकपुर, बरहमपुर एवं दानापुर से सेना बुलाई गई । दुर्गम इलाकों में संताल विद्रोह को कुचलने के लिए हाथियों को उपयोग में लाया गया ।

बंगाल के धनी संभ्रात लोगों के सरकार का साथ दिया, मुर्शिदाबाद के नवाब ने 29 हाथियों और कई घोड़ों को मुर्शिदाबाद के मजिस्ट्रेट के पास भेजा, ताकि विद्रोहियों को दबाया जा सके । संताल-हूल के सेनानियों ने अत्याचारी जमींदारों एवं महाजनों के घरों को लूटते हुए क्रमशः आगे बढ़ते गये । कहा जाता है कि उन्होंने अत्याचारी जमींदारों एवं महाजनों के लूटे हुए धनों को गरीबों में बाँटते चले गए । उन्होंने केवल अत्याचारियों को निशान बनाया । संताल-हूल के सेनानियों ने 30 जून 1855 से माह सितम्बर 1856 तक लगातार दिन-रात अविराम गति से अपनी विनय पताका को लहराते हुए आगे बढ़ते गए । वे भगनाडीह (संताल परगना) से मुर्शिदाबाद । (बंगाल प्रांत) के छोर तक पूरे जोश के साथ हूल बायार जितकार ! हूल सेंगेल जितकार !! के नारों को बुलंद करते हुए आगे बढ़ते गए ।

संताल हूल समग्र जन आंदोलन का एक विशाल रूप था । इतिहासकारों ने इसे मुक्ति आंदोलन कहा । इस जन आंदोलन को नेतृत्व सिदो एवं कान्हू ने किया । इस लड़ाई में समस्त जन समुदायों ने अपना सहयोग पुरी जिम्मेदारी के साथ एवं ईमानदारी

से निभाया । जिसमें लोहार, कुम्हार जाति के लोगों ने सहायता किया लोहरों ने तीन, तलवार, भाला, बरछी और गड़ांसा को अपने लोहार शाल (भट्टी) में बनाने के लिए जिम्मा लिया । चमार (मोची) जाति के लोगों ने चमड़ों की टोपी, जूता चप्पल एवं अन्य पहनावे को बनाने के लिए काम संभाल । तांती एवं जुलाह जाति के लोगों ने कपड़ा एवं आदि कपड़ों को बनने का दायित्व लिया ।

डोम (कालिन्दी) एवं माहली समुदायों ने बांस के टोकरी को बनाने के लिए काम संभाला । विभिन्न संवाद एवं संदेशों को पहुँचाने के लिए कुछ व्यक्तियों ने सूचना देने का काम संभाला ताकि दुश्मनों को कोई भनकर नहीं मिल सके ।

महान संथाल-हूल के इस जन आंदोलन के कारण 30 जून 1855 से सितम्बर-1886 तक जनता की ओर से समस्त पर्व-त्यौहारों को उन्होंने सारे क्षेत्र में बंद रखा । जिसके फलस्वरूप आज भी संताल परगना के साथ सभी पर्वो को एक साथ मनाये जाने की प्रथा प्रचलित है और मकर संक्रान्ति जनवरी माह का (सकरात) का पर्व भी सोहराय पर्व के साथ ही मनाया जाता है । संताल-हूल के संग्रामियों के हाथों में हथियारों के नाम पर केवल तीर-धनुष, भाला, बरछी, तलवार और गड़ांसा था, परन्तु अग्रेज सैनिकों के पास बंदुके, तोपें, गोला-बारूद आदि अन्य युद्ध के आधुनिक हथियारों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे । अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों के साथ संताल-हूल के सैनिकों ने करीब 13 महीनों तक लगातार लड़ाई लड़ी । वे संताल हूल विजय पताका फहराते हुए बढ़ते गए । अंत में संताल हूल के सेनानियों ने अंग्रेज फौजों एवं उनके आधुनिक हथियारों के साथ लड़ते-लड़ते वीर गति प्राप्त की ।

तत्कालीन बाईसराय ने संताल हुल को दबाने के लिए हजारों अंग्रेज फौजों बटालियन एवं कंपनी भेजी । उन्होंने समस्त संताल परगना एवं आस-पास के इलाकों में ’मार्शल-लॉ’ को लागू कर दिया । इस ’मार्शल-लॉ’ के तहत अंग्रेज ने समस्त जन समुदायों पर अमानुषिक अत्याचार किया । अंग्रेजों के 200 वर्षो के शासन काल में केवल संताल हुल को दबाने के लिए ’मार्शल-लॉ’ को लागू किया था । इतिहास के पन्नों में इस मार्शल-लॉ के दौरान किये गए अमानुषिक अत्याचार के सम्बन्ध में कहीं भी जिक्र नहीं है, परन्तु मार्शल लॉ के तहत लोगों पर हुए अमानुषिक अत्याचार का विवरण आज भी संताली गीतों में उनकी दर्द की आवाज गूंजती है। संथाल परगना की जर्रा-जर्रा की भूमि, खेतों एवं खलिहानों में लाशों की ढेर बिछी हुई थी । खून की बूंदों की परत से मिट्टी लाल हो गई थी । तोपों और बारूद की गूंजों से संताल परगना की धरती कांप उठी  थी । मार्शल लॉ के दौरान हजारों संथाल-हूल के सेनानियों ने अपना प्राण न्यौछावर किया । कान्हू, चांद और भैरो भी अन्य साथियों के साथ शहीद हो गये। अमर वीर शिरोमणी सिदो केवल अकेला बच गया था, जब वह जंगल के बीच बहती नदी के किनारे स्नान करने के पश्चात सूर्य भगवान को प्रमाण कर रहा था कि अंग्रेजी फौजों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और गिरफ्तार कर लिया । सूर्य भगवान को प्रमाण करते समय भींगे कपड़ों में गिरफ्तारी के पूर्व पहाड़ों के ऊपर से उनके दुर्लभ ग्राफ चित्र को लिया गया । जिसे बाद में लंदन टाईम्स में प्रकाशित किया गया । उस रेखांकित ग्राफ चित्र की झलक से उस मकान वीर की आयु एवं ओजस्वी चेहरा का पता चलता है ।

मार्शल लॉ के समय युद्ध में पकड़े गये इस महान वीर को अंग्रेजों ने गोली का निशान बनाया जिससे उसकी प्राण पखेरू उड़ गए और सदा के लिए वह शहीद हो गया।  परन्तु आज भी उनकी अमर गाथा झारखण्ड के गिरी-कन्दराओं में एवं जन-जन के हृदय पटल में व्याप्त है । कहाजाता है कि संताल-हूल की गति काफी तेज थी । इस मुक्ति आंदोलन में बच्चें, बुढ़े, मर्द और औरत सभी ने समान रूप से हिस्सा लिया था ।

संताल-हूल की तेज गति को आंकने के लिए एक उदाहरण देना काफी होगा  जब अंग्रेजी फौजों की घेराबंदी में एक 70-80 वर्ष बूढ़ा पाया गया, वह चारों ओर बिखरे हुए लाशों की ढेर में निर्भय होकर तीर-धनुष को ताने खड़ा था और अंग्रेज सैनिकों पर तीनों की बौछार कर रहा था उसे तनिक भी मृत्यु का भय नहीं था, बल्कि पूर्ण जोश-खरोश के साथ लड़ने के लिए तैनात था । इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि आंदोलन में कितनी शक्ति थी ।

संताल-हूल की लड़ाई तो इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गई है, परन्तु उस वीरों की लड़ाई व्यर्थ नहीं हुई बल्कि इस लड़ाई के परिणाम स्वरूप दामिन-ई-को का यह पहाड़ी क्षेत्र संथाल परगना के नाम से अस्तित्व में आया और गौरवन्वित हुआ । संतालों (आदिवासियों) के भू-खंडों को सुरक्षित करने के लिए संताल परगना काश्तकारी अधिनियम को बनाया गया ।

संताल हूल की प्रेरणात्मक अनुभूति से 1857 का महान सिपाही विद्रोह हुआ और आगे इसी तरह स्वतंत्रता आंदोलन की अग्नि प्रज्वलित की गई । इस तरह संताल-हूल जन-आंदोलन का यह विशाल रूप जो गुलामी की जंजीरों से मुक्ति प्राप्त करने की चाह थी जब भी इस क्षेत्र के जन जीवन मे छायी हुई है ।

अब संताल-हुल का मुक्ति-आंदोलन से प्रभावित होकर क्रांतिकारी कार्ल मार्क्स ने समाजवाद की अनूठे विचारधारा को समस्त विश्व के धरातल में बिखेर दिया है । कार्ल मार्क्स के नजरों में महान वीर सेना सिदो एवं कान्हू मुक्ति आंदोलन एवं जन-आंदोलन का प्रथम प्रणेतर थे ।

 

जोबा मुर्मू

जमशेदपुर

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