भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की- राम प्रसाद बिस्मिल

राम प्रसाद बिस्मिल

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजूए-कातिल में है
इन पंक्तियों को आत्मा में उतार कर कोई जिया हो तो वे हैं राम प्रसाद बिस्मिल। भले ऐसा समझा जाता है इनके रचयिता वास्तव में बिस्मिल अजिमाबादी थे।
११जून १८९७ को शाहजहाँपुर गाँव में पंडित मुरलीधर और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मूलमती के घर एक बालक का जन्म होता है। ऐसा नहीं कि यह बालक बचपन से मेधावी या फिर जिसे कहते हैं ’होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ वाले कोई लक्षण थे। उल्टा यह बालक जन्म से दुर्बल था। उसके बड़े भाई की मृत्यु हो गई थी इसलिये माता पिता बड़े चिंतित थे।
इनकी माँ एक देश प्रेमी महिला थी, साहसी भी थी और यही गुण उनके पुत्र रामप्रसाद में उतर आए। वे लिखते हैं कि यदि उन्हे अपनी माँ से प्रेरणा न मिलती तो वे किसी भी सामान्य आदमी की तरह दिन गुजारते। किशोरावस्था में उनका स्वभाव उद्दण्ड था। क्यों न हो? उद्दंडता की बुराई करना केवल हमारा नजरिया है। इसी उद्दण्डता को चैनलाइज़ किया जाय तो बालक बड़ा हो कर महान कार्य कर सकता है। जैसा कि बिस्मिल के साथ हुआ। उन्होने हिन्दी घर पर सीखी और उर्दू एक मौलवी से। अंग्रेजी माध्यम की स्कूल में प्रवेश भी लिया। पर उन्होने काव्य सृजन की शक्ति और साहित्य का ज्ञान स्वयं हाँसिल किया। उनके जीवन में बड़ा परिवर्तन होने का अपनी माताजी के बाद दूसरा कारण था – आर्यसमाज। उनके घर में कुछ आर्य समाजी आए तो उन्हे स्वामी दयानंद सरस्वती का ’सत्यार्थ प्रकाश’ पढने का अवसर मिला। स्वामी सोमदेव का इन पर बहुत प्रभाव था। बिस्मिल ने ’मेरा जन्म’ कविता लिखी और सोमदेव को दिखाई। इस कविता में अंग्रेजो के शासन को उखाड़ फैंकने का द्रड़ निश्चय दिखाई दे रहा था। उन्होने वैदिक धर्म को समझा तब उन्होने आजीवन ब्रह्मचर्य का वृत लिया फलस्वरूप उन्होने शादी नहीं की। उन्होने ’कुमार सभा’ की सदस्यता ग्रहण की। आर्य सभा ने पहले तो इसे आश्रय दिया पर बाद में इन्हे बाहर निकाल दिया। पर इससे क्या होता है? उन्होने अखिल भारतीय कुमार सभा में जा कर भाग लिया। इस प्रकार भाग लेने से उन्हे कांग्रेस का अधिवेशन देखने का अवसर मिला।
सन १९१६ में कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष और नरम दल के नेता पं. जगतनारायण ’मुल्ला’ नहीं चाहते थे कि गरम दल के नेता बालगंगाधर तिलक का स्वागत हो। इस आदेश की धज्जियाँ उड़ाते हुए रामप्रसाद ने तिलक की पूरे शहर लखनऊ में शोभायात्रा निकाली तो इनकी द्रढ़ता देख कर सब आश्चर्यचकित थे।
बचपन से ही बिस्मिल को अस्त्र शस्त्रों से लगाव था। यह शौख भविष्य का मानचित्र खींच रहा था। ’मौत का एहसास पलपल / देह में अनुनाद कलकल / धमनियां फैली शीरा में / काल की गुर्राहटें भी / देह बुनता लाल चादर / राख में हैं सलवटें भी’ कईं बार शत्रुओं ने इनके पिता पर लाठियों से प्रहार किया था। अत: बिस्मिल बदला लेना चाहते थे। उन्हे एक न चलने वाली पिस्तोल किसी ने दे दी। बस वे इसे दिन भर साथ में रखते और इस तरह उनका हथियारों से प्रेम बढ़ता गया। उन्होने असली हथियार भी खरीदे।
उनके कई उपनाम थे जैसे ’बिस्मिल’, ’पंडित जी’,’अज्ञात’, ’राम’ इत्यादि। वे स्वतंत्रता सेनानी तो थे ही साथ ही उच्च कोटि के शायर, कवि, इतिहासकार, साहित्यकार थे और बहुत सी भाषाओं पर उनका अधिकार था पर सोने में सुहागा यह था कि वे क्रांतिवीर थे उन्होने भारत की आजादी के लिए प्राणो की आहूति दी।
सन १९१५ में लाहोर षड़यंत्र में वीर क्रांतिकारी भाई परमानंद को फाँसी सुना दी गई। बिस्मिल इनसे बहुत प्रभावित थे। इसी समय उन्होने भारत की स्वतंत्रता तथा इस देश को अंग्रेजो के अत्याचारों से मुक्त कराने की प्रतिज्ञा ली। मदनमोहन मालवीय और देशबंधु एण्ड्र्यूज के प्रयत्नो से भाई परमानंद की मृत्युदंड की सजा को आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया। पर बिस्मिल अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग थे। वे एक सच्चे आर्यसमाजी तो थे ही पर इस प्रकार उनके दिल में देशप्रेम के बीज का अंकुरण हुआ। इन्होने लिखा:
ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो ।
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कान्तिमय हो ।।
कांग्रेस के अधिवेशन में उनका संपर्क क्रांतिकारी युवकों से हुआ। उनकी ’गुप्त समिति’ से हुआ। वे इसके सदस्य बन गए। और वे कुछ ही दिनो में इसकी कार्यकारिणी के सदस्य बन गए। उन्हे अपनी पुस्तक ’अमेरिका को स्वतंत्रता कैसे मिली’ प्रकाशित करवानी थी। अपनी माँ की मदद से उन्होने यह पुस्तक छपवाई। उसे बेच कर लाभ हुआ तो माँ से लिए रूपए लौटा दिए। उन्होने ’देशवासियों के नाम संदेश’ नामक पर्चा भी छपवाया। यह पर्चा शहर की दिवालों पर चिपकाया और वितरित भी किया। संयुक्त प्रांत की सरकार को पता चला तो उसने पुस्तक और पर्चा सब कुछ जब्त कर लिया।
फिर आश्चर्य नहीं कि उनके कई उपनाम थे जैसे ’बिस्मिल’, ’पंडित जी’,’अज्ञात’, ’राम’ इत्यादि। वे स्वतंत्रता सेनानी तो थे ही साथ ही उच्च कोटि के शायर, कवि, इतिहासकार, साहित्यकार थे और बहुत सी भाषाओं पर उनका अधिकार था पर सोने में सुहागा यह था कि वे क्रांतिवीर थे उन्होने भारत की आजादी के लिए प्राणो की आहुति दी।
सन १९१६ में कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष और नरम दल के नेता पं. जगतनारायण ’मुल्ला’ नहीं चाहते थे कि गरम दल के नेता बालगंगाधर तिलक का स्वागत हो। इस आदेश की धज्जियाँ उड़ाते हुए रामप्रसाद तिलक की पूरे शहर लखनऊ में शोभायात्रा निकाली तो इनकी द्रढ़ता देख कर सब आश्चर्यचकित थे।
मैनपुरी षड़यंत्र कहा जाता है उसके अंतर्गत उन्होने क्रांतिकारी संस्था का संगठन किया उसे ’मातृवेदी’ नाम दिया। सोमदेव ने कुछ डाकुओं को इकठ्ठा किया क्योंकि उनकी शक्ति का उपयोग उन्हे ब्रिटिश राज से संघर्ष में करना था। बिस्मिल का यह संगठन और साथ में श्री गेंडालाल दिक्षित की शिवाजी समिति ने मिल कर यूनाइटेड प्रोविंस ( आज का उत्तर प्रदेश ) में अपनी शक्ति बढा ली। २८ से ३१ जनवरी १९१८ के बीच क्रांतिकारी पार्टी की ओर से ४ पृष्ठ का पैम्फलेट ’दि रिवोल्यूशनरी’ निकाला जिसमें बिस्मिल ने अपना नाम बदलते हुए याने विजयकुमार छद्मनाम से अपने दल की विचारधारा से सब को अवगत कराया। उसमें स्पष्ट रूप से लिखा कि क्रांतिकारी इस देश में कैसा बदलाव चाहते हैं। इसमें उन्होने गाँधीजी की नीतियों से असहमत होते हुए मजाक उडाई है। तीन बार पार्टी के फंड के लिए सरकार का पैसा लूटने के केस में अंग्रेजो ने उन्हे पकड़ना चाहा पर वे यमुना में कूद कर निकल भागे।
बिस्मिल ने भूमिगत हो कर कईं कार्य किये। अपनी व दूसरे कवियों की कविताएं प्रकाशित करवाई। उन्होने ’योगिक साधन’ लिखी। उनकी ’क्रांति गीतांजलि’ मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई जिस पर अंग्रेजी राज ने १९३१ में प्रतिबंध लगा दिया। वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक सदस्य थे। इसका पीले पत्र पर संविधान बनाया

जिस काकोरी काण्ड के लिए बिस्मिल जाने जाते हैं, यह योजना अद्भूत होने के साथ खतरनाक भी थी । लखनऊ में ९ अगस्त १९२५ को रेल विभाग द्वारा ले जाई गई राशी को लूटा। यह घटना इतिहास में काकोरी षड्यंत्र के नाम से जानी जाती है। बिस्मिल ने १० लोगो से मिल कर एक योजना बनाई। रेल के गार्ड को बंदूक की नोक दिखा कर काबू में किया। फिर यह दल लोहे की तिजोरी को तोड़ कर चार हजार रूपये ले कर फरार हो गया। इस घटना ने देश के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। पूरे देश में स्वतंत्रता की लहर दौड गई। इस घटना के कारण ४३ अभियुक्तों पर मुकदमा चला। सरकारी वकिल जगतनारायण मुल्ला ने अभियुक्तो के लिए मुलाजिम शब्द बोल दिया। इस पर बिस्मिल ने व्यंग्य से कहा कि यहाँ सरकारी मुलाजिम तो खुद जगतनारायण मुल्ला हैं।
“मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है;
अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं।
पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से;
कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।”

बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशनसिंह को राजद्रोह का अभियोग लगाकर मत्युदंड की सजा सुनाई। मन्मथनाथ गुप्त को १४ वर्षों का सश्रम कारावास दिया गया। फिर अशफाकुल्लाखान को भी मृत्युदण्ड दिया गया। अन्य १४ को लंबी सजा हुई और दो व्यक्ति मुखबिर बन गए। चन्द्रशेखर आजाद जो इसमें शामिल थे उनको पुलिस खोजती ही रह गई।
अब बिस्मिल गोरखपुर की जेल में महाप्रयाण की तैयारी करने लगे। इन्होने जेल में आत्मकथा लिखी। फाँसी का फंदा चूमने से तीन दिन पहले तक वे लिखते रहे। १६ दिसंबर को लिखा कि १९ दिसंबर १९२७ ई. को फाँसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हो चुकी है। अतः नियत समय पर इहलीला संवरण करनी होगी।’ बहादुरी इतनी कि वे स्वयं की मृत्यु का वृत्तांत ऐसे लिख रहे हैं जैसे वे किसी अन्य व्यक्ति के बारे में बतला रहे हैं।
पिता फाँसी से पहले अपने पुत्र से मिलने आए तो वे बिस्मिल की माँ को लेकर नहीं आए यह सोच कि माँ इस सदमे को सहन नहीं कर पाएगी। पर माँ तो वहाँ उनके पहले ही पहुँच चुकी थी। बिस्मिल की आँखो में आँसू छलछला उठे तो उन्होने अपनी माँ को विश्वास दिलाया कि माँ, यह आँसू मौत की डर की वजह से नहीं हैं माँ, तुम मुझ पर विश्वास करो। यह तुम्हारा स्नेह देख कर आँसू आए हैं।

१९ दिसम्बर १९२७ को बिस्मिल रोज की तरह ४ बजे उठे। संध्या उपासना के बाद ’वन्दे मातरम’ और ’भारत माता की जय’ का उद्घोष करते हुए फाँसी को चूमने के लिए चल पड़े। और गाने लगे “जब तक कि तन में जान रगो में लहू रहे। तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।“
अंतिम इच्छा? उन्होने अंग्रेजी में अंतिम इच्छा यह माँगी: “I wish the downfall of British Empire” याने “मै ब्रिटिश साम्राज्य का नाश चाहता हूँ।“ फिर उन्होने एक वैदिक मंत्र का पाठ किया।
जब रामप्रसाद बिस्मिल को फाँसी लगी तो जेल के बाहर विशाल जनसमुदाय की भीड़ थी जो बिस्मिल के दर्शन की प्रतीक्षा कर रही थी। फाँसी के बाद पार्थीव देह जनता को मिली तो जनता ने इसे पूरे शहर में सम्मान के साथ घुमाया। लोगो ने उस पर फूल और सुगंधित पदार्थ बरसाए। वैदिक मन्त्रों से उनका अंतिम संस्कार हुआ।
ऐसे क्रांतिवीरों को अपनी मौत भी सजी हुई दुल्हन सी लगती है मानो वे कहते हों कि “मौत आए यों सजधज कर फिर स्वर्गलोक में क्या होगा?” मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर करने के अतिरिक्त उन्हे किसी भी स्वर्गलोक की इच्छा नहीं होती।
बिस्मिल कहते हैं:
यहां तक सरफ़रोशाने-वतन बढ़ जाएंगे क़ातिल,
कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे दो-चार फांसी से।

हरिहर झा
ऑस्ट्रेलिया

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