स्वतंत्रता की मशाल के वाहक–मेजर मोहित शर्मा, अशोक चक्र
“इस कदर वाकिफ़ है मेरी कलम मेरे जज्बातों से,
अगर मैं इश्क भी लिखना चाहूँ तो कलम इन्कलाब.
लिखती है”
भगत सिंह
वर्ष 1857 से 1947 तक के इतिहास को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है। इस काल में भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। स्वतंत्रता की लड़ाई के इस महायज्ञ में अनेक महानायकों ने अपने जीवन की आहुति दी है। हम भारतवासी उन वीर योद्धाओं, वीरांगनाओं के ऋणी हैं जिनके सतत्त प्रयास और बलिदान के फलस्वरूप आज भारत, स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव बहुत उल्लास और गौरव के साथ मना रहा है। हम भारतीय भाग्यशाली हैं जो इस उत्सव के साक्षी हैं।
जब हम स्वतंत्रता के इस महासंग्राम के इतिहास पर दृष्टि दौड़ाएँ तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना की जो लौ इन वीरों ने जलाई थी, उसकी ज्योति को स्वतंत्र भारत की नई पीढ़ी ने बुझने नहीं दिया। जब भी भारत भूमि की रक्षा पर आँच आई, अथवा जब भी शत्रु ने भारतभूमि की पावन धरती पर पाँव रखने का दुस्साहस किया, इस नई पीढ़ी ने उतने ही संकल्प और पराक्रम से सीमाओं पर शत्रु को पछाड़ कर देश की आज़ादी की अक्षुण्णता को कायम रखा।
स्वतंत्रता की उसी मशाल को गर्व के साथ थामने वाले रणबांकुरों में से आज मैं आपको एक ऐसे योद्धा से परिचित कराती हूँ जिसने अपनी वीरता के साथ-साथ अपने सैनिक प्रशिक्षण से प्राप्त की हुई सूझबूझ के द्वारा कई बार चालाक शत्रु के देश की सीमाओं में हिंसा फैलाने के प्रयत्नों को बिफल किया। इस मुहीम में उन्हें सफलता तो मिली लेकिन अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़ी।
स्वतंत्रता की उसी ज्वलंत ज्योत को थामने वाले मेजर मोहित शर्मा की शौर्य गाथा को स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के स्वर्णिम पलों में ऋणी देशवासियों के साथ साझा करते हुए मुझे अपरिमित गौरव और गर्व की भावना की अनुभूति हो रही है।
उनकी कहानी कहाँ से आरम्भ करूँ —- मनुष्य इस संसार में एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति, किसी संदेश को प्रचारित करने के लिए जन्म लेता है और उसी के अनुसार अपना कर्मक्षेत्र भी निर्धारित कर लेता है। मेजर मोहित के मन में देश प्रेम, स्वाभिमान और साहस की भावना बचपन से ही प्रबल थी। भारत माता के जाँबाज सपूत मोहित शर्मा उन लोगो में से थे, जिन्हे खुद से ज्यादा देश से प्यार था।
मोहित शर्मा का जन्म रोहतक, हरियाणा में 13 जनवरी 1978 को हुआ था। मोहित के घरवाले उन्हें प्यार से चिंटू और उनके दोस्त माइक कहकर बुलाते थे। मोहित के माता-पिता उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे। इसीलिए मोहित ने स्कूल के बाद संत गजानन महाराज कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, महाराष्ट्र में एडमिशन भी लिया था।
दरअसल मोहित के घर वालों का मानना था कि उनका वजन काफी कम है। इसी कारण वह कभी सेना में भर्ती नहीं हो सकते हैं। इधर मोहित ने मन ही मन ठान लिया था कि वह भारतीय सेना में भर्ती होकर ही रहेंगे। इसके लिए उन्होंने इंजीनियरिंग में एडमिशन लेने के बाद भी एनडीए की तैयारी शुरू कर दी और कुछ समय बाद उन्होंने एनडीए की परीक्षा भी पास कर एसएसबी का इंटरव्यू भी पास कर लिया। यह सब उन्होंने अपने माता-पिता की जानकारी के बिना ही किया। जब उन्होंने यह बात अपने घर वालों को बताई कि उन्होंने NDA एग्जाम पास कर लिया है, तब उनके परिवार वालों को यकीन ही नहीं हुआ। मेजर मोहित शर्मा ने घरवालों से छुपाकर NDA का फॉर्म भरा था और चुप-चाप ही तैयारी कर रहे थे। यानी अपने जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने हर उस बाधा को लाँघा जो उनके मार्ग में आई। इस बाधा को लाँघने के लिए युवा मोहित ने अपने परिवार से अपने मन के भेद को छुपाने का मार्ग अपनाया।
११ दिसंबर १९९९ को आइएमए से पास आउट हो कर उन्हें मद्रास रेजिमेंट में कमीशन मिली थी। इस यूनिट के अंतर्गत उन्होंने COUNTER INSERGENSI ऑपरेशन के हिस्से के रूप में कश्मीर में 38 राष्ट्रीय रायफल्स के साथ कई बार आतंकियों से लोहा लिया था और हर बार सफल हुए थे । उनके इस वीरतापूर्ण अभियानों की सफलता के कारण वे चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ का COMMNEDTION मैडल से भी अलंकृत हुए थे।
भारतीय सेना के वीर योद्धाओं की शौर्य गाथा सुनाते हुए मैं एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि सीमाओं पर शत्रु के साथ युद्ध करना और अपने देश की सीमाओं के भीतर घने जंगलों में छिपे हुए, अपने ही जैसी वेशभूषा और बोली बोलने वाले देश के शत्रुओं के साथ आमने-सामने का युद्ध करना कहीं बहुत अधिक कठिन है। इसके लिए सैनिक को विशेष प्रशिक्षण लेना पड़ता है, जिसमें वीरता के साथ-साथ साहस और युद्ध शास्त्र के दाँव पेच को भी अपने मन मस्तिष्क में हर घड़ी तैयार रखना पड़ता है।
मोहित ने भी अपनी कश्मीर पोस्टिंग के समय कई बार आतंकियों को हराया लेकिन उन के लिए बस इतना कुछ काफी नहीं था। वह तो वीरता के शिखर की ऊँचाइयों को छूना चाहते थे। वह तो साधारण से कुछ असाधारण करना चाहते थे। अपनी इसी उमंग और जोश के कारण उन्होंने भारतीय सेना की महत्वपूर्ण पलटन 1 पैरा सपैशल फोर्सेस में सम्मिलित होने के लिए volunteer किया। यह पलटन उन दिनों कश्मीर के पहाड़ों और जंगलों में छिपे हुए आतंकवादियों का सफाया करने में लगी हुई थी। मोहित के जीवन का हर पल बस आतंकियों को समूल नष्ट करने के जूनून में बीतता था। अपने इसी संकल्प को मूर्तरूप देखने के लिए उन्होंने आतंकियों की भाषा सीखी, उनके जैसी वेशभूषा धारण की और अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ कुछ असाधारण करने की योजना बनाई।
आइये अब मैं आपको मोहित के उस संकल्प और साहस की कहानी सुनाती हूँ जिसे सुन कर हर किसी के रौंगटे खड़े हो सकते हैं —–
कश्मीर के किसी इलाके में एक युवा कश्मीरी बालक, इफ्तिकार भट्ट ने कंधे तक लम्बे बालों के साथ और पारम्परिक कश्मीरी पोशाक फिरन पहने हुए, बड़ी बदहवास हालत में शोपियाँ, कश्मीर में खूंखार हिजबुल मुजाहिदीन से संपर्क किया।
जब इनसे वहाँ आने का कारण पूछा गया तो बहुत आत्मविश्वास के साथ उन्होंने अपने मन में गढी हुई कहानी दोहरा दी। जब उनसे पूछा गया कि वह भारतीय सेना से क्यों लड़ना चाहते हैं, तो उन्होंने शुद्ध कश्मीरी में सेना पर सबसे अच्छे अपशब्दों से वार किया और बड़े संयत स्वर में उन्हें बताया कि वर्ष 2001 में सुरक्षा बलों द्वारा किये गये पथराव की घटना में उन्होंने अपने भाई को खो दिया था। उन्होंने बड़े रोष के साथ सुरक्षाबलों को अपने भाई की मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया। अब वह अपने भाई की मौत का बदला लेना चाहते थे और इसके लिए उन्हें आतंकियों की सहायता चाहिए। कुछ प्रश्न पूछने पर मोहित ने आतंकियों के नेताओं को बताया कि उनकी प्लानिंग आर्मी चेक प्वाइंट पर सेना के काफ़िले पर हमला करने की है और इसके लिए उन्होंने पूरी तैयारी भी कर ली है।
शत्रु के सामने अपना संकल्प रखने के लिए उन्होंने न जाने कितने दृढ़ आत्मविश्वास का सहारा लिया होगा। शायद यह उनकी ट्रेनिंग का ही प्रतिफल था कि आतंकियों के नेता उनकी सहायता के लिए तैयार हो गये। मोहित ने उनसे कहा कि वह कई सप्ताह के लिए भूमिगत रहेंगे ताकि हमले के लिए पूरे हथियार और मैप आदि जुटा सकें। इस बीच वह अपने गाँव भी नहीं जायेंगे। आतंकी नेता तोरारा और सबजार ने मोहित के लिए ग्रनेड की खेप इकट्ठा करनी शुरू कर दी और उन्हें अन्य तीन आतंकियों के साथ पास के गाँव में एक कमरे में ठहरा दिया।
आशंका के कारण बार-बार उनकी कहानी की जाँच की गई लेकिन हर बार वह उन्हें झांसा देने में सफल हो गए। पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद उन्हें आगे के प्रशिक्षण के लिए पाकिस्तान ले जाया गया। अन्य रंगरूटों के विपरीत इस युवा लड़के ने उत्कृष्ट पहल और उत्साह का प्रदर्शन किया तो उन्हें और आगे के नेतृत्व और वैचारिक प्रशिक्षण के लिए तुरंत चिह्नित किया गया। आखिरकार उन्हें एलओसी पार करने और भारतीय सेना की चौकी पर हमला करने का मौका दिया गया। इस अभूतपूर्व फैसले में उन्हें अबू सब्जार और अबू तोरारा नाम के हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडरों के तहत सीधे तौर पर प्रतिनियुक्त किया गया।
कुछ दिनों में ही मोहित ने दोनों को आश्वस्त किया कि वह सेना की चौकी पर हमला कर सकता है जिससे अधिकतम नुकसान हो सकता है। अपनी इस सुनिश्चित योजना के अनुसार वह उन्हें एक सुविधाजनक स्थान पर ले गया और उन दोनों को प्रभावित करते हुए उसने अपनी योजना का विस्तृत प्रदर्शन किया। उनके कौशल को देख कर अबू सब्जार को अब इस बात पर संदेह हो गया कि बिना सैन्य अनुभव वाला यह युवक इतनी सावधानी से सैन्य हमले की योजना कैसे बना सकता है। वह उससे उसकी पृष्ठभूमि और कहानी के बारे में बार-बार सवाल पूछने लगा।
उनके अविश्वास को भाँपते हुए युवा लड़के ने उनसे कहा, “अगर आपको मुझ पर कोई शक है तो मुझे गोली मार दो। इसके साथ ही इस निर्भीक योद्धा ने निडरता से अपनी एके 47 ज़मीन पर गिरा दी और कहा कि अगर वे उस पर भरोसा नहीं करते हैं तो वे उसे गोली मार सकते हैं। तोरारा यह सुन के सोच में पड़ गया और आश्वस्त होने के लिए उसने अपने दूसरे साथी की ओर देखा। यही एक सूक्षम पल था जब मोहित ने अपने जीवन का सब से महत्वपूर्ण निर्णय लिया। मोहित की आँखों में झाँकते हुए उन दोनों ने अपने हथियार रख दिए और पीठ मोड़ कर आगे चलने लगे। कुछ कदम मोहित भी उनके साथ चलता रहा। आगे चलकर वह रुका, अपनी कमरबंद से अपनी 9 एमएम की पिस्तौल निकाली और उन दोनों को गोली मार दी। यह एक भारतीय सेना के पैरा एसएफ ऑपरेटर के ट्रेडमार्क शॉट्स थे जिसकी ट्रेनिंग वह कितनी बार ले चुके थे। आज उन्हें वह अवसर मिला कि वह अपनी शिक्षा के सिद्धांतों को मूर्तरूप कर सके। इस अभूतपूर्व, साहसिक घटना के बाद इफ्तिकार भट्ट अपने सारे हथियार उठाकर छिपते-छिपाते चुपचाप नजदीकी आर्मी कैंप में चले गए। अब वह पुन: मेजर मोहित शर्मा थे।
परमवीर मेजर मोहित शर्मा के लिए यह छद्म भेष का अभियान एक खेल के समान था। इस ऑपरेशन के बाद वह वापिस अपनी यूनिट लौटे,जो कि हिमाचल प्रदेश के एक खूबसूरत स्थान नाहन में स्थित थी। चार वर्षों तक उन्हें भारत के विभिन्न सैन्य शिक्षा संस्थानों में एक प्रशिक्षक के पद पर नियुक्त किया गया। कालान्तर में इस युवा सैन्य अधिकारी की भेंट एक अन्य युवा सैनिक अधिकारी कैप्टन रिश्मा सरीन से हुई। दोनों के जीवन का एक ही ध्येय था, राष्ट्र सेवा और राष्ट्र रक्षा। जल्दी ही दोनों विवाह बंधन में बंध गये।
इनका वैवाहिक जीवन बहुत ही कम अवधि तक रहा। 1 पैरा स्पेशल फोर्सेस, उस समय कश्मीर घाटी में फैले आतंकवाद से लड़ने के लिए वहाँ पर तैनात थी। मोहित को भी अपनी ‘ब्रावो असाल्ट टीम’ के साथ कश्मीर के कुपवाड़ा क्षेत्र में एक बहुत ही महत्वपूर्ण अभियान के लिए भेज दिया गया।
21 मार्च 2009 के दिन विश्वस्त सूत्रों के द्वारा मोहित को जंगलों में कुछ आतंकियों के छिपे होने की खबर मिली थी, जो घाटी में घुसपैठ करके आतंक फ़ैलाने की कोशिशें कर रहे थे। इन्हें नष्ट करने के लिए ‘1 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ की ब्रावो टीम को आदेश दिए गये। शत्रु को परास्त करने की मंशा से मोहित ने पूरे ऑपरेशन की योजना बनाई और अपनी कमांडो टीम का नेतृत्व करते हुए घने जंगलों में शत्रु की टोह लेते हुए, अँधेरे को चीरते हुए आगे बढ़ते रहे।
ऐसे अभियान में शत्रु का पलड़ा हमेशा भारी इसलिए होता है क्योंकि उन्हें उस जंगल के चप्पे चप्पे की पहचान होती है। इसके विपरीत हमारे सैनिकों को उन्हें अँधेरे में ढूँढ कर उन पर प्रहार करना होता है। इस अभियान में भी आतंकी तीनों तरफ से फायरिंग कर रहे थे। मेजर मोहित बड़ी कुशलता से अपनी टीम को आगे बढ़ने के निर्देश देते रहे। उस जंगल के हर कोने से परिचित आतंकियों की फायरिंग इतनी सही निशाने पर थी कि मोहित की टीम के चार कमांडो तुरंत ही उसकी चपेट में आ गए। उस समय मोहित ने अपनी सुरक्षा पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया और वह रेंगते हुए अपने साथियों तक पहुँचे और उनकी जान बचाई। इसी बीच उन्होंने आतंकियों पर ग्रेनेड फेंके और दो आतंकी वहीं ढेर हो गए। आमने-सामने के इस युद्ध में मेजर मोहित के सीने में एक गोली लग गई। इसके बाद भी वह रुके नहीं। बुरी तरह घायल होने के बाद भी अपने कमांडोज को निर्देश देते रहे। उस समय मोहित को अपने साथियों पर खतरे का अंदेशा हो गया था। अपनी गहरी चोट को बिलकुल नज़रंदाज़ करते हुए उन्होंने आगे बढ़ कर फिर से शत्रु पर हमला किया और बचे हुए आतंकियों को ढेर किया। इस अभियान में वीरता और संकल्प की मूरत यह वीर योद्धा अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गये। उनके अंतिम शब्द थे —-‘देखना एक भी न बचे’।
मेजर मोहित जिस ऑपरेशन का नेतृत्व कर रहे थे, उस ऑपरेशन को ‘ऑप रक्षक’ नाम दिया गया था। पराक्रम और अदम्य साहस की मिसाल मेजर मोहित शर्मा ने उस रात वास्तव में रक्षक नाम को अक्षरश: चरितार्थ कर दिया।
अपने सेवा काल में ‘सेना मेडल’ से अलंकृत मेजर मोहित को इस अभियान में उनकी बहादुरी के लिए शांति काल में दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘अशोक चक्र’से सम्मानित किया गया। यह सम्मान मरणोपरांत उन्हें दिया गया जो उनकी सैनिक पत्नी मेजर रिश्मा सरीन ने ग्रहण किया।
राष्ट्रहित भेस बदल कर शत्रु के साथ युद्ध में शत्रु को हराने की बहुत सी घटनाएँ भारत के इतिहास में मिल जाएँगी। भगवान् कृष्ण को राजनीति और कूटनीति में दक्ष माना गया है। अपने जीवन काल में उन्हें कई बार छलपूर्ण नीति का भी सहारा लेना पड़ा और इसके लिए उन्हें भेस भी बदलना पड़ा। लेकिन सत्य और धर्म की रक्षा के लिए यह करना आवशयक था। यदि वह ऐसा नहीं करते तो समाज में अधर्म का राज होता। इसी प्रकार स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता सुभाष चन्द्र बोस भी पठान का भेस बना कर भारत से बाहर गए थे। इसके बाद ही उन्होंने आज़ाद हिन्द फौज की नींव रखी थी। अगर उस समय वह यह कदम नहीं उठाते तो शायद भारत की स्वतंत्रता की कहानी के पन्नों में कुछ और लिखा जाता ।
युवा सैनिक अधिकारी मेजर मोहित ने भी कभी भेस बदल कर और कभी युद्ध के दाव-पेंच के सहारे खूँखार आतंकियों को और उससे भी अधिक उनके हिंसक इरादों को अपनी वीरता और सूझबूझ से नष्ट कर दिया। शायद उन्होंने अपने बाल्यकाल में भगवान् कृष्ण और सुभाषचंद्र बोस की कहानियाँ सुनी होंगी।
आज मेजर मोहित युवा वर्ग के ह्रदय में शौर्य शक्ति को उद्भासित करके, राष्ट्र सेवा और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्राण उत्सर्ग करने की जीवंत मशाल बन कर खड़े हैं। स्वाधीनता के महायज्ञ की अमर ज्योत में उनका नाम अकम्पित लौ की तरह जल रहा है।
उस अप्रतिम योद्धा मेजर मोहित शर्मा को समर्पित एक सैनिक पत्नी के उद्गार —
“खो न जाए गहन गुहा में
हो न जाए बात पुरानी
आओ फिर से दोहरायें हम
उन वीरों की कथा-कहानी”
शशि पाधा
अमेरिका