सिंधुताई सपकाल – अनाथों की मॉं
“लकीर की फकीर हूँ मै, उसका कोई गम नही, नही धन तो क्या हुआ, इज्जत तो मेरी कम नही!”
यह कहने वाली हम सबकी माई सिंधुताई सपकाल जो कि 1400 बच्चों की मॉं है जिसके परिवार में 250 दामाद, 50 बहुएं और 250 गाएं हैं, उन्होंने अंधेरे में डूबती जिंदगियों में आशा का दीपक जलाया, खुद संकंटों से लड़ती रही और गिरकर भी हर बार खड़ी हुई, ऐसी अनोखी माई यानि मॉं, सिंधुताई सपकाल । वे एक भारतीय समाज सुधारक रहीं हैं। जिन्हें “अनाथ बच्चों की माँ” के रूप में जाना जाता है, आइए ऐसी महान विभूति इस देश की सिंधुताई के जीवन दर्शन पर प्रकाश डालें।
वे विशेष रूप से भारत में अनाथ बच्चों को पालने और उनके भरण पोषण का कार्य करती थीं। वर्ष 2016 में सिंधुताई को समाज सेवा के कार्यों के लिए डीवाई पाटिल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड रिसर्च द्वारा साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया था ।
750 पुरस्कार जिनके नाम पर हैं और 4 राष्ट्रपति पदक मिले हैं। उन्होंने 22 देशों में जाकर अपने बच्चों के लिए धन इकट्ठा किया और पद्मश्री से सम्मानित भी हुईं। सिन्धुताई सपकाल का निधन 73 वर्ष की उम्र में पुणे(महाराष्ट्र) में 4 जनवरी 2022 को दिल का दौरा पड़ने के कारण हुआ।
सिंधुताई जन्म और शिक्षा :-
समाज सुधारक सिंधुताई का जन्म 14 नवंबर 1948 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले में एक मवेशी चराने वाले परिवार में हुआ था । गाय-भैंस चराना उनके परिवार के उदरनिर्वाह का माध्यम था। उन्हें बचपन में चिंदी नाम से पुकारा जाता (कपड़े के फटे हुए टुकड़े के लिए मराठी शब्द) । जैसे कपड़े का फटा टुकड़ा किसी काम नहीं आता, उसे हम चिंदी कहते हैं वही नाम मार्इ् को बचपन में मिला। उनके पिता सिंधुताई को शिक्षित करने के इच्छुक थे। सिंधुताई के पिता उन्हें मवेशी चराने के बहाने से स्कूल भेजते थे। गायों को नाले में बैठाकर वो स्कूल पहुंचती, रोज देर से स्कूल पहुँचने के कारण अध्यापक की छड़ी का प्रसाद मिलता और यदि उनकी गायें किसी के खेत में घुस जातीं तो उनकी ओर से भी डांट पड़ती । एक बार वो व्यक्ति स्कूल पहुँच गए जिनके खेतों में गाय घुस गईं, यह सब उनके अध्यापक के ध्यान में आया कि क्यों उन्हें रोज देर हुआ करती थी । इसी तरह वे चौथी पास हुई।वे कहतीं मैं हाफटाईम चौथी पास हूँ। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण अभिमान जी एक पट्टी (स्लेट) का भी खर्च नहीं उठा सकते थे इसलिए वह एक स्लेट के रूप में ‘भड़डी के पेड़’ के पत्ते का उपयोग करते थे ।
विवाह एवं प्रारंभिक संघर्ष:—
स्वतंत्र भारत में पैदा होने के बाद भी वे भारतीय समाज में मौजूद सामाजिक अत्याचारों का शिकार हुईं । जब सिंधुताई केवल दस साल की थीं, जब उनका विवाह 35 साल के श्रीहरी सपकाल से कर दिया गया। बाल विवाह के कुरीति का शिकार होने के बाद भी युवा सिंधुताई जीवन के प्रति आशावादी थी बल्कि संवेदनशील और दुर्व्यवहार के प्रतिकार में मदद करने के लिए उसका उत्साह बढ़ गया। अपने पति के घर में बसने के बाद, वह जमींदारों और वन अधिकारियों द्वारा महिलाओं के शोषण के खिलाफ खड़ी हुई। उन्हें अक्सर राशन के सामान के साथ कागज का कोई टुकड़ा मिल जाता जिसे वे पढ़ती यही उनकी पुस्तकीय संपदा थी, कभी कोई कविता हाथ लग जाती तो वही पढ़ लेतीं और कंठस्थ कर लेती। उनके पति का अहंकार आड़े जाता जो स्वयं निरक्षर होते हुए अपनी पत्नी को साक्षर न देख पाता और बढ़कर उनसे कागज का टुकड़ा खींच लेते । कभी किसी की नज़र न पड़े इसीलिए वें कागज़ को चबा लेतीं। इन कागजों को संभालने के लिए उन्होंने एक जगह ढूँढ रखी थी एक चूहे का बिल। लेकिन बाद में कागज नहीं मिलता उन्हें । एक बार तो बड़े बिल में रख दिए कुछ कविताओं के कागज़ । शायद वो किसी सांप या नेवले का बिल था। बाद में जब उन्होंने अपना हाथ डालकर कागज निकालने की कोशिश की तो नेवले ने उनके हाथ को ही सांप समझकर पकड़ लिया, उनकी उंगली काट ली लेकिन फि़र भी उन्होंने बड़ी सफाई से अपना कागज छुडा लिया ।
रोज किसी न किसी बात पर संघर्ष करना होता । वह नहीं जानती थीं कि इस लड़ाई के बाद उसका जीवन और मुश्किल हो जायेगा जब वह बीस वर्ष की उम्र में गर्भवती हुई , गाय के गोबर को इकट्ठा करने की आय में महिलाओं का भी हिस्सा होना चाहिए इस बात पर जमींदार से संघर्ष किया तो उस क्रोधित जमींदार ने घृणित अफवाह फैला दी, जिसके कारण अंततः सिंधुताई को उनके घरवालों ने बाहर निकाल दिया।
बड़ा आसान होता है किसी औरत को उसकी अस्मिता के नाम पर झूठा साबित करना जहां विश्वास न हो वहां तो यह सहज ही हो जाता है । खैर उनके पति ने नौमाह की गर्भवती पत्नी को बुरी तरह से डांटा और घर से निकाल दिया। लातों की मार खाकर उस रात सिंधुताई बेहद निराश और हतप्रभ महसूस कर रही थी। वे वहीं बेहोश हो गईं। घरवालों ने सोचा वे मर जाएंगी, उन्हें गाय की गोशाला में डाल दिया कि सुबह तक गायों के लातों की मार खाकर पूरी तरह मर जाए। सिंधुताई ने अपनी बेटी को गौशाला में जन्म दिया लेकिन गर्भ से शिशु की नाल को कैसे काटती इसीलिए पास ही पड़े एक पत्थर को उस नाल पर मारा 1-2 बार नहीं बल्कि कुल 16 बार मारा, सब ओर खून फैला हुआ था । पास एक नदी की ओर गई और ठंडे पानी से उस नवजात शिशु को साफ किया , मां के साथ बेटी की भी संघर्ष कहानी शुरू हो चुकी थी। उस जमाने में जब स्त्री को ससुराल वालों ने निकाल दिया हो उसे मायके वाले भी स्वीकार नहीं करते, खैर अभी भी शायद कहीं ऐसा होता है।
पेट की भूख ने उन्हें रेल्वे स्टेशन की ओर पहुँचा दिया वे गाकर भीख मांगती, इसीलिए उन्हें दूसरे भिखारियों से अधिक खाना मिलता जिसे वे अन्य भिखारियों के साथ बांटकर खातीं। बदले में वे उनकी रक्षा करते, उनसे उन्हें खतरा नहीं होता था।, रात को वो जल्दी सो जाते तो वे पहुँच जाती शमशान की ओर। एक बार शमशान में कोई प्रेत जल रहा था पास ही फेंके हुए कपड़े थे। सिंधुताई ने वे कपड़े लिए, कुछ आटा मिला उसे टूटे मटके के पानी से भिगोकर चिता की अग्नि में रोटी पकाई। एक बार उन्हें बहुत भीख मिली लेकिन सोचा अब जीने में कोई अर्थ नहीं इसीलिए रेलवे ट्रैक की ओर गई वहां एक बूढ़ा आदमी तेज बुखार और भूख से कराह रहा था। माई ने उन्हें पानी पिलाया और छोटे छोटे रोटी के टुकड़े दिये, उसके शरीर में फिर जान आ गई।बूढे आदमी ने माई को बहुत दुआएं दी। उस दिन माई ने सोचा क्यों न मैं दूसरों की भूख दूर करूं, उनके लिए काम करूं। ऐसे ही एक बार बस से दूसरे गांव जाना था । उनकी अवस्था देख उन्हें टिकिट नहीं मिला। टिकिट खिड़की बंद कर दी गई। वो जिद्दी थीं उसी बस में चढने के लिए गईं। काफी बहस के बाद एक भिखारी के कहने पर जो उन्हें चाय पिलाना चाहता था वे उतर गईं । कुछ ही क्षणों में बिजली बस पर गिर गई और सभी लोग जल गए। उस दिन माई का पुर्नजन्म था अब वे अपना जीवन दूसरों के लिए जीना चाहती थीं । उन्हें भजन गाना अच्छा लगता इसीलिए जहां कहीं भी भजन कीर्तन चल रहा हो वो पहुँच जाती,बड़ी मुश्किल से उन्हें भजन गाने दिया जाता। उनके फटेहाल देखकर कोई उन्हें अपने पास नहीं करता था।
जीवित रहने के लिए संघर्ष की अपनी यात्रा में, सिंधुताई महाराष्ट्र के चिकलदरा में आ गई। जहां एक बाघ संरक्षण परियोजना चल रही थी, जिसके परिणामस्वरूप 24 आदिवासी गांवों को खाली कराया गया। उन्होंने असहाय आदिवासी लोगों की इस गंभीर स्थिति के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। उनके लगातार प्रयासों को वन मंत्री ने मान्यता दी, जिन्होंने आदिवासी ग्रामीणों के लिए प्रासंगिक वैकल्पिक पुनर्वास व्यवस्था बनाने का आदेश दिया। फिर वे आदिवासियों के साथ रहने लगी । धीरे धीरे उन्हें दान मिलने लगे और अनाथ बच्चों की संख्या भी बढ़ने लगी।
इन जैसी स्थितियों ने सिंधुताई को जीवन की कठोर वास्तविकताओं जैसे कि गाली, गरीबी और बेघरों से परिचित कराया इस समय के दौरान वह अनाथ बच्चों और असहाय महिलाओं की संख्या से घिर गईं और समाज में बस गईं। सिंधुताई ने इन बच्चों को गोद लिया और उनकी भूख मिटाने के लिए अथक परिश्रम किया । अपनी बेटी के प्रति खुद को आंशिक होने से बचाने के लिए सिंधुताई ने अपनी बेटी को अपने गोद लिए हुए बच्चों की खातिर पुणे में एक ट्रस्ट में भेज दिया, जिसका नाम ममता है आज MSW कर चुकी है। कई सालों तक कड़ी मेहनत करने के बाद सिंधुताई ने चिकलदरा में अपना पहला आश्रम बनाया । उसने अपने आश्रमों के लिए धन जुटाने के लिए कई शहरों और गांवों का दौरा किया। मॉं सरस्वती की कृपा उन पर थी उनके ओजस्वी भाषणों के बाद वे आव्हान आवाहन करतीं और अपना ऑंचल फैलाती, लोग बढ़चढ़कर दान देतें। अब तक, उन्होंने 1200 बच्चों को गोद लिया है, जो प्यार से उन्हें ‘माई’ कहकर बुलाते हैं। माई के बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं ।कई डॉक्टर वकील, नर्स बन गए हैं और साथ ही समाज की सेवा में लगे हैं। पिछले वर्ष उनका ऑपरेशन हुआ ।लंबे समय तक एडमिट रहीं। ढाई माह तक उनके बच्चों ने एक वक्त ही खाना खाया डर था कहीं अनाज खत्म हो जाए तो। जब वे स्वस्थ होकर लौटीं तो इस बात से द्रवित हो उठीं । बच्चे उनके लिए आशा का दिया जलाते और उनके स्वास्थ्य की कामना करते।
सिंधुताई सपकाल की जीवन गाथा एक अद्भुत भाग्य और दृढ़ संकल्प की जीवंत कहानी है उन्होंने साबित किया कि कैसे कठिनाइयाँ आपसे सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करा सकती हैं ।अपने जीवन से सबक लेते हुए उन्होंने महाराष्ट्र में अनाथ बच्चों के लिए छह अनाथालय बनाए।उन्हें भोजन, शिक्षा और आश्रय प्रदान किया । उनके द्वारा चलाए जा रहे संगठनों ने असहाय और बेघर महिलाओं की भी सहायता की। अनाथों और परित्यक्त बच्चों को गोद लेना शुरू कर दिया।
जब भी वे स्टेशन या रास्ते पर बच्चों को देखतीं तो उन्हें आश्रम ले आतीं। एक नवजात बच्ची को कचरे के डब्बे से लेकर आईं जिसकी एक उंगली कुत्तों ने खा ली थी। किसी ने उनके दरवाजे पर प्लास्टिक की थैली में एक नवजात शिशु को छोड़ा जो कुछ ही घंटों पहले जन्मा था। ऐसे सभी बच्चे आज स्वस्थ हो चुके हैं और अपने नामों के साथ सिंधूताई सपकाल यह नाम जोड़ देते हैं।
अपने अनाथालयों को चलाने के लिए सिंधुताई ने पैसों के लिए कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया बल्कि उसने सार्वजनिक मंचों पर प्रेरक भाषण दिए और समाज के वंचितों और उपेक्षित वर्गों की मदद के लिए सार्वजनिक समर्थन मांगा ।अपने एक अविश्वसनीय भाषण में सिन्धुताई ने अन्य लोगों को प्रेरणा प्रदान करने के लिए हर जगह अपनी कहानी प्रसारित करने के लिए जनता से अपनी इच्छा व्यक्त की ।
उनकी लोकप्रियता ने कभी भी उसके व्यक्तित्व पर काबू नहीं पाया। उनकी खुशी अपने बच्चों के साथ होने, उनके सपनों को साकार करने और उन्हें जीवन में सफल बनाने के बारे में रही है। कई मंचों पर उनके भाषण श्रोताओं का मन जीत लेते । सिंधुताई सपकाल ने 84 गांवों के पुनर्वास के लिए संघर्ष किया। सिंधुताई सपकाल का जीवन लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
एक बार उनका सत्कार समारोह उनके ससुराल के ग्रामीण भाग में हुआ जिसमें महाराष्ट्र शासन के 7 बड़े मंत्री शामिल थे।वहां एक जगह उनके पति रो रहे थे। माई की नज़र उनकी ओर गई। वे अपने पति के पास गईं और बोली एक दिन तुमने मुझे निकाल दिया था और मैं रो रही थी। आज तुम रो रहे हो । अब तुम चाहो तो मेरे पास रह सकते हो लेकिन केवल एक शर्त होगी अब मैं तुम्हारी पत्नि न हो सकूँगी ।अगर साथ रहना चाहते हो तो मेरे पुत्र बनकर रहना होगा। जैसा कि महाराष्ट्र के बड़े संत तुकाराम महाराज कहते हैं कि स्त्री एक क्षण की पत्नी और अनंत काल की माता होती है। उसी तरह उन्होंने अपने पति को भी माफ़ कर दिया और अनाथाश्रम लाईं जहां उनके बच्चों ने श्री सपकाल जी की सेवा सुश्रुषा की, 5 वर्षों बाद जिनका निधन हो गया।
उनकी समाज हेतू कार्य करने की भावना, क्षमा करने का गुण और हमेशा परिस्थिति से लड़ने की प्प्रेरणा देने वाली जीवन यात्रा हम सभी के लिए आदर्श है। एक गाय ने ही माई को कन्या जन्म पर आधार दिया इसीलिए उन्होंने वर्धा के नवरगाव में ‘गोपिका गाय रक्षण केंद्र’ शुरु किया जहां 200 से अधिक गाएं हैं। ऐसी कई संस्थाएं और आश्रम सिंधूताई ने बच्चों के लिए बनाए।
सिंधुताई द्वारा संचालित संगठन
सनमती बाल निकेतन, भेलहेकर वस्ती, हडपसर,
पुणेममता बाल सदन, कुंभारवलन, सासवद
माई का आश्रम चिखलदरा, अमरावती
अभिमान बाल भवन, वर्धा
गंगाधरबाबा छत्रालय, गुहा
सिंधु ‘महिला अधार, बालसंगोपन शिक्षण संस्थान, पुणे
उपलब्धियां और पुरस्कार :—–
सिंधुताई सपकाल को अपने सामाजिक कार्यों के लिए 750 से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
2017 – महिला दिवस पर 8 मार्च 2018 को सिंधुताई सपकाल को भारत के राष्ट्रपति से नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया यह महिलाओं के लिए समर्पित सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है
2016 – सोशल वर्कर ऑफ द ईयर अवार्ड वॉकहार्ट फाउंडेशन
2015 – अहमदिया मुस्लिम शांति पुरस्कार वर्ष
2014 – बसव सेवा संघ, पुणे से सम्मानित बासवासा पुरासकार
2013 – मदर टेरेसा अवार्ड्स फॉर सोशल जस्टिस
2013 – प्रतिष्ठित माँ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार
2012 – सीएनएन-आईबीएन और रिलायंस फाउंडेशन द्वारा दिए गए रियल हीरोज अवार्ड्स
2012 – कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, पुणे द्वारा दिया गया COEP गौरव पुरस्कार
2010 – महाराष्ट्र सरकार द्वारा सामाजिक कार्यकर्ताओं को महिलाओं और बाल कल्याण के क्षेत्र में अहिल्याबाई होल्कर पुरस्कार
2008 – दैनिक मराठी समाचार पत्र लोकसत्ता द्वारा दी गई वीमेन ऑफ द ईयर अवार्ड
1996 – दत्ताक माता पुष्कर, गैर-लाभकारी संगठन द्वारा दिया गया – सुनीता कलानिकेतन ट्रस्ट (स्वर्गीय सुनीता त्र्यंबक कुलकर्णी की यादों में), ताल – श्रीरामपुर जिला अहमदनगर महाराष्ट्र पुणे
1992 – अग्रणी सामाजिक योगदानकर्ता पुरस्कार
सह्याद्री हिरकानी अवार्ड (मराठी: सह्यद्रीच हिरकानी पुरस्कार)
राजाई पुरस्कार (मराठी: राजाई पुरस्कार)
शिवलीला गौरव पुरस्कार (मराठी: शिवलीला महिला गौरव पुरस्कार)
सिंधुताई के जीवन पर फिल्म (Film Based on Sindhutai’s Life) वैसे पुरस्कारों की सूची लंबी है जिनकी संख्या ७५० है, माई हमेशा कहती जब भूख लगती है न तब ये पुरस्कार काम नहीं आते कागज के टुकड़े लगते है, इनसे पेट नहीं भरता।
अपने बच्चों के भरण पोषण हेतू वे सभी मंचों पर दान की याचना करतीं। एक बार अनंत महादेवन ने एक अंग्रेजी समाचार पत्र में एक लेख पढ़ा कि १२०० बच्चों की मॉं सिंधुताई। वे बहुत प्रभावित हुए और माई की अनुमति से उन पर फिल्म बनाई। 2010 में बनी यह मराठी फिल्म “मी सिंधुताई सपकाल” सिंधुताई सपकाल की सच्ची कहानी से प्रेरित एक बायोपिक है । इस फिल्म को 54 वें लंदन फिल्म फेस्टिवल में वर्ल्ड प्रीमियर के लिए चुना गया था।
मां अपने बच्चों के लिए ईश्वर समान होती है, जो उनके जन्म से लेकर लालन पालन तक बच्चों की हर खुशी, जरूरत को ख्याल रखती है। लेकिन कभी किसी ऐसी मां के बारे में सुना है जो बिना मां बाप के बच्चों के लिए न केवल मां बनी, बल्कि उनके लिए सड़कों पर भीख भी मांगती है। वो महिला किसी एक या दो नहीं बल्कि 1400 बच्चों की मां बन चुकी है। दूसरों की मदद के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाली इस महिला का नाम सिंधु ताई है। सिंधु ताई को महाराष्ट्र की मदर टेरेसा कहा जाता है। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अनाथ बच्चों की सेवा में गुजार दी। सिंधु ताई भले ही 1400 अनाथ बच्चों की मां बन गई, लेकिन इतने सारे बच्चों का पालन करना उनके लिए आसान नहीं था। इसके लिए सिंधु ताई को जीवन में बड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा।
उन्हें अब तक मिले सम्मानों से प्राप्त हुई रकम को सिंधु ताई ने अपने बच्चों के लालन पोषण में खर्च कर दी। उन्हें डी वाई इंस्टिटूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी एंड रिसर्च पुणे की तरफ से डॉक्टरेट की उपाधि भी मिल चुकी है।
४ जनवरी २०२१ को सिंधु ताई ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया है। उनके जाने के बाद आज हजारों बच्चे एक बार फिर अनाथ हो गए। लेकिन उनका कार्य अमर है और रहेगा। आइए हम सब भी आगे आएं और सिंधुताई से प्रेरणा लेकर समाज सेवा कार्य में अपना योगदान दें।
जय हिंद। जय भारत।
स्मिता प्रसाद दारशेतकर
गोवा ,भारत