चलते रहने का नाम जीवन है

चलते रहने का नाम जीवन है

जीवन के प्रति पॉजिटिव दृष्टिकोण, जीवन में चाहे जितने भी दुख आये,,,हमेशा हँसते रहने को कृतसंकल्प,,, जीवन हरपल इम्तहान लेती है,,,पर सफल होने का जज्बा, निराशा में भी आशा का दामन थामे रखना,,,हर परिस्थिति में एक शक्ति का अहसास रखना,,,संघर्षशीलता हर हालत में अपनी ताक़त स्वंय बन जाती है।अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना और न्याय की उंगली पकड़ कर चलना मेरे जीवन का मूलमंत्र रहा है।

यूँ तो जीवनी बड़े और महान लोगों की होती है। मुझमें ऐसा कुछ खास नही है, फिर भी,,,यह मेरा एक छोटा सा परिचय है। मैने अपनी आंखें पटना के एक मध्यम परिवार में खोली। पिता जी की एक छोटी सी फैक्ट्री बेगुसराय में थी,इसलिये छुट्टियों में वहाँ भी जाना होता था। हम तीन भाई बहन थे जिसमें मैं सबसे छोटी थी। मुझे सबसे ज्यादा प्यार मिला। बचपन भाई बहनों के साथ बड़ा अच्छा गुजरा। स्कूली शिक्षा पटना के स्थानीय हाई स्कूल से पूरी की। पटना वीमेंस ट्रेनिंग कॉलेज से बी एड एवं स्नातकोत्तर (इतिहास)की डिग्री पटना विश्वविध्यालय से प्राप्त की। इस समय का एक वाकया याद आता है जब मैं एम ए की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। तब पता नहीं मेरे मन को एक डर और निराशा ने घेर लिया था। हर पल मुझे लगता कि मैं जो पढ़ रही हूँ वो परीक्षा में नहीं आयेगा और मैं फ़ेल हो जाऊंगी।मैं किसी चमत्कार की आशा कर रही थी कि कुछ ऐसा हो जाये कि मैं परीक्षा देने से बच जाऊँ। वैसी परिस्थिति में मेरे माता पिता ने मेरा हौसला बढ़ाया।उनके स्नेह और ध्यान के कारण मैने अपनी खोई हिम्मत वापस पाई और मैं परीक्षा की तैयारी में जुट गई और मैने परीक्षा दिया। जब परिणाम निकला तो मैं डर के मारे रिजल्ट देखने भी नहीं गई । मुझे मेरी सहेली ने फ़ोन कर के सूचना दी कि तुम फ़र्स्ट क्लास आई हो, फ़र्स्ट ही नहीं तुम टॉपर हो,,,। अपना रिजल्ट जान कर मै खुशी से उछल पड़ी। ये मेरे जीवन का सबसे आह्लादित करने वाला क्षण था। इसे शब्दों में व्यक्त करना बड़ा मुश्किल है। बच्चों के कठिन क्षण में माता पिता का संबल मिले तो बच्चे की प्रगति को कोई नहीं रोक सकता है। मैने बाद में हिन्दी विषय से भी स्नातकोत्तर की डिग्री ली। पर आज तक मन में एक अफसोस रह गया कि मैं पी एच डी नहीं कर पाई । यह मेरा स्वप्न था पर मेरा यह स्वप्न अधूरा रह गया।

स्कूली जीवन में मैं जहाँ पढाई के साथ साथ सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेती थी वहीं कॉलेज का जीवन पूरी तरह से अध्ययन को समर्पित था। हाँ, पटना आकाशवाणी के युववाणी से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम (विश्वविद्यालय के प्रांगण से) में जरुर भाग लेती थी।यदा कदा मेरी वार्ता भी प्रसारित होती थी। छिटपुट लिखने का शौक था। आलेख, कहानी कवितायेँ लिखा करती थी।1986 ईस्वी में मेरी शादी हुई और मैं पटना से जमशेदपुर आ गई । यहाँ आते ही मैने टाटा स्टील के शिक्षा विभाग द्वारा संचालित आर डी टाटा हाई स्कूल तत्पश्चात कदमा गर्ल्स हाई स्कूल में अध्यापन कार्य किया। अब मैं सेवानिवृत हूँ ।


वकीलों का घर,,,दिन रात कानून और न्याय की बातें होतीं। मेरे पति विनोद कुमार निधि एक जाने माने वकील हैं लेकिन मेरे ससुर लक्ष्मी निधि एक प्रतिष्ठित वकील के साथ साथ एक बहुत अच्छे लेखक, कवि एवं समाजसेवी भी हैं। उनकी बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा कुष्ठ रोगियों के लिये भी उन्होने बहुत कार्य किया है। उनके सानिंध्य में मुझमें फिर से लेखन के प्रति अभिरुचि पुनर्जीवित हुई। थोड़ा बहुत तो मैं लिखती ही थी पर घर, नौकरी और बच्चोंकी देखरेख में मेरा ये शौक दब सा गया था । समाज सेवा से भी मैं जुड़ी हूँ ।

मेरे दो बच्चे हैं एक लड़की और एक लड़का। बेटी अंकिता निधि की शादी हो चुकी है और वो एक फैशन डिज़ाइनर है तथा बेटा अमन निधि इंजीनियर है जो हैदराबाद में पोस्टेड है।

चूँकि मैं अध्यापन कार्य से जुड़ी रही इसलिये अभी वर्तमान में ब्रह्माकुमारी संस्था द्वारा संचालित स्कूल जो स्लम एरिया के बच्चों के लिये है वहाँ मैं अपनी सेवा देती हूँ । ये सेवा बिल्कुल अवैतनिक है।

जमशेदपुर से निकलने वाली मासिक पत्रिका झारखंड केसरी से सह संपादिका के रुप में जुड़ी हूँ जो मेरे लेखन कार्य को गति प्रदान करता है। इसके अलावा बहुभाषीय संस्था सहयोग और साहित्यिक संस्था नव पल्लव से भी जुड़ी हूँ ।

मैने जीवन में आशाओं का दामन कभी नहीं छोड़ा । जीवन में कितनी भी तक़लीफ़ आये संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने का ही नाम जिन्दगी है।

अनिता निधि
साहित्यकार और पूर्व शिक्षिका
जमशेदपुर

 

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