भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की- दुर्गा भाभी

दुर्गा भाभी-साक्षात दुर्गा

साल 2006 में एक फिल्म आई थी – रंग दे बसंती। फिल्म की कहानी एक ब्रिटिश वृत्तचित्र निर्माता पर आधारित थी जो अपने दादा की डायरी प्रविष्टियों के आधार पर भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों पर एक फिल्म बनाने भारत आती है। शायद आपको याद हो , इस फिल्म में अभिनेत्री सोहा अली ने जिस सेनानी का किरदार निभाया वह नाम आधुनिक भारतीय इतिहास का एक जगमगाता सितारा है – दुर्गा भाभी ।

” दुर्गा भाभी ” भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अपेक्षाकृत गुमनाम नायिकाओं में से एक हैं। इनके नाम का उल्लेख यदा – कदा ही मिलता है, वह भी सरदार भगत सिंह के नाम के साथ। किन्तु मात्र इस तथ्य से स्वतंत्रता संग्राम के पावन कर्म में दुर्गा भाभी के योगदान रूपी आहुति की महत्ता कम नहीं हो जाती। आइए,आजादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में इस अद्भुत वीरांगना के जन्म और कर्म को थोड़ा विस्तार से जानें और नमन करें।

दुर्गावती देवी का जन्म 7 अक्टूबर 1907 को शहजादपुर ( अब कौशाम्बी जिला ) में पं. बांके बिहारी जी के घर हुआ था। इनके पिता जी इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे।
इलाहबाद में जन्मीं दुर्गा देवी का बचपन बिन माँ के गुजरा। उन्होंने केवल तीसरी कक्षा तक पढ़ाई की थी। जब वे लगभग बारह बरस की हुईं तब उनका विवाह भगवती चरण बोहरा से कर दिया गया। दुर्गावती देवी के ससुर को अंग्रेजों द्वारा राय साहब की उपाधि दी गई थी। राय साहब का पुत्र होने के बावजूद भगवती चरण बोहरा का मन इसी उधेड़ बुन में रमा रहता था कि किस तरह देश को अंग्रेज़ी हुकूमत की दासता से मुक्ति दिलाई जाए।

दुर्गावती देवी के पति , भगवती चरण बोहरा जी भगत सिंह की पहल पर गठित नौजवान भारत सभा के सदस्य बने। उनके इस कार्य में दुर्गावती देवी बराबर की सहभागी बनीं।

1923 में जब भगवती चरण वोहरा ने नेशनल कॉलेज से बी ए की परीक्षा उत्तीर्ण की उनके साथ ही दुर्गावती देवी ने भी प्रभाकर की डिग्री हासिल की।
दुर्गावती देवी मायके व ससुराल दोनों पक्ष से सुदृढ़ थीं। ससुर श्री शिवचरण जी ने दुर्गावती देवी को चालीस हजार रूपए व पिता श्री बांके बिहारी जी ने पाँच हजार रूपए संकट में काम में आने के लिए दिए थे, लेकिन इन दंपति ने इसका उपयोग क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर देश को आजाद कराने में किया।
दुर्गावती देवी से दुर्गा भाभी बनने का प्रसंग भी बहुत रोचक है । भगत सिंह जी का पूरा संगठन भगवतीचरण वोहरा जी को भगत सिंह का बड़ा भाई मानता था। बोहरा जी की धर्मपत्नी दुर्गावती देवी पूरे संगठन और धीरे – धीरे इतिहास में दुर्गा भाभी के नाम से अमर हो गईं ।
जिस समय सरदार भगत सिंह जी व उनके साथियों ने लाला लाजपत राय जी की हत्या का बदला लेने के लिए दिन दहाड़े सांडर्स को गोलियों से उड़ा दिया था, अंग्रेज़ी हुकूमत में बौखलाहट बढ़ गई थी। चप्पे चप्पे पर भगत सिंह और उनके साथियों को पकड़ने के लिए गश्त कड़ी कर गई थी। ऐसे में क्रान्तिकारियों को लाहौर से निकालने में दुर्गा भाभी का योगदान अविस्मरणीय है । उस समय भगवतीचरण वोहरा फरार चल रहे थे। दुर्गा भाभी ने अपने छोटे बच्चे के साथ भगत सिंह की पत्नी का वेश धरा। भगत सिंह ने अपने केश कटवाए, कोट – पैंट और हैट पहन कर यूरोपियन का भेष बनाया। राजगुरु ने उनके नौकर का रूप धारण किया। स्टेशन पर तीनों ने ऐसा अभिनय किया मानो वे एक उच्च भारतीय परिवार के सदस्य हों। बताते हैं कि 500 पुलिस वालों से बच निकल पाना किसी चमत्कार से कम नहीं था। लाहौर स्टेशन से जितने भी बड़े स्टेशनों को ट्रेन जाती थी , सब पर पुलिस फोर्स की तैनाती कर दी गई थी। इन सबसे बच निकलने के लिए दुर्गा भाभी और साथी क्रान्तिकारियों ने एक अलग युक्ति निकाली। ये लोग सीधे कोलकाता न जाकर कानपुर स्टेशन पर उतर गए । कानपुर से लखनऊ के लिए ट्रेन ली, दुर्गा भाभी ने लखनऊ से भगवती चरण वोहरा को टेलीग्राम भेजा कि वो आ रही हैं, लेने हावड़ा स्टेशन आ जाएँ।
सी आई डी हावड़ा स्टेशन पर तैनात थी, मगर वो सीधे लाहौर से आने वाली ट्रेन पर नज़र रख रही थी । सब लोग सुरक्षित निकल गए। ऐसी विलक्षण सूझ – बूझ की स्वामिनी थीं दुर्गा भाभी।
कोलकाता में कुछ दिन रहने के बाद वे फिर लाहौर आ गईं। उसके बाद असेम्बली बम कांड के बाद भगत सिंह आदि क्रान्तिकारी गिरफ्तार हो गए । दुर्गा भाभी ने उन्हें छुड़ाने के लिए वकील को पैसे देने के लिए अपने सारे गहने बेच दिए। फिर गांधी जी से क्रान्तिकारियों को छुड़ाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की भी अपील की। दुर्गा भाभी की ननद सुशीला देवी ने भी अपने विवाह के लिए रखे 10 तोले सोने इस केस के लिए बेच दिये थे। सुशीला और दुर्गा भाभी ने ही असेम्बली बम कांड के लिए जाते समय अपनी बाँह काटकर रक्त तिलक लगाकर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को विदा किया था।

एक बार लाहौर में भगवती चरण के बम बनाने वाले कारखाने पर छापा पड़ गया और उन्हें छिपना पड़ा। इस दौरान उनकी पत्नी दुर्गा ने उनका भरपूर साथ दिया। वे उनके लिए “अंडर कवर पोस्टवूमन ” बन गईं और क्रान्तिकारियों के पत्र उनके परिवारों तक पहुँचाती रहीं।

63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद लाहौर जेल में ही जतिन नाथ दास की मृत्यु होने के बाद उनकी लाहौर से लेकर कोलकाता तक की ट्रेन में और कोलकाता में भी अंतिम यात्रा की अगुवाई दुर्गा भाभी ने ही की।

इधर उनके पति भगवती चरण वोहरा ने इरविन की ट्रेन पर बम फेंकने के बाद भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव समेत सभी क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना बनाई। इस योजना को फलीभूत करने के उद्देश्य से 28मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहरा जी शहीद हो गए। उनके शहीद होने के बावजूद दुर्गा भाभी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं।

पति की मृत्यु के पश्चात दुर्गा भाभी ने भगत सिंह को छुड़ाने का कार्य अपने हाथ में ले लिया।उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई , किन्तु वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं।
भगत सिंह व साथियों को फांसी लगने के बाद वे अत्यन्त दुखी हुईं । अंग्रेजों से बदला लेने के लिए दुर्गा भाभी ने पुलिस कमिश्नर को मारने का निर्णय लिया। अपनी इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए वे मुम्बई जा पहुँची ।एक रात काली साड़ी पहन वे कमिश्नर के बंगले पर जा पहुँचीं। क्रान्तिकारी पृथ्वी सिंह भी उनके साथ थे। कुछ अंग्रेज़ बंगले की ओर आते दिखे। दुर्गा भाभी ने तुरंत गोली चला दी।कमिश्नर उन लोगों में से नहीं था। मगर, गोली लगने से तीन अंग्रेज घायल हो गए । वहाँ से भागकर उन्होंने तुरन्त मुम्बई को छोड़ दिया। काफी समय तक वे पुलिस से बचती रहीं। लेकिन बाद में गिरफ्तार हो गईं। सबूतों के अभाव में उन्हें कोई सजा तो नहीं हुई मगर नजर बन्द रखा गया।बाद में रिहा कर दिया गया।

क्रांतिकारी दुर्गा भाभी का घर क्रांतिकारियों के लिए आश्रयस्थल बन गया था। दुर्गा भाभी को भारत की ” आयरन लेडी ” भी कहा जाता है। कोई भी क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ कोई योजना बनाता, तो ठिकाना दुर्गा देवी का घर ही होता था। दुर्गा देवी क्रांतिकारियों के लिए चंदा इकट्ठा करतीं और पर्चे बाँटती थीं।
दुर्गा भाभी के अंदर आजादी की ऐसी मशाल जल रही थी कि वे निडरता से किसी भी काम को अंजाम देती थीं। उन्होंने इतने बड़े-बड़े खतरे मोल लिए लेकिन अंग्रेजों के आगे झुकी नहीं।
भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा देने वाले गवर्नर हेली से बदला लेने के लिए दुर्गा देवी ने गवर्नर पर 9 अक्तूबर, 1930 को गोली चलाई। इस गोली से हेली बच गया और उसका सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। इस घटना के बाद दुर्गा को गिरफ्तार कर लिया और तीन साल की सजा सुनाई गई। दुर्गा भाभी ने पिस्तौल चलाने का प्रशिक्षण कानपुर और लाहौर से लिया। वे राजस्थान से पिस्तौल लाकर क्रांतिकारियों को देती थीं। चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते हुए खुद को जिस पिस्तौल से गोली मारी थी वह भी दुर्गा भाभी ने लाकर दी थी।

वैसे तो दुर्गा भाभी की बहादुरी और सूझ – बूझ के अनेक किस्से मशहूर हैं। एक प्रसंग यह आता है कि जयपुर राजदरबार के एक राज वैद्य थे – पं. मुक्ति नारायण शुक्ल । क्रान्तिकारियों से विशेष सहानुभूति रखते थे। दुर्गा भाभी उनसे शस्त्र प्राप्त करने जयपुर गईं।उन्हें शस्त्र सौंपे गए। चुनौती यह आई कि शस्त्रों को सुरक्षित कैसे ले जाया जाए।वैद्यराज ने सलाह दी कि शस्त्रों को शरीर पर बाँध लें और ऊपर से ढीली ढाली मारवाड़ी वेशभूषा धारण कर लें। दुर्गा भाभी ने ठीक ऐसा ही किया और शस्त्रों को उनके उचित ठिकाने पर पहुँचाने में सफल रहीं।

साथी क्रान्तिकारियों के धीरे – धीरे वतन की आजादी की राह में बलिदान हो जाने के कारण दुर्गा भाभी एकदम अकेली पड़ गईं। पाँच वर्षीय पुत्र शचीन्द्र को शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करने के उद्देश्य से वह साहस कर दिल्ली चली गईं।जहाँ पर पुलिस उन्हें बराबर परेशान करती रही।

दुर्गा भाभी की फरारी , गिरफ्तारी और रिहाई का सिलसिला 1931 से 1935 तक चलता रहा। अन्त में लाहौर से जिला बदर किए जाने के बाद 1935 में गाजियाबाद में प्यारेलाल कन्या विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करने लगीं और कुछ समय बाद पुनः दिल्ली चली गईं। इस बीच उन्होंने कांग्रेस ज्वाइन कर ली। मगर कांग्रेस की कार्य शैली उन्हें रास नहीं आई। अतः उन्होंने कांग्रेस भी छोड़ दी।
1940 में लखनऊ में मांटेसरी पद्धति पर विद्यालय खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ में मांटेसरी इंटर कॉलेज के नाम से जाना जाता है।
आजादी के बाद वे प्रायः अकेली ही रहीं। 15 अक्टूबर 1999 को गाजियाबाद में उनका देहान्त हो गया।
वर्षों तक उनकी जन्म स्थली वीरान पड़ी रही। फिर कौशाम्बी सांसद व भाजपा अनुसूचित मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री विनोद सोनकर ने दुर्गा भाभी की जन्मस्थली को संरक्षित करने का प्रयास शुरू किया। विनोद जी द्वारा तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री जनरल वी के सिंह से स्मारक भवन की नींव रखवाई गई। 9 अगस्त 2018 को तत्कालीन राज्यपाल महामहिम राम नाईक द्वारा स्मारक का लोकार्पण किया गया।

हमारी भारत भूमि ऐसी शेरनियों की सदैव ऋणी रहेगी, जिनके अदम्य साहस और पराक्रम ने अंग्रेज़ी शासन के छक्के छुड़ा दिए। ऐसी वीरांगना को कोटि कोटि नमन।

तुम्हारे साहस से,
चमकता रहा धरा का भाल।
जलती रही तुम बनकर,
क्रांति की मशाल।
सूझ – बूझ से तुम्हारी,
दुश्मन भी काँप उठे।
दुर्गा रूप धर कर,
जब तुम्हारे पद चाप उठे।
तुम जलती ज्वाला ,
दग्ध कर गई अरि दल।
तुमको शत – शत नमन,
तुमको शत – शत नमन।

प्रज्ञा मिश्रा
भारत

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