मेडम भीकाजी रूस्तम कामा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रवादी आंदोलन की प्रमुख नेता रहीं। भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर, 1861 को बंबई (मुंबई) में पारसी समुदाय के एक अमीर एवं मशहूर शख्सियत भीकाई सोराब जी व जीजा बाई पटेल के घर हुआ था।
उनका परिवार आधुनिक विचारों वाला था और इसका उन्हें काफी लाभ भी मिला और वो अपना ज्यादातर समय सामाजिक कार्यों में ही देने लगीं।भीकाजी कामा ने अपनी पढ़ाई एलेक्जेंड्रा नेटिव गर्ल्स इंग्लिश इंस्टीट्यूशन से की।
अंग्रेज़ी भाषा पर उनका प्रभुत्व था।
सन् 1885 में उनकी शादी रुस्तम कामा से हुई थी, लेकिन उनका दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं रहा।उनकी कोई संतान का उल्लेख भी नहीं मिलता है।वे दोनों अधिवक्ता होने के साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता भी थे, किंतु दोनों के विचार भिन्न थे। रुस्तम कामा उनकी अपनी संस्कृति को महान् मानते थे, परंतु मैडम कामा अपने राष्ट्र के विचारों से प्रभावित थीं।
धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद इस साहसी महिला ने आदर्श और दृढ़ संकल्प के बल पर निरापद तथा सुखी जीवनवाले वातावरण को तिलांजलि दे दी और शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचे साम्राज्य के विरुद्ध क्रांतिकारी कार्यों से उपजे खतरों तथा कठिनाइयों का सामना किया। जनमत जाग्रत करना तथा विदेशी शासन से भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ते हुए उन्होंने लंबी अवधि तक निर्वासित जीवन बिताया था।
उन्हें विश्वास था कि ब्रिटिश लोग भारत के साथ छल कर रहे हैं। इसीलिए वे भारत की स्वतंत्रता के लिए सदा चिंतित रहती थीं। मैडम कामा ने श्रेष्ठ समाज सेवक दादाभाई नौरोजी के यहां सेक्रेटरी के पद पर कार्य किया। उन्होंने यूरोप में युवकों को एकत्र कर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन किया तथा ब्रिटिश शासन के बारे में जानकारी दी। मैडम कामा ने लंदन में पुस्तक प्रकाशन का कार्य आरंभ किया। उन्होंने विशेषत: देशभक्ति पर आधारित पुस्तकों का प्रकाशन किया। वीर सावरकर की पुस्तक ‘1857 चा स्वातंत्र्य लढा’ (1857 का स्वतंत्रता संग्राम) प्रकाशित करने के लिए उन्होंने सहायता की। मैडम कामा ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए क्रांतिकारियों को आर्थिक सहायता के साथ ही अन्य अनेक प्रकार से भी सहायता की। सन् 1907 में जर्मनी के स्ट्रटगार्ड नामक स्थानपर ‘अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी परिषद’ संपन्न हुई थी। इस परिषद के लिए विविध देशों के हजारों प्रतिनिधी आए थे।
तथ्यों के मुताबिक भीकाजी हालांकि अहिंसा में विश्वास रखती थीं लेकिन उन्होंने अन्यायपूर्ण हिंसा के विरोध का आह्वान भी किया था।
भीकाजी ने स्वराज के लिए आवाज उठाई और नारा दिया− “आगे बढ़ो, हम भारत के लिए हैं और भारत हम भारतीयों के लिए है” ।
देश की स्वतंत्रता को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेने वाली, दृढ़ विचारों वाली महिला भीकाजी कामा ने अगस्त, 1907 को जर्मनी में आयोजित सभा में देश का झंडा फहराया था, जिसे उनके कुछ साथियों ने मिलकर तैयार किया था।यह झंडा आज के तिरंगे से थोड़ा भिन्न था। इसमें वंदेमातरम छपा था। इस झंडे को भारतीय संस्कृति का विशेष परिधान साड़ी पहनकर लहराया था।
मैडम कामा पर किताब लिखनेवाले रोहतक एम.डी. विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर बी.डी.यादव बताते हैं, “उस कांग्रेस में हिस्सा लेनेवाले सभी लोगों के देशों के झंडे फहराए गए थे और भारत के लिए ब्रिटेन का झंडा था, उसको नकारते हुए भीकाजी कामा ने भारत का एक झंडा बनाया और वहां फहराया।”साड़ी धारण किए हुए मैडम कामा की पेंटिंग, जिसमें वे हाथ में भारत का झंडा लिए हुए हैं और उस झंडे पर ‘वंदेमातरम’ लिखा है, पुणे की केसरी मराठा लाइब्रेरी में प्रदर्शित है।
भीकाजी ने स्वतंत्रता सेनानियों की आर्थिक मदद भी की और जब देश में प्लेग की बीमारी ने अपना प्रकोप दिखाया तो अपनी जान की परवाह किए बगैर उनकी भरपूर सेवा की। पीड़ितों की सेवा के दौरान वे खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गईं थीं, लेकिन इलाज के बाद वे ठीक हो गई थीं।
भीकाजी कामा का नाम आजादी की लड़ाई में अग्रणियों में सबसे पहले माना जाता है। आज भी उनका नाम इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों से सुसज्जित है।
इस महान क्रांतिकारी भारतीय मूल की भीकाजी कामा ने लंदन से लेकर जर्मनी और अमेरिका तक का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया था।
भीकाजी ने स्वतंत्रता की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। बाद में वो लंदन चली गईं और उन्हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली। लेकिन देश से दूर रहना उनके लिए संभव नहीं हो पाया और वो पुनः भारत आ गई।
13 अगस्त 1936 को 74 वर्ष की उम्र में यानी आजादी से कई साल पहले ही उनका निधन हो गया था। भीकाजी कामा ही वो पहली भारतीय महिला हैं, जिन्होंने पहली बार विदेशी धरती पर भारतीय झंडा लहराया था। लेकिन यह दु:खद बात है कि वे आजादी के उस सुनहरे दिन को नहीं देख पाईं।
साभार – विकिपीडिया/बेवदूनिया
शिखा पोरवाल
वैकुंवर कनाड़ा