भारत के महानायक:गाथावली स्वतंत्रता से समुन्नति की- वीर सावरकर

वीर सावरकर

बड़े भाग्यशाली होते हैं वो लोग जिनके सिर पर हमेशा माता-पिता का साया रहता है, मगर किसी के बाल्यकाल में माता-पिता का साया उठ जाना कितना दुःखदायी होता है और यदि ऐसा व्यक्ति देश के नाम पर समन्दर पार किसी खतरनाक जेल भेज दिया जाये जिसमें निर्दयी जेलर उसे कोल्हू के बैल की तरह जोतकर सरसों और नारियल का तेल निकलवायें, काम पूरा नहीं होने, बीमार होने पर भी कोड़े मारे जायें और भर पेट भोजन ना देकर भूखा मारा जाये और वो व्यक्ति अपनी मातृभूमि को आज़ाद कराने, अंग्रेज़ों के चंगुल से छुड़ाने के लिए इन सब यातनाओं को चुपचाप बहादुरी से सह जाये ऐसे व्यक्ति को वीर नहीं तो और क्या कहा जा सकता है….?
जी हां ! ऐसा ही जीवन जीने वाले भारत के स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर थे जिनका जन्म 28 मई, 1883 को महाराष्ट्र (उस समय बॉम्बे प्रसिडेन्सी)में नासिक के निकट भागुर गांव में हुआ था । उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था । इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं । जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया । इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए । इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य संभाला । दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा । विनायक ने शिवाजी हाई स्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की । बचपन से ही वे पढाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएं भी लिखीं थीं । इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया और ग्यारह वर्ष की आयु में ही उन्होने वानर सेना नाम का समूह बनाया।बाल गंगाधर तिलक को ही वे अपना गुरू मानते थे ।

शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी । सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूनकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ । इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया । सन् 1902 में मैट्रिक की पढा़ई पूरी करके उन्होंने पुणे के फर्ग्युसन कॉलंज से बी.ए. किया ।


वर्ष 1906 जून में बेरिस्टर बनने के लिए वे इंग्लेण्ड चले गये । राष्ट्रीय कार्यकर्ता श्यामजी कृष्णा वर्मा ने कानून की पढाई पूरी करने हेतु इन्हें इंग्लैण्ड भेजने में सहायता की । उन्होने लन्दन से बार एट लॉ (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहां वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। विनायक दामोदर भारत के महान क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, इतिहासकार, राष्ट्रवादी नेता तथा विचारक के अलावा भाषाविद्, कवि, दार्शनिक और ओजस्वी वक्ता भी थे । उन्हें प्रायः स्वातऩ्त्र्यवीर और वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है ।
वीर सावरकर ने 1904 में अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की । 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई । फर्ग्युसन कॉलेज पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत ओजस्वी भाषण देते थे । सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे । 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाऊस लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई । इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातऩ्त्रता का प्रथम संग्राम सिद्ध किया । वीर सावरकर ने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें भारतीय स्वातंत्रता युद्ध, मेरा आजीवन कारावास, और अण्डमान की प्रतिघ्वनियां अधिक प्रसिद्ध हैं।जून 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ इन्डिपेंडेस 1857 तैयार हो गई परन्तु इसके मुद्रण की समस्या आई जिसे अंग्रेज़ों ने लन्दन से लेकर पेरिस, जर्मनी तक नहीं छपने दिया जो बाद में हॉलेण्ड से प्रकाशित हो सकी । सावरकर ने यहीं पर आज़ाद भारत सोसाइटी का गठन किया ।
विनायक सावरकर को अंग्रेज़ सरकार ने हत्या की योजना और पिस्तौलें भारत भेजने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया, आगे के अभियोग के लिए भारत ले जाने की खबर पता चली तो सावरकर जहाज के फ्रांस में रूकते ही समुद्री मछलियों, जानवरों की परवाह किये बिना जहाज से समुद्र में कूदकर तैरते हुए किनारे पहुंच गये जहां से उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया।

एक विशेष न्यायालय द्वारा उनके अभियोग की सुनवाई हुई और उन्हें 1910 में आजीवन काला पानी की सज़ा मिली । उनको अंडमान के सेलुलर जेल भेज दिया गया और लगभग 14 साल के बाद रिहा कर दिया गया । सावरकर ने कलम-कागज़ के बिना जेल की दीवारें पर पत्थर के टुकड़ों से कवितायें लिखीं । कहा जाता है उन्होंने अपनी रची दस हज़ार से भी अधिक पंक्तियों को तब तक अपनी यादाश्त में सुरक्षित रखा जब तक वह किसी न किसी तरह देशवासियों तक नहीं पहुंच गई ।

सावरकर ऐसे पहले क्रांतिकारी थे जिन्हें अंग्रेज़ सरकार ने दो-दो बार आजीवन कारावास की सज़ा दी। मगर सावरकर का कहना था-मातृभूमि ! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूं । देश सेवा ही ईश्वर सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की ।

सावरसर जी हिन्दू समाज में प्रचलत जाति-भेद एवं छुआछूत के घोर विरोधी थे । मुम्बई का पतितपावन मंदिर इसका जीवन्त उदाहरण है जो हिन्दू धर्म की प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला है ।

30 वर्ष के सावरकर को जब कालेपानी की सज़ा हुई तब जेल में मुलाकात करते हुए वे पत्नी से बोले थे – कालेपानी से कोई ज़िदा वापस नहीं लौटता । तिनके-तीलियां बीनना और बटोरना तथा उससे एक घर बनाकर उसमें बाल-बच्चों का पालन-पोषण करना …यदि इसी को परिवार और कर्तव्य कहते हैं तो ऐसा संसार तो कौए और चिड़िया भी बसाते हैं । अपने घर-परिवार-बच्चों के लिए तो सभी काम करते हैं। मैंने अपने देश को अपना परिवार माना है इसका गर्व कीजिये ।

ऐसे क्रांतिकारी की पत्नी भी उनकी तरह ही देशभक्त थी । यमुनाबाई ने उनके चरण छूते हुए कहा था- मैं यह चरण अपनी आंखों में बसा लेना चाहती हूं, ताकि अगले जन्म में कहीं मुझसे चूक न हो जाये । अपने परिवार का पोषण और चिंता करने वाले मैंने बहुत देखे हैं, समूचे भारतवर्ष को अपना परिवार मानने वाला व्यक्ति मेरा पति है । यदि आप सत्चवान हैं, तो मैं सावित्री हूं । मेरी तपस्या में इतना बल है कि मैं यमराज से आपको वापस छीन लाऊंगी ।

सावरकर ने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया और गांधीजी को ऐसा करने के लिए निवेदन किया।नाथूराम गोडसे ने उसी दौरान गांधी जी की हत्या कर दी जिसमें सावरकर का भी नाम आया । एक बार फिर उन्हें जेल जाना पड़ा मगर साक्ष्यों के अभाव में उन्हें रिहा कर दिया गया । उनके द्वारा ही तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया गया था । 1 फरवरी 1966 को उन्हेंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया और 26 फरवरी, 1966 को उन्होंने मुम्बई में अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया और चिर निद्रा में लीन हो गये ।

राजेश कुमार भटनागर
राजस्थान, भारत

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